यकीन मानिये, रांची भाजपा को और खूंटी कांग्रेस को, पूरे झारखण्ड में बर्बाद करके रख देगा
क्या भाजपा, क्या कांग्रेस, एक उम्मीदवार देने में इन दोनों दलों के पसीने छूट रहे हैं। आश्चर्य है इन राष्ट्रीय दलों के पास एक से एक समर्पित कार्यकर्ता है, पर इन समर्पित कार्यकर्ताओं पर इन पार्टियों के प्रदेश अध्यक्षों से लेकर राष्ट्रीय अध्यक्षों तथा अन्य वरिष्ठ नेताओं को भरोसा नहीं है, उन्हें लगता है कि दूसरे दलों में जो नेता हैं, वे ही भरोसे के काबिल है, इसीलिए ये पार्टियां, ऐसे नेताओं पर डोरे डालकर, उनकी गणेश परिक्रमा, मान–मनौव्वल कर, राष्ट्रीय कार्यालय में प्रतिष्ठित कर, उन्हें नाना प्रकार के अंगवस्त्रम् से विभूषित कर, उनकी आरती उतारकर, पार्टी में मिला रहे हैं तथा टिकट देने का भरोसारुपी झूनझूना थमा देकर, पोहला रहे हैं।
इधर क्षेत्रीय दल आश्चर्य में है कि आखिर भाजपा और कांग्रेस के लोगों को यह क्या हो गया? आखिर उनकी पार्टी के नेताओं से इनको इतना प्यार कैसे हो गया, यहीं सोचकर आश्चर्यचकित है, फिर भी क्षेत्रीय दलों के नेताओं का मानना है कि उनका वोटर, उन नेताओं के भरोसे वोट नही करता, जो हनुमान–कूद में विश्वास करते है, उनका वोटर तो वह वोटर हैं, जो कभी बदल ही नहीं सकता।
जैसे लालू प्रसाद और शिबू सोरेन जैसे नेताओं का वोटर, भला इनके वोटर को कौन इधर से उधर कर सकता है? इनके वोटर और कार्यकर्ता तो आज भी समर्पित है, तभी तो गठबंधन की आवश्यकता पड़ रही हैं, नहीं तो गठबंधन की जरुरत ही क्या थी? आप लाख इन क्षेत्रीय दलों के नेताओं को तोड़ ले, पर इनकी जो साख है, वह कभी कम नहीं होनेवाली, भले ही भाजपा–कांग्रेस के हालत क्यों न खराब हो जाये।
झामुमो झारखण्ड में गठबंधन के तहत मिले चार सीटों पर पूरी तरह से ताल ठोक चुका है, जबकि गठबंधन का महत्वपूर्ण घटक कांग्रेस को प्रत्याशी चूनने में ही पसीने छूट रहे हैं, चूंकि कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष ही कर्नाटक के है, उन्हें झारखण्ड की भौगोलिक स्थिति तो दूर सामाजिक समीकरण तक का पता नहीं है, इसलिए ये हवा–हवाई किले में विश्वास रख रहे हैं, उन्हे कोई बोल दिया कि फलां इलाके में फलां व्यक्ति ठीक होगा, लीजिये उनकी सीट पक्की और जो अपने ही घर कांग्रेस में रहा, अपना जीवन खपा दिया, चुनाव के ऐन मौके पर ही गच्चा खा गया।
जरा देखिये खूंटी में कांग्रेस ने क्या कर दिया है, जिसका खामियाजा कांग्रेस को अंततः उठाना ही पड़ेगा, जीती हुई खूंटी सीट कांग्रेस अपनी हठधर्मिता के कारण गंवानें पर तूली है, जहां भाजपा शुरुआती रुझानों में बहुत बड़ी माइलेज ले चुकी है, और इसके लिए कोई जिम्मेवार है, तो वह यहां का प्रदेश अध्यक्ष डा. अजय कुमार ही हैं, दूसरा कोई नहीं।
यहीं हाल भाजपा का है, रांची के सीट पर उसका कौन उम्मीदवार होगा, उसे सूझ ही नहीं रहा, इधर भाजपा के ही निवर्तमान सांसद राम टहल चौधरी जितना भाजपा को तहस–नहस करना था, कर चुके और इधर कांग्रेस के प्रत्याशी सुबोध कांत सहाय ने वो गजब ढा दिया कि चाहकर भी भाजपा अब वो नहीं कर सकती, जो वह कर सकती थी, यानी आनेवाले समय में जितना मजबूत भाजपा खूंटी में हैं, उतनी ही मजबूत कांग्रेस रांची संसदीय सीट पर हो गई है।
कमाल है, पूर्व में जिस प्रकार से हालात थे, महागठबंधन जितना झारखण्ड में मजबूत थी, आज की हालात में महागठबंधन धीरे–धीरे कमजोर होती जा रही है, और इसका भी श्रेय कांग्रेस को ही जाता है, क्योंकि कांग्रेस ने जिस प्रकार से उम्मीदवारों के चयन में जानबूझकर देरी लगाई, उसका खामियाजा उसे भुगतना ही पड़ेगा, ऐसे भी अल्पसंख्यकों में जो मुस्लिम समुदाय है, वो झामुमो से कम पर कांग्रेस तथा झाविमो से ज्यादा खफा है, उसे लग रहा है कि कांग्रेस और झाविमो ने मिलकर अल्पसंख्यक मुस्लिमों से एक सीट छीन ली।
और लगे हाथों भाजपा को भी देख लीजिये, कमाल है राजद के कथित दो बड़े–बड़े नेताओं को भाजपावालों ने अपने में मिला लिया, पर कोडरमा और चतरा में उनका कौन उम्मीदवार होगा, सूझ ही नहीं रहा। और इसी चक्कर में जो कांग्रेस और भाजपा के समर्पित नेता व कार्यकर्ता है, अपनी ही पार्टियों से इतनी दूरियां बना ली हैं कि दोनों को इसमें नुकसान होना तय हैं और इसका फायदा कोई तीसरा उठा लें तो इसमें अतिश्योक्ति की बात नहीं होनी चाहिए।
कुल मिलाकर देखा जाये, तो महागठबंधन अगर किसी पार्टी के कारण कमजोर हुआ तो वह हैं कांग्रेस और एनडीए अगर किसी पार्टी के कारण कमजोर हुआ तो वह खुद है भाजपा, जिसने प्रत्याशियों के चयन में देरी कर दी, जिसे अपने लोगों से ज्यादा आयातित उम्मीदवारों पर भरोसा हो गया। जिसका खामियाजा भाजपा और कांग्रेस दोनों को भुगतना तय है।