गुस्से में झारखण्ड का मुसलमान, महागठबंधन से भारी नाराजगी, वोटिंग पर पड़ सकता है असर
आम तौर पर सभी चुनावों में मतदान में बड़ी संख्या में उत्साह के साथ भाग लेनेवाला मुस्लिम समाज इन दिनों बहुत नाराज है, उसकी नाराजगी इस बात को लेकर है कि राज्य में पहली बार जिन दलों से उनकी आशा रहती थी, उन दलों ने उनके साथ विश्वासघात किया, उनके समुदाय के लोगों को टिकट से वंचित रखा, तथा उनकी समस्याओं की सुध ही नहीं ली।
हाल ही में जब मुस्लिम समाज के लोग, अपनी समस्याओं को लेकर हिन्दपीढ़ी में बैठक कर रहे थे, तो उन्हें आचार संहिता के उल्लंघन के मामले में उलझा दिया गया, ऐसे में झारखण्ड के मुसलमान क्या करें? केवल वोट बैंक बन कर रह जाये, अपनी समस्याओं के लिए संघर्ष करें, अपने हक को चुनाव में भाग लेनेवाले दलों तक पहुंचाएं या घरों में बंद होकर रह जाये, या केवल मतदान के लिए बाहर निकले तथा मतदान कर घर में जाकर सो जाये।
आम मुस्लिम मतदाता साफ कहता है कि ये तो पहली बार हो रहा है लोकसभा चुनाव में, कि अब राजनीतिक दल या प्रत्याशी कम, और आम मतदाता, आम शहरी, आम ग्रामीण आचार संहिता मामले में सिर्फ अपने हक की आवाज को बुलंद करने के कारण फंसते जा रहे हैं और उसकी जिंदगी को थाने व अदालत में पिसने का इंतजाम कर दिया जा रहा है। दूसरी ओर इस मुद्दे पर कोई राजनीतिक दल मुंह भी नहीं खोल रहा, यानी गजब की स्थिति हैं, ऐसा तो टी एन शेषण के समय भी नहीं हुआ था।
वरिष्ठ पत्रकार एवं झारखण्ड आंदोलनकारी बशीर अहमद साफ कहते है कि पहली बार इस चुनाव में ऐसा देखने को मिलेगा कि मुस्लिम वोटर, वोट देने के लिए निकलेंगे जरुर, पर उनमें उत्साह की कमी होगी, जिस उत्साह से वे वोट देने के लिए अपने परिवार के साथ निकलते हैं, वो इस बार देखने को नहीं मिलेगा, उसका मूल कारण, एक तो बेवजह कानूनी पचड़ा का बढ़ जाना, आचार संहिता का भय, राजनीतिक दलों द्वारा मुस्लिम समाज के प्रति बदलता नजरिया, खासकर जिस महागठबंधन से मुस्लिम समाज को उम्मीदें थी, उन उम्मीदों पर इनके द्वारा पानी फेर दिया जाना प्रमुख है।
समाजसेवी नदीम खान की बात करें, तो वे कहते है कि भाई चुनाव आचार संहिता बना है किसके लिए, ये तो बना है, प्रत्याशियों के लिए, राजनीतिक दलों के लिए जो चुनाव का फायदा उठाते हैं, आम आदमी कौन सा फायदा उठा रहा है, क्या लोकतंत्र में अपनी बातों को रखना भी सांप्रदायिकता है, क्या लोकतंत्र में अपनी हक की लड़ाई को रेखांकित करना भी गुनाह है तो ऐसे में फिर चुनाव का क्या मतलब? दुसरी ओर पहली बार हो रहा है कि जो हमेशा अल्पसंख्यकों के लिए जीने–मरने की कसमें खाते थे, जब उनसे त्याग की बात करने को कहा गया तो आप बताइये किस दल ने मुसलमानों के लिए त्याग दिखाई, सब ने अपने–अपने कैंडिडेट और अपना स्वार्थ दिखा दिया, तो ऐसे में केवल मुस्लिम समाज कब तक अपनी कुर्बानी देता आयेगा?
रांची के जानेमाने समाजसेवी एवं केन्द्रीय विद्यालय के पूर्व उप–प्राचार्य कैसर जमां, विद्रोही24.कॉम से बाते करते हुए कहते है कि इस बार मुस्लिम बड़े ही उत्साह से वोट करने को जायेंगे, क्योंकि उनके सामने मुल्क हैं और मुल्क के खतरे सामने हैं, वे बताते है कि देश की जो समस्याएं हैं, वह अन्य समस्याओं के आगे बहुत बड़ी है, उसे देखते हुए, मुस्लिम समुदाय ही नहीं बल्कि वह हर शख्स वोट करने जायेगा, जो वर्तमान केन्द्र सरकार की गलत नीतियों का शिकार रहा है।
ये सच है कि मुस्लिम समाज को महागठबंधन के लोगों से निराशा हुई है, उन्हें अपनी ओर से एक मुस्लिम कैंडिडेट को उतारना चाहिए था, पर हमारे पास अभी ये सोचने का वक्त नहीं कि उन्होंने क्यों नहीं दिया, हमारे पास वक्त सिर्फ यहीं है कि हमें देश को बचाने के लिए क्या करना चाहिए और उसका एक ही जवाब है कि वर्तमान सरकार को जाना चाहिए, और ये तभी होगा, जब मुस्लिम समाज खुश होकर मतदान करें। गड़बड़िया हैं, महागठबंधन से गलतियां हुई है, लोग चर्चाएं कर रहे हैं, पर हमारी प्राथमिकताएं यह नहीं हैं।
वरिष्ठ पत्रकार शफीक अंसारी बताते है कि महागठबंधन ने बिहार में तो एक–दो सीटों पर मुस्लिम कैंडिडेट उतारे हैं, पर झारखण्ड में तो एक तरह से साफ ही कर दिया। उन्हें एक–दो उम्मीदवार उतारने चाहिए थे, इसलिए इसका असर झारखण्ड के मुस्लिम वोटरों पर पड़ना तय है, उत्साह में कमी आई है, शायद महागठबंधन के लोगों ने समझ लिया है कि मुस्लिमों के पास विकल्प ही क्या है? अतः ये मुद्दा अभी तो नहीं, पर आनेवाले समय में जरुर उठेगा, महागठबंधन को चाहिए कि मुस्लिम समुदाय को अपने विश्वास में लें, नहीं तो भुगतना महागठबंधन को ही पड़ेगा।
सूत्र बताते है कि पूरे झारखण्ड में एक भी मुस्लिम कैंडिडेट नहीं उतारे जाने से पूरे झारखण्ड के मुस्लिमों में भारी नाराजगी है, और ये नाराजगी महागठबंधन के लिए खतरे की घंटी है, हालांकि पूर्व में जब हेमन्त सोरेन के आवास पर प्रेस कांफ्रेस हुआ था तो खुद हेमन्त सोरेन ने यह मुद्दा उठाया था तथा इस रिक्तिता को अपने संवादों से भरने की कोशिश की थी, पर रांची, धनबाद, जमशेदपुर, गोड्डा, पाकुड़, साहेबगंज, पलामू आदि कई जगहों पर मुस्लिम वोटर निर्णायक भूमिका निभाते हैं, उनकी नाराजगी महागठबंधन के लिए भारी मुसीबत बन सकती है।
कई मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने नाम नहीं छापने के शर्त पर बताया कि वे समझते है कि हमारे पास विकल्प क्या है? पर उन्हें नहीं पता कि हमारे पास कितना विकल्प है, पर हम नहीं चाहते कि देश में असुरक्षा का वातावरण बनें, क्योंकि देश हमें भी उतना ही प्यारा है, फिलहाल पांच वर्षों में जो मुस्लिमों ने झेला है, वह किसी ने नहीं झेला, हम वोट करेंगे, पर दिलों पर पत्थर रखकर, हम वोट करेंगे उसे, जो सही मायनों में देश में अमन व शांति का झंडा बुलंद करेगा, वह भाजपा छोड़कर कोई भी हो सकता है।