काश, पत्रकारों का भी कोई स्टिंग ऑपरेशन करता, तब देखते कितने पत्रकार एक-एक कर नंगे हो रहे होते
कमाल हो गया। एक नया–नया चैनल खुला है। उसने कुछ नया–नया धमाका किया है। काफी सारे दलों के नेताओं के स्टिंग किये हैं, पर आज रांची के प्रमुख अखबारों में इससे संबंधित एक भी समाचार ढूंढने पर नहीं मिला। मैंने सोचा कि अंदर के पृष्ठों में हो सकता है कि एक कॉलम में भी दिखाई पड़ें, पर अफसोस एक कॉलम क्या, एक शब्द तक दिखाई नहीं पड़े? आखिर इतनी बड़ी खबर, किसी अखबार की सुर्खियों क्यों नहीं बनी? सोशल साइट पर भी यह उतना वायरल क्यों नहीं हो रहा? पूर्व में तो ऐसा नहीं था? जब भी कोई चैनल स्टिंग करता, तो दूसरे दिन अखबारों में वह समाचार सुर्खियों में होती, अखबार भी उक्त चैनल के सम्मान में राग भैरवी, राग यमन गा रहे होते, पर आज ऐसा क्यों नहीं हुआ?
बिहार के एक बड़े पत्रकार सुरेन्द्र किशोर ने उक्त चैनल की यह कहकर प्रशंसा की है कि नवोदित चैनल टीवी 9 भारतवर्ष का यह देश आभारी रहेगा। उनके आलेख में उक्त चैनल में कार्य कर रहे कई पत्रकारों और उनके सहयोगियों की तारीफ भी की गई है, साथ ही आलेख में यह भी कहा गया है कि टीवी 9 ने हमारे देश की राजनीति में दशकों से भीतर–भीतर पल रही भीषण गंदगी को एक बार फिर बाहर ला दिया है। अब सवाल उठता है कि ऐसी न्यूज तो भारत की जनता के बीच एक नहीं, कई बार आ चुकी, एक बार और आ गया, इससे क्या हो जायेगा?
क्या भारत की जनता नहीं जानती कि जिन नेताओं को वह चुन रही हैं, उनका चरित्र क्या है? और वे कितने देशभक्त है? कि वह भारतीय चैनलों और अखबारों में काम कर रहे पत्रकारों और उनके मालिकों को नहीं जानती कि उनका चरित्र क्या है और वे कितने देशभक्त है? सभी एक दूसरे को जान रहे हैं, इसलिए अब न तो कोई ऐसी घटनाओं या समाचारों पर हंसता हैं और न ही ऐसे लोगों की भर्त्सना करता है, वह जानता है कि इसके जगह पर कोई दूसरा भी होगा, तो वह भी यहीं करेगा?
हमें याद है, 31 जुलाई 2005 की वह घटना। जब रांची में सैक्स स्कैंडल में यहां के पूर्व आईजी पीएस नटराजन फंसे थे और उस वक्त के दो चैनल के लोगों को रांची से प्रकाशित अखबारों ने महानायक के रुप में पेश करना प्रारंभ किया था, उसी वक्त एक पत्रकार, अखबार नहीं आंदोलन स्वयं को घोषित करनेवाला अखबार के प्रधान संपादक से मिला, और कहा था कि चूंकि पीएस नटराजन के सामने कैमरा था, इसलिए पीएस नटराजन पकड़ में आ गये, अगर यहीं कैमरे का मुख कई पत्रकारों के पीछे लगा दिया जाता, तो कई पत्रकार मुंह छुपाते नजर आते। उक्त पत्रकार ने उक्त प्रधान संपादक से यह भी कहा था कि देश में इतना भ्रष्टाचार है कि शायद ही पीड़िता को न्याय मिले, और हुआ भी यहीं।
कमाल है, ये पत्रकार लोग जनता को कितना बेवकूफ समझते हैं? ये समझते है कि ये जनता को दिखायेंगे और जनता क्रांति कर देगी, उनके चैनल को हाथों–हाथ ले लेगी, देखते ही देखते टीआरपी बढ़ जायेगी, लोग इनके साथ सेल्फी लेंगे, कहेंगे कि आजतक इसके जैसा देशभक्त पत्रकार कोई हुआ ही नहीं और फिर इनकी दुकानदारी चल जायेगी। देखते ही देखते उनके मालिकों और उनके प्रधान संपादकों की पीएम और उनके राष्ट्रीय अध्यक्षों से संबंध मजबूत हो जायेंगे और उनका कारोबार फलने–फूलने लगेगा, और इसी प्रकार ज्यादा अंतरंगता बढ़ते हुए ये राज्यसभा का भी मुंह देख लेंगे, या किसी पार्टी से टिकट मिला तो किसी लहर में निचली सदन में भी बलखाते हुए नजर आयेंगे।
वरिष्ठ पत्रकार ज्ञानेन्द्र नाथ तो साफ कहते है कि अगर कोई नेता या पत्रकार यह कहता है कि वह देश की सेवा कर रहा हैं, तो वह सबसे बड़ा बेईमान है, वह शत् प्रतिशत झूठ बोल रहा है, वह इसी की आड़ में अपनी दुकानदारी चला रहा है और नेताओं से सांठ गांठ कर अपना तिजोरी भर रहा है। ज्ञानेन्द्र नाथ से यह पूछे जाने पर कि आखिर चुनाव के समय ही ज्यादातर चैनलें–पोर्टले क्यों खुलती है, तो उनका कहना था कि दरअसल अब पत्रकार कई खेमों में बंटे हैं।
ये खेमे में बंटे पत्रकार अपने–अपने नेताओं–बिल्डरों, धन्नासेठों के सपनों को पूरा करने के लिए नये – नये चैनलों को खोलते–खुलवाते हैं, क्योंकि यही सीजन होता है, स्वयं तथा उनके नेताओं को प्रतिष्ठित करने–कराने का, टिकट देने–दिलवाने का, उनके नेता के चेहरे पर पॉलिश करने–कराने का, मौसमी बाते करने का जिसका ये फायदा उठाते हैं, और जैसे ही यह मौसम खत्म होता है और इनके नेता तथा बिल्डरों को लगता है कि मामला नहीं बना तो ये चैनलों पर ताला लटकवाते हैं और जिनका काम बन गया वे इसे चालू रखते हैं, बस बात इतनी सी है।
ज्ञानेन्द्र नाथ साफ कहते है कि इन लोगों का चरित्र से कोई जुड़ाव ही नहीं, ये आत्मलोचन भी नहीं करते, ये तो दूसरे में ही सिर्फ दोष ढुंढा करते है, इसलिए ये अब कुछ भी चला लें, कुछ भी दिखा लें, जनता को कोई फर्क नहीं पड़ता, इन अखबारवालों को क्या फर्क पड़ेगा। स्टिंग के बारे में उनका कहना था कि ये स्टिंग में कितनी सत्यता है, इसकी बिना जांच किये बिना कोई कैसे प्रकाशित कर सकता है?
अब तो जिस प्रकार की टेक्नोलॉजी बाजार में आ गई है, कुछ भी संभव है, और रही बात जो स्टिंग करते है, वे छोटे–छोटे टूटपूंजियों सांसदों की क्यों करते है, करना है तो उन बड़े नेताओं की स्टिंग करें, जिनके हाथों मे सीधे सत्ता की चाबी है, दरअसल इनके बड़े पत्रकारों और इनके मालिकों की ऐसे लोगों से हालत खराब होने का भय बराबर बना रहता है, कारोबार पर खतरा मंडराने का खतरा बना रहता है, इसलिए ये ऐसे लोगों को चूनते है, जिससे उनका काम भी सध जाये और उनकी वाहवाही भी हो जाये और जिस दल के लोगों के बारे में दिखाया, उसके सेहत पर भी कोई असर नहीं पड़ें।
वे यह भी कहते है कि सच्चाई यह भी है कि हमारे देश में कांस्टेबल, सहायक अवर–निरीक्षक, निरीक्षक तक पर तो कानून का डंडा खूब चलता है, पर जैसे ही इनके उपर के अधिकारियों की बात आती है, वहीं कानून का डंडा ऐसे अधिकारियों को बचाने व संरक्षण करने में लग जाता है, इसलिए देश और मानवीय मूल्य तो भूल ही जाइये। इसे कोई चुनौती तो दे ही नहीं सकता। इसलिए भारत में जितने भी चैनल हैं, वे क्या बोलते है? उस पर कोई जनता विश्वास नहीं करती।
वरिष्ठ पत्रकार ज्ञानेन्द्र नाथ की बाते शत प्रतिशत सही है, अब जरा देखिये न, एक समय जब अखबारों की तूती बोलती थी, तो के के बिड़ला और फिर उनकी बेटी शोभना भरतिया काफी समय तक कांग्रेस के सहयोग से राज्यसभा की एक सीट पर कब्जा जमाये रही। कभी दैनिक जागरण के नरेन्द्र मोहन भाजपा के सहयोग से राज्यसभा के सदस्य रहे, एम जे अकबर तो मंत्री पद तक पहुंच गये। जदयू के सहयोग से प्रभात खबर के प्रधान संपादक राज्यसभा में उपसभापति तक बन गये। जब चैनल का जमाना आया तो सुभाष चंद्रा भी राज्यसभा में पहुंच गये। पश्चिम बंगाल के भी कई पत्रकार ममता बनर्जी की कृपा से उपकृत होकर सांसद बनने का सौभाग्य प्राप्त कर रहे, ऐसी कोई ये पहली घटना नहीं है, इसकी शुरुआत कांग्रेस ने की, जिसका लाभ सभी पार्टियों ने एक दूसरे को बचने–बचाने के लिए किया।
अब तो पत्रकार नहीं, बल्कि इन चैनलों के मालिक, जिसमें ज्यादा बिल्डर होते है, वे चाहते है कि राजनीति में घुसे, जरा देखिये बिहार–झारखण्ड का एक फिसड्डी चैनल जो एक बिल्डर का है, आज वो जदयू से विधायक है, उसका चैनल खोलने के पीछे मकसद क्या था, बस यहीं मकसद था कि उसे विधायक बनना है, चाहे वह राजद से बने या जदयू से या किसी अन्य दल से। लीजिये चैनल का कमाल देखिये, वो आज जदयू का विधायक बन गया, जबकि विधायक बनने के पूर्व वह कभी जदयू का झंडा या पोस्टर भी नहीं स्पर्श किया होगा। ऐसा व्यक्ति देश सेवा क्या करेगा?
यही हाल बिहार–झारखण्ड से खुले करीब एक महीने पूर्व एक चैनल–पोर्टल का है, नाम तो इस चैनल ने ऐसा लिखा है कि भारत का सम्मान बढ़ जाय, पर सच्चाई क्या है जिसने इस चैनल–पोर्टल में पैसे लगाये है, उसका मकसद खुद को तथा जिस दल में हैं, उसे चमकाना है, वह खुद लोकसभा का चुनाव लड़ रहा हैं, उसे पार्टी ने टिकट भी दे दिया है, ऐसे में इस प्रकार के लोग किसी राजनीतिक दल में या इस टाइप के लोगों के लिए जो पत्रकारिता करेंगे, उनसे आप चरित्र व देश की बात करेंगे, तो आपके जैसा मूर्ख और कौन है?
यहीं कारण है कि देश की जनता, जब कोई नया चैनल बाजार में आता है और उससे जुड़ा कोई पत्रकार बूम लगाकर इधर–उधर घुमता है, तो वह आश्चर्य नहीं करती, वह जानती है चुनाव का मौसम है, यहीं मौसम में चैनलों के प्रजनन की क्षमता बढ़ जाती है, नये–नये चैनल–पोर्टलों की बाढ़ आती है, इसमें काम करनेवाले बड़े–बड़े मठाधीशों का काम, अपने मालिकों/बिल्डरों/नेताओं को हर प्रकार से खुश रखना, सपने दिखाना तथा उसके बदले अपने मन–मुताबिक पैसे ऐंठना है, क्योंकि वह जानता है कि जैसे ही चुनाव खत्म होगा, रिजल्ट आया और चैनल के मालिकों का असलियत पता चलेगा, तो वह लात मारकर बाहर का रास्ता दिखायेगा, या उसका सपना पूरा नहीं हुआ तो बीच में ही उन्हें श्मशान का रास्ता भी दिखायेगा और फिर ये फेसबुक या किसी सोशल साइट पर आकर रोना रोयेंगे कि मोदी ने उन्हें चैनल से बाहर का रास्ता दिखा दिया, जबकि सच्चाई कुछ और ही होती है।
आखिर जो पत्रकार नेताओं से पूछते है कि राहुल गांधी या मोदी या अमित शाह के पास धन दस गुणा या सोलह गुणा कैसे बढ़ गया, तो भाई ये बड़े–बड़े पत्रकार भी तो बताएं कि अभी भारतीय चैनलों की पैदाइश के बीस साल भी नहीं हुए, तो फिर इन बड़े–बड़े चैनलों के मालिक जो आजकल पत्रकार बन गये हैं, वे किस अलादीन के चिराग के प्राप्ति हो जाने के बाद हुए, आखिर किस नेता के नाजायज धन की बदौलत इन्होंने अपना एम्पायर खड़ा कर लिया।
रांची में ही एक चैनल/अखबार है, जिसके मालिक को दिल्ली की एक कोर्ट खोज रही है, जिसके मालिक को बैंकमोड़ थाना खोज रहा है, जिसका अंगरक्षक तो देखते ही देखते किसी के सीने पर स्टेनगन तक तान देता है, जिसे राज्य सरकार ने अंगरक्षक तक मुहैया करा दी है, क्या राज्य सरकार बता सकती है कि ये कृपा किसलिए उक्त मालिक पर बरस रही है, आजकल तो मैं रांची में ही एक पत्रकार को देख रहा हूं कि कई बड़े–बडे अखबारों में काम किया, अर्जुन मुंडा जब मुख्यमंत्री बने तो बड़ी कृपा उन पर कर दी और आज एक अंगरक्षक लेकर बड़ी ही शान से इधर से उधर मटकते रहते हैं।
अरे भाई कलम के सिपाही को स्टेनगन धारी की क्या जरुरत? अगर स्टेनगनधारी हो गया तो समझ लीजिये, वह गौतमबुद्ध या महावीर का अनुयायी तो हो ही नहीं सकता। ऐसे में इन पत्रकारों के इस प्रकार के रुदन–चिल्लम्–पो की कोई जनता परवाह नही करती और न करेगी, क्योंकि ये देश सेवा के लिए पत्रकारिता नहीं कर रहे, विशुद्ध रुप से ऐश–मौज करने के लिए ये सारी नौटंकी कर रहे हैं।
बेवाक टिप्पणी , वही कर सकता है जिसकी आत्मा साफ़ हो । आपके जज़्बे को प्रणाम ।
सटीक.प्रणाम
लाजवाब सर ,
आज पत्रकारिता सिर्फ़ पेशा बन गई है , जिसके लिए संस्थान खोलकर बाक़ायदा डिग्री बाँटी जाती है ।
और इस पेशे में भी ईमानदार इक्के- दुक्के ही बचे हैं ।
और जब कोई पेशेवर हो जाता है फिर क्या समाज की सोचेगा ।।
जबरदस्त KB जी…..👌👌👌👌