अफसोस, सत्तारुढ़ दल और राज्य के CM ने सदन को सिर्फ बजट पास कराने का जरिया बना लिया
झारखण्ड विधानसभा का शीतकालीन सत्र समाप्त हो गया, ये सत्र भी आम सत्रों की तरह ही हंगामें की भेंट चढ़ गया, सत्तापक्ष और विपक्ष के सभी सदस्यों ने अपने-अपने ढंग से सदन को चलाने की कोशिश की, पारा टीचरों के आंदोलन तथा बाहरी व्यक्तियों को राज्य में मिल रही नौकरी ही हंगामें के केन्द्र में रहा, पारा टीचरों के मुद्दे पर तो जैसे राज्य सरकार ने संकल्प ही ले रखा है कि पारा टीचरों को सबक सीखा देना है, और जब कोई सरकार किसी मुद्दे पर हठधर्मिता अपना लें, तो फिर सदन में रखी बातें भी कोई मायने नहीं रखता।
विपक्ष की मांगे थी, पारा टीचरों और राज्य में बाहरी व्यक्तियों के नौकरी के मुद्दे पर कार्यस्थगन मंजूर किये जाये, तथा उस पर सदन में चर्चा कराई जाये, पर सरकार को ये सब मंजूर नहीं था, मंजूर होता भी कैसे? सदन इसी के लिए थोड़े ही बुलाया गया था, ऐसे भी झारखण्ड में सदन तो बजट पास कराने के लिए ही सिर्फ बुलाये जाते हैं, बजट पास हो गया, काम समाप्त हो गया, अब सदन में काम हो या न हो, उससे राज्य सरकार को क्या मतलब? बाकी काम तो विपक्ष कर ही देगा और फिर स्पीकर अंत में एक – दो बार थोड़े-थोड़े समय के लिए सदन को स्थगित करेंगे और फिर बाद में सदन अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दिया जायेगा।
विपक्ष के नेता हेमन्त सोरेन का पारा टीचरों को लेकर सरकार के प्रति की गई टिप्पणी कि राज्य सरकार पारा टीचरों के साथ क्रूरता से पेश आ रही है, इस टिप्पणी को कोई गलत भी नहीं ठहरा सकता, क्योंकि अब तक दस से भी अधिक पारा टीचरों की मौत हो गई, कई तो लापता है, उनके परिवारवाले उन्हें खोज रहे हैं, पर वे मिल नहीं रहे और न ही पुलिस ही उन्हें ढूंढने का काम कर रही है, और जिस राज्य में इस प्रकार की घटना घटे, उसके लिए क्रूरता शब्द का उपयोग किसी भी दृष्टिकोण से गलत नहीं ठहराया जा सकता, ये अलग बात है कि हेमन्त सोरेन की इस टिप्पणी को भी राजनीतिक बयान की तरह संसदीय कार्य मंत्री नीलकंठ सिंह मुंडा ने जवाब दिया।
जिस प्रकार से सदन चला, उससे साफ लगता है कि राज्य सरकार को इस बात का अहं हो चला है कि इस राज्य में जब भी कभी चुनाव होंगे, जनता सिर्फ और सिर्फ उन्हें ही सत्ता में रहने का मौका देगी, पर वे भूल रहे हैं कि जनता की नजरों में वे पूरी तरह से इस स्तर तक गिर चुके हैं कि चुनाव जब भी हो, इन्हें हार के सिवा, कुछ प्राप्त नहीं होने जा रहा, क्योंकि जो वर्तमान में भाजपा के विधायक है, उन्हें अपने क्षेत्रों में जनता का किस प्रकार कोपभाजन बनना पड़ रहा हैं, उसका ऐहसास है।
राज्य सरकार द्वारा की जा रही ढपोरशंखी योजनाएं तथा उनकी लूटती जल, जंगल और जमीन हर प्रकार से कह रही है कि अब रघुवर की विदाई ही एकमात्र विकल्प है, जनता तो अब तक जितने भी विधानसभा के उपचुनाव हुए, भाजपा का हार से स्वागत किया, फिर भी अहं में डूबी इस सरकार को, ऐहसास नहीं हो रहा। भ्रष्टाचार से ही शुरुआत करनेवाली सरकार, जिसने प्रलोभन देकर, झाविमो के विधायकों का दलबदल करवाया, और खुद भ्रष्टाचार मुक्त सरकार बनाने का दावा करती है, पर उसे नहीं पता कि राज्य की जनता उनके समस्त कार्यों को लिटमस पत्र के द्वारा जांच कर चुकी है।
लोकतंत्र में सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं, पर जब सत्ता में रह रहा व्यक्ति या दल, विपक्ष को सम्मान देना भूल जाये, अहं में डूब जाये, तो फिर लोकतंत्र की खुबसूरती प्रभावित होने लगती है, जिस प्रकार से रघुवर सरकार ने सदन को प्रभावित करने के लिए हथकंडे अपनाएं हैं, निःसंदेह इससे लोकतंत्र प्रभावित हो रहा है।
ऐसे भी इस शीतकालीन सत्र को लेकर, स्पीकर द्वारा बुलाई गई बैठक में सत्तारुढ़ दल के नेता का गायब रहना, बता देता है कि राज्य के मुख्यमंत्री के दिल में सदन के प्रति कितना सम्मान है और वे सदन को किस नजर से देखते हैं, अब चूंकि सदन का शीतकालीन सत्र समाप्त हो चुका है, आनेवाला समय चुनावी वर्ष है, कुछ महीने के बाद बजट सत्र प्रारम्भ होगा, आप न तो इस सदन से और न ही इस सरकार से बेहतरी की उम्मीद कर सकते हैं।