लोकतंत्र की खुबसूरती विपक्ष से है, विपक्ष को नजरंदाज करने का खामियाजा जनता को ही भुगतना पड़ेगा
पूरी दुनिया में जो भी देश लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपनाये हुए हैं, उन देशों में लोकतांत्रिक व्यवस्था वहीं मजबूत हुई, जहां विपक्ष मजबूत हैं, नहीं तो सत्तापक्ष के मनमानेपन रवैये से लोकतांत्रिक व्यवस्था को ही गहरा आघात लगता है, चूंकि भारत में एक नई प्रकार की लोकतांत्रिक व्यवस्था है, यहां की जनता किसी पर भरोसा करती हैं, तो उसे छप्पड़ फाड़ कर दे देती हैं, और जिससे नाराज होती है, तो उसे धूल चटा देती है। बिहार में लालू प्रसाद की पार्टी का हाशिये पर चला जाना और केन्द्र में कांग्रेस का धाराशायी हो जाना, एक उदाहरण है, अगर स्थितियां यहीं चलती रही तो फिर बिहार और देश का कितना भला होगा, वो सब आपके सामने आयेगा, इसे आप गांठ बांध लीजिये।
लोकतंत्र में सत्तापक्ष के मनमानेपन एवं उनकी जनविरोधी नीतियों का विरोध सदन में विपक्ष ही करता है, न कि जनता, ऐसे में जब आप विपक्ष को मजबूत नहीं बनायेंगे, तो फिर खामियाजा आपको ही भुगतना पड़ेगा, इसे निश्चय मानिये। सत्तापक्ष के लोग कहते हैं कि जनता ने विपक्षी दलों के नेताओं को इस लायक भी नहीं छोड़ा कि वे विपक्ष के नेता का पद भी संभाल सकें, दरअसल यह कटाक्ष भारतीय राजनीति के उपर एक बहुत बड़ा व्यंग्य है, जिसे जनता शायद कभी समझ नहीं पायेगी।
सत्तापक्ष या किसी दल का बार-बार सत्तारुढ़ होना, उसकी लोकप्रियता या उनके बेहतर काम-काज का उदाहरण नहीं हैं, दरअसल उनकी चालाकी, बेहतर चुनावी प्रबंधन, कारपोरेट जगत के साथ उनके मधुर संबंध, खुलकर सत्ता का दुरुपयोग, जमकर पैसे को पानी की तरह बहाने की कला का सम्मिलित रुप है, जिसे हर पार्टियां आजमाती है, जिसका फल गया, उसे सत्ता मिल गई और जिसका नहीं फला, वो गया काम से।
ऐसे में, भारत में ऐसा कोई दल ये दावा नहीं कर सकता कि उसके दल में परिवारवाद, भाई-भतीजावाद, गुंडे-अपराधियों या बलात्कारियों का बोलबाला नहीं हैं, ये तो चुनाव आयोग के टीएन शेषण जैसे ईमानदार चुनाव आयुक्त की कृपा है कि जिन्होंने चुनाव लड़नेवालों की सारी हेकड़ी निकाल दी और चुनाव में भारी गड़बड़ियों पर सदा के लिए ब्रेक लगा दिया, हालांकि इस बार के चुनाव आयोग में जिस प्रकार आदर्श आचार संहिता की धज्जियां सत्तापक्ष द्वारा उड़ाई गई, वैसी कभी नहीं देखी गई।
चुनाव के समय में ही नमो टीवी की लांचिंग, पीएम मोदी पर बनाई गई बायोपिक फिल्म का प्रसारण करने का प्रयास, अमित शाह के कोलकाता जुलूस में धार्मिक चिह्नों व प्रतीकों का प्रयोग और उसके बावजूद उन पर कोई कार्रवाई नहीं होना, अखबारों व मीडिया के खास लोगों को अपने प्रभाव से, अपने दल के लिए प्रचार करने पर मजबूर कर देना, बताता है कि चुनाव आयोग की इस 17वीं लोकसभा चुनाव में क्या भूमिका रही? अगर इस पर तत्काल रोक नहीं लगाया गया तो आनेवाले समय में सत्तापक्ष के लोग ऐसे व्यक्ति को चुनाव आयुक्त बनायेंगे, जो उनके इशारों पर नाचे, जिनकी आत्मा सदा के लिए मर गई हो, तो फिर इसमें देश का कितना भला होगा, समझते रहिये।
अतः 17वीं लोकसभा में, जिस प्रकार से विपक्ष की स्थिति हो गई, यह 2014 की पुनरावृत्ति हैं, और जैसे पूरे पांच साल में उस दौरान देखा गया, ठीक वहीं स्थिति इस बार भी देखी जायेगी, क्योंकि इस बार तो सत्तारुढ़ दल पिछले साल से ज्यादा मजबूत हो गई, ऐसे में 2014 में उसने क्या किया? वो सब को पता है और 2019 में मिले विशाल बहुमत से वह जनता को कितना सेवा देगी, वह भी पता है, क्योंकि देश को आगे बढ़ाने के लिए उनकी कितनी योजना है, वह सबको मालूम हैं।
और अंत में जिन कारपोरेट जगत के लोगों ने इन्हें सत्ता में लाने के लिए हर संभव प्रयास किया, वे क्या अपना फायदा छोड़ देंगे, वे तो केन्द्र सरकार पर दबाब डालेंगे ही कि भाई हमने जो आपके लिए किया, उसका फायदा आप हमें क्या दे रहे हैं? जिसका प्रभाव अंततः जनता को ही भुगतना पड़ेगा, ऐसे में जब जन-विरोधी कार्यों को जब ये सरकार शुरु करेगी, तो फिर उसका विरोध कौन करेगा?
फिलहाल जिस प्रकार से कांग्रेस और समाजवादी पार्टी ने अपने सारे प्रवक्ताओं को एक महीने के लिए किसी भी चैनल पर जाने पर रोक लगा दी हैं, उससे तो पता लग रहा है कि लोकतंत्र के लिए ये शुभ लक्षण नहीं हैं, यानी आप खुलकर जो करना है करिये, हम विरोध नहीं करेंगे, क्योंकि जनता ने तो खुद आपको विशाल बहुमत दिया हैं, इसलिए जमकर मनमानी करिये, खूब धोइये, हो सके तो जनता को घाट पर ले जाकर बढ़िया से धो डालिये, फिलहाल हम कुछ कहने से रहे, क्योंकि जनता ने तो हमें बोलने तक का सदन में समय नहीं दिया।
लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर लिखी गई लेख बहुत ही सुंदर है
लोकतांत्रिक प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने के लिए आप जैसे कलम के सिपाही को समाज के लिए काम करते रहना चाहिए