प्रयागराज का कुम्भ मेला यानी भारत को देखने का एक अलग नजरिया, एक संन्यासी के शब्दों में, पार्ट-2
संन्यासी बोले जा रहे थे, सभी के साथ मैं भी बड़े भाव से सुनता जा रहा था, उनका बोलना, बोलने की तारतम्यता, सभी श्रोताओं को बांधे हुए था, सभी को बड़ा आनन्द आ रहा था, ऐसे भी कुम्भ मेला है ही ऐसा, कि जब उसके बारे में कोई कुछ कहना चाहे, तो लोग सुनना पसन्द ही करते हैं, और जब मंजा हुआ संन्यासी इस पर कुछ कहें तो उसका आनन्द कुछ और ही बढ़ जाता है।
मैं कई बार, कई उत्सवों में तथा कई प्रयोजनों के दौरान उक्त संन्यासी के भावपूर्ण संभाषण सुन चुका हूं, जब वे बोलते है, तो उनके चेहरे का भाव देखते बनता है, यानी जब आप बैठ गये तो लीजिये सब काम आप भूल जायेंगे, केवल यही याद रहेगा कि आप और आपके सामने संन्यासी, अगर कहीं से आपके मोबाइल ने टर्र–टर्र करना शुरु किया तो आप मोबाइल का टेटुआं दबाना शुरु कर देंगे, ऐसे है उक्त संन्यासी, मैं तो उनका फैन हूं, ऐसे जहां की बात कर रहा हूं, वहां एक से एक संन्यासी भरे पड़े हैं। जिसकी जैसी रुचि, वह उसी संन्यासी में रम जाता है।
अब जरा आगे देखिये, कुम्भ के बारे में उक्त संन्यासी क्या कह रहे हैं? वे कहते है कि कुम्भ मेला में, हर कोई जाता है, ऐसा नहीं कि वहां केवल साधु, संतों, ऋषियों का ही जमावड़ा होता है, वहां एक से एक धूर्त भी आपको प्रवचन देते मिल जायेंगे, उन्होंने बताया कि जब वे एक समय किसी कुम्भ मेला में थे, तो एक खुद को बड़ा साधु बतानेवाला, मंच पर पहुंचा, लोग उसकी जय–जयकार कर रहे थे, तभी उसने मंच से कहा कि जल्द ही वह यहां महावतार बाबाजी, लाहिड़ी महाशय और युक्तेश्वर गिरि का साक्षात् दर्शन करा देगा।
संन्यासी ने आगे कहा कि मैं घबड़ा गया और यह सोचने लगा कि उनकी जिंदगी के कई पल गुजर गये, और उन्हें अब तक इन महापुरुषों के दर्शन नहीं हुए, ये कहां से पाखंडी आ गया कि ताल ठोककर कह रहा है कि वह इन महापुरुषों के दर्शन करा देगा, खैर बात आई और चली गई। वे भी महाशय फेक कर बहुत कुछ चले गये।
संन्यासी ने कहा कि कुम्भ मेला में तो दिव्य महापुरुषों का आना लगा ही रहता है, महावतार बाबाजी स्वयं कुम्भ मेले में कई बार आये हैं, महावतार बाबा जी ने ही युक्तेश्वर गिरि को इस कुम्भ मेले में कहा था कि जल्द ही मैं तुम्हारे पास एक ऐसा युवा भेजूंगा, जो पश्चिम में जाकर क्रियायोग का प्रचार–प्रसार करेगा और महावतार बाबाजी की वो भविष्यवाणी सफल हुई, जब परमहंस योगानन्द जी, स्वामी युक्तेश्वर गिरि के शिष्य बने।
अचानक संन्यासी ने कुम्भ पर ही द्वापरयुग का एक रोचक प्रसंग सुनाया। एक बार पांडव युधिष्ठिर के साथ कुम्भ स्नान के लिए निकलने लगे, उन्होंने श्रीकृष्ण से भी कुम्भ मेले में जाने का अनुरोध किया। तभी श्रीकृष्ण ने युद्धिष्ठिर से कहा कि तुम मुझे कहा इधर–उधर दौड़ाते रहोगे, मुझे यहीं छोड़ दो, हां एक करैला मैं तुम्हे देता हूं, तुम उसे कुम्भ स्नान कराकर लेते आना। युद्धिष्ठिर ने उक्त करैले को लिया और चल पड़े कुम्भ स्नान के लिए। कुम्भ मेले में पहुंचकर उन्होंने कुम्भ स्नान किया और फिर करेले को भी स्नान कराकर, वे अपने गंतव्य की ओर चल दिये। जैसे ही वे श्रीकृष्ण के पास पहुंचे, उन्होंने श्रीकृष्ण को करेले सौंपे। श्रीकृष्ण ने कहा कि ये करैला तुम्ही रखों और इसे सब्जी बनाकर खा लो।
संन्यासी शायद इस रोचक प्रसंग के द्वारा यह बताना चाहते थे, कि जैसे गंगा, यमुना और सरस्वती जैसी पवित्र तीन नदियों के मिलन को संगम कहते हैं और इस संगम में स्नान करने से जैसे लोगों को आध्यात्मिक शांति मिलती है, या लोग जिस भाव से जाते हैं, उन भावों की पूर्ति हो जाती है, ठीक उसी प्रकार हमारे शरीर में भी तीन चीजें प्रमुख है, जिसको लोग जानते नहीं, पर श्रीकृष्ण जानते थे, वह है इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना का संगम, जो भी व्यक्ति इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना के संगम में अपने मन और आत्मा को तृप्त करता रहता है, अथवा स्नान कराता रहता है, वह तो ऐसे ही दिव्य हो जाता है, उसे कुम्भ जाने की भी जरुरत नहीं पड़ती, उसका कुम्भ स्नान प्रतिदिन हुआ करता हैं।
संन्यासी के पास सीमित समय था, और उन्हीं सीमित समय में उन्हें अपनी बाते रखनी थी, मैं देख रहा था कि कई लोग तन्मयता से उनके इस प्रवचन को सुन रहे थे, पर इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना के संगम में इनमें से कितने लोग स्नान करने के लिए तैयार हुए, हमें लगता है कि इसकी भी परीक्षा हो जानी चाहिए थी, पर परीक्षा तो संन्यासी को ही लेना हैं, और हमें लगता है कि उक्त संन्यासी ने अपने दिव्य दृष्टियों से भांप ही लिया होगा, कि जिनको उन्होंने ये सार सुनाएं, उनमें से कितने लोग उक्त सार के रहस्य को समझने में सफल हुए?