प्रदेश कांग्रेस के नेता अगर नहीं सुधरे, तो आदिवासी वोटर्स उनसे सदा के लिए बिदक जायेंगे
लो भाई, 2 मार्च भी बीत गया, राहुल गांधी ने भी रांची में भाषण दे दिया, खुब जोश व उत्साह से भी आप लबालब हो गये, अब तो कांग्रेस हर जगह दिखनी चाहिए, वहां भी दिखनी चाहिए, जहां कभी दिखी ही नहीं, पर ये क्या? जहां इसे दिखना चाहिए, वहां भी भुकभुकाने का खतरा उत्पन्न हो गया, ऐसे में कांग्रेस कहां से खुद को मजबूत कर पायेगी?
कांग्रेस के साथ गठबंधन करनेवाली पार्टियां झामुमो और झाविमो, पहले से ही आदिवासियों को अपनी ओर खीचने के लिए जोर लगा रही हैं, इसके लिए झारखण्ड के विभिन्न आदिवासी बहुल इलाकों में कोई जनसंघर्ष यात्रा कर रहा तो कोई सभाओं से उन्हें अपनी ओर खींचने में लगा हैं, पर कांग्रेस में ऐसा देखने को नहीं मिल रहा, जबकि कांग्रेस में आदिवासी नेताओं की बाहुल्यता हैं, पर चूंकि यहां आदिवासी नेताओं को अर्श की जगह फर्श पर धकेल दिया गया हैं, ऐसे में यहां आदिवासी वोटर्स इससे जुड़ेंगे कैसे?
दूसरी ओर जन संगठन से जुड़े नेताओं तथा जनसंगठनों द्वारा खड़े किये जा रहे सवालों पर भी पार्टी ले-देकर चुप्पी साधे हुए हैं, इन जन संगठनों से जुड़े कार्यक्रमों में अगर पार्टी की ओर से किसी नेता ने दिलचस्पी दिखाई तो वे सिर्फ और सिर्फ सुबोधकांत सहाय, थियोडोर किरो एवं रामेश्वर उरांव ही हैं, जबकि सच्चाई यह है कि कई जनसंगठनों से जुड़े आदिवासी नेताओं की कमजोरी कांग्रेस रही हैं, पर कांग्रेस द्वारा उन्हें नहीं पूछा जाना उन्हें साल रहा हैं, जिसके कारण वे खुद को पार्टी से अलग-थलग पा रहे हैं।
इधर पार्टी में ऐसे-ऐसे लोगों का आगमन हो चुका है, जो कांग्रेस के साथ कभी रहे ही नहीं और न ही कभी कांग्रेस के नीतियों पर उनका विश्वास रहा, वैसे लोगों को पार्टी में ले लिये जाने से भी आदिवासियों का एक बड़ा तबका बिदका हुआ हैं। पिछले दिनों भाजपा में काफी समय बिता चुके पूर्व सांसद शैलेन्द्र महतो और उनकी पत्नी आभा महतो के कांग्रेस ज्वाइन करने से भी आदिवासी समुदाय गुस्से में हैं।
आदिवासी समुदाय के ज्यादातर लोग कांग्रेस में शामिल हुए कुरमी नेता शैलेन्द्र महतो और आभा महतो के खिलाफ हैं, इनका कहना है कि जो व्यक्ति कुरमी जाति को आदिवासी समुदाय में शामिल कराने के लिए जातीय आंदोलन को हवा दे चुका है, वैसे लोग अगर कांग्रेस में शामिल होंगे तो फिर कांग्रेस पार्टी से उनका रिश्ता कैसा?
ज्ञातव्य है कि शैलेन्द्र महतो, झारखण्ड कुरमी संघर्ष मोर्चा के संयोजक हैं, तथा इन्होंने 8 फरवरी 2018 को राज्य के मुख्यमंत्री रघुवर दास को एक ज्ञापन सौंपा था, जिसमें कुरमी को आदिवासी का दर्जा दिये जाने की मांग की गई थी, जिसमें कई सांसदों- विधायकों के हस्ताक्षर थे, जिनमें भाजपा के सांसद राम टहल चौधरी, नेता प्रतिपक्ष हेमन्त सोरेन आदि के भी हस्ताक्षर थे, जिसको लेकर कई आदिवासी नेताओं ने कड़ी आपत्ति दर्ज कराई थी, और रांची में कई आदिवासी संगठनों ने सभा के माध्यम से रघुवर सरकार और उन दलों को चेताया था, जिनके लोगों ने उक्त ज्ञापन में हस्ताक्षर किये थे।
सूत्र बताते है कि इसके पूर्व झारखण्ड जनजातीय कल्याण शोध संस्थान ने सन् 2004 में शोधकर्ता, सहायक निदेशक सोमा सिंह मुंडा एवं 2008 में निदेशक प्रकाश चंद्र उरांव के माध्यम से शोध कराया था, जिसमें इन दोनों ने कुरमी जाति को आदिवासी का दर्जा देने से इनकार कर दिया था, फिर भी कुरमी को आदिवासी में शामिल करने को लेकर झारखण्ड में आदिवासी और कुरमी जातियां आमने-सामने है और इन दोनों के नाम पर यहां राजनीति भी चरम पर हैं।
आदिवासी नेताओं का ये भी कहना है कि गत 2 मार्च को जिस प्रकार प्रदेश कांग्रेस को चला रहे नेताओं ने स्थानीय आदिवासी नेताओं को नजरंदाज करने का काम किया, उससे भी यहां के आदिवासियों को झटका लगा है। लोग बताते है कि ऐसे तो प्रदेश में कांग्रेस का कोई संगठन हैं ही नहीं, जो भी हैं, उन जोनल कार्डिनेटरों में भी एक ही आदिवासी महिला दिखती है, जिनका नाम रमा खलखो हैं। कांग्रेस में प्रवक्ताओं की जो टीम बनाई गई हैं, वहां भी आदिवासी नहीं हैं। ऐसे में क्या आदिवासी केवल कांग्रेस के वोट बैंक बनने के लिए रह गये हैं, ये पार्टी के राष्ट्रीय व प्रदेश के प्रमुख नेताओं को सोचना हैं। लोग बताते है कि पूरे पार्टी में ऐसे लोगों का कब्जा हो गया है, जिनका कोई जनाधार ही नहीं हैं, और जो जनाधार वाले नेता हैं, उन्हें कोई सम्मान ही नहीं दे रहा, ऐसे में भविष्य में आदिवासियों का वोट कांग्रेस को शिफ्ट होगा, कहना मुश्किल हैं।
सूत्र यह भी बताते है कि कांग्रेस को चला रहे वर्तमान लोग कुछ ऐसी लोकसभा की सीटें जहां कांग्रेस मजबूत स्थिति में हैं, उन सीटों को अपने निजी स्वार्थ के लिए सहयोगियों को देने की योजना बना रहे हैं, जो पार्टी के लिए आत्मघाती ही होगा। सूत्र बताते है कि रांची और खूंटी में कांग्रेस मजबूत स्थिति में हैं, यहां जब भी चुनाव होंगे, कांग्रेस जीतेगी, क्योंकि जनता इन इलाकों में परिवर्तन चाहती है, पर ये तय करना कांग्रेस को है कि वहां वह खुद अपना जीत सुनिश्चित करना चाहती है या दूसरे दलों को।
पूरे प्रदेश में लोग चुनाव के मूड में हैं, अगर चुनावी माइलेज लेने की बात कहें तो झारखण्ड मुक्ति मोर्चा यहां सभी दलों से आगे हैं, झाविमो और कांग्रेस की स्थिति लगभग बराबर है, भाजपा के नेता भी यहां खुब भाग-दौड़ कर रहे हैं, पर कांग्रेस में सब कुछ ठीक-ठाक नहीं चल रहा, अगर आदिवासियों का एक बहुत बड़ा वर्ग इससे बिदका, तो गठबंधन के बावजूद भी इसका लाभ कांग्रेस को मिलेगा, कहना मुश्किल है, इसलिए कांग्रेस को चाहिए कि वह ऐसे दलबदल में माहिर नेताओं से खुद को बचाकर रखें, नहीं तो लेने के देने पड़ जायेंगे।
वो कहावत है न, चौबे गये छब्बे बनने, दूबे बनकर आये, यानी चले थे भाजपा को शिकस्त देने, और खुद ही शिकस्त खा जाये, इसलिए आदिवासी नेताओं को सम्मान के साथ-साथ उन पर विश्वास करना सीखें, तथा वैसे इलाके जहां आदिवासियों की बाहुल्यता हैं, और जिनकी वहां पकड़ हैं, अभी से ही उन्हें अपने इलाके में प्रचार-प्रसार करने की छूट दें, ताकि वे बेहतर कर सकें, नहीं तो दिक्कत कांग्रेस को ही होगी, क्योंकि पार्टी की टिकट लेने के लिए अभी से ही थैलियों से मजबूत लोग, थैली लेकर निकल पड़ें हैं, अच्छा रहेगा कि पार्टी थैलियों के चक्कर में न पड़कर, कांग्रेस के पुराने व असली कार्यकर्ता को स्थान दें, ताकि वहां जीत सुनिश्चित हो सकें।