सिर्फ संस्कारयुक्त व चरित्रवानों के शब्द ही प्रभावशाली होते हैं, न कि छपे हुए हर शब्द
आज रांची से प्रकाशित ‘प्रभात खबर’ के पृष्ठ संख्या 12 पर एक विशेष पृष्ठ देखने को मिला, जो ‘स्थापना दिवस समारोह’ को समर्पित था, जिस पर एक मोटा सा काले अक्षरों में बड़ा सा हेडिंग था – “छपे हुए शब्द ही सर्वाधिक प्रभावशाली” अखबार ने यह हेडिंग देते हुए लिखा कि प्रभात खबर की 35 वीं वर्षगांठ पर राजधानी रांची के होटल रेडिशन ब्लू में समारोह का आयोजन किया गया।
समारोह में वक्ताओं ने अपनी–अपनी बातें रखी। विशेष कर यह बात सामने आयी कि आज सूचना के कई माध्यम होने के बाद भी छपे हुए शब्द ही ज्यादा प्रभावशाली होते है। उनकी विश्वसनीयता आज भी लोगों के बीच मजबूती के साथ कायम है, इसलिए जरुरी है कि अखबार अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए सोच समझ कर लिखे, ताकि आम लोगों पर उसका गहरा प्रभाव बना रहे।
इन लिखी पंक्तियों के नीचे भारत के उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडु का आजसू सुप्रीमो सुदेश महतो (सुदेश महतो पर प्रभात खबर की ऐसे भी कृपा दृष्टि बनी रहती है) और दूसरी ओर रांची के गण्यमान्य लोग (जिन्हें प्रभात खबर मानता है कि ये लोग गण्यमान्य है)के साथ फोटो भी छपी है।
सबेरे–सबेरे इस पंक्ति(हेडिंग) को देख मेरा मन चकराया, कि क्या सचमुच छपे हुए शब्द ही सर्वाधिक प्रभावशाली होते है, तब मेरे हृदय के किसी कोने से आवाज आई कि नहीं, छपे हुए शब्द सर्वाधिक प्रभावशाली नहीं होते। वे शब्द ही सर्वाधिक प्रभावशाली होते है, जो चरित्रवान या संस्कारित लोगों के मुख अथवा उनके कलमों से निकले होते हैं, अगर छपे हुए शब्द ही सर्वाधिक प्रभावशाली होते, तो आजकल भारत के विभिन्न शहरों में छप रहे अखबारों की विश्वसनीयता घटने के बजाय बढ़ रही होती।
हमने पता लगाने की कोशिश की, कि आखिर ये डायलॉग किस महानुभाव के मुख से निकले, तो पता चला कि ये डायलॉग भारत के उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडु के मुख से ही निकले, पर अखबार के हेडिंग के नीचे तीन पंक्तियों में कहीं नहीं लिखा है कि ये डायलॉग वेकैंया नायडू के हैं, अखबार का कहना है कि सारे वक्ताओं का जो सार था, वह यही था कि छपे हुए शब्द सर्वाधिक प्रभावशाली होते है।
कुछ बच्चे इस मुद्दे पर हमसे संपर्क किये और वे हमारा विचार जानना चाहे, मैंने उनसे कहा कि इस पर मैं अपने विचार, अपने साइट विद्रोही24.कॉम में थोड़ी देर बाद लिखुंगा, आप उसे देख लेना। हमारा मानना है कि दुनिया में बहुत सारे लोग लिखा करते हैं, छपवाते रहते हैं, छपते रहते हैं, पर हर कोई मुंशी प्रेमचंद नहीं हो जाता, हर कोई गोस्वामी तुलसीदास या विलियम शेक्सपीयर नहीं हो जाता, या महात्मा गांधी या अम्बेडकर नहीं हो जाता, वह ऐसे लोगों की श्रेणी में तभी आ पाता है, जब वह चरित्र और संस्कार की सबसे बड़ी दौलत का मालिक बन जाता है, तब उसके छपे हुए शब्द ही नहीं, उसके मुख से निकली हुई बाते भी प्रभावशाली हो जाती है, ये सभी को गांठ बांध लेनी चाहिए।
रांची में ही कई अखबार के संपादक हुए अथवा हैं, जिनकी किताबें खुब राज्य के मुख्यमंत्री लोकार्पित करते रहते हैं, उन किताबों में भी बहुत सी बातें छपी हुई हैं, और वह कितना प्रभावशाली हैं, वो लिखनेवाला, छपवानेवाला, छापनेवाला तथा लोकार्पित करनेवाला नेता भी जानता है कि उन किताबों का क्या हश्र होनेवाला है और उन किताबों के अंदर छपे शब्दों का क्या हश्र होनेवाला है या कितने लोग उन किताबों को खरीदेंगे, ज्यादा जानकारी प्राप्त करनी हो, तो आपको कही जाने की जरुरत नहीं, रांची में ही कई प्रकाशनों ने डेरा–डंडा जमा लिया है, जरा उनसे पूछ लीजिये कि इन किताबों के खरीदार कौन–कौन हैं और अब तक कितनी किताबें उनकी बिकी है।
यही हाल अखबारों की है, आज तो हमारे पास कई प्रमाण है कि कई अखबार जो खुद को महान समझते हैं, उनके संपादकों ने भारी–भारी गलतियां की है, वे भारत का मानचित्र जब अपनी अखबारों में छापते हैं तो उन मानचित्रों में कश्मीर को पाकिस्तान का अंग बता देते हैं, और जब विद्रोही24.कॉम इस मुद्दे को उठाता है, तो उसे वे अपनी गलती मानते हुए दुसरे दिन सुधार देते हैं और कभी–कभी बड़े ही ढीठई से यह कह देते हैं कि उन्होंने जो लिखा वो सहीं है।
जिस अखबार ने आज जो यह सुंदर हेडिंग दिया, कभी उसी ने राज्यसभा के उपसभापति के मुंह से यह निकलवा दिया कि मोहनदास करमचंद गांधी को महात्मा रांची ने बनाया, जो उन्होंने कहा ही नहीं। इसी तरह 5 व 6 अगस्त को भारत सरकार ने क्रमशः राज्यसभा व लोकसभा में जम्मूकश्मीर पुनर्गठन विधेयक पेश किया और उसे पारित कराया और इस अखबार ने लिख दिया के जम्मू–कश्मीर को बांटनेवाला बिल लोकसभा से पास।
अब सवाल उठता है कि क्या ऐसे हालात में कह सकते है कि हर छपे हुए शब्द प्रभावशाली होते हैं, नहीं न, इसलिए वहीं शब्द प्रभावशाली होते हैं, जो संस्कारवान व चरित्रवानों के द्वारा मुख से निकले हुए हैं अथवा उनके द्वारा प्रकाशित होते हैं। हर अखबार के संपादक अथवा पत्रकारों द्वारा लिखे या छपे हुए शब्द प्रभावशाली नहीं होते, वे क्या होते हैं, वे लिखनेवाले ऐसे लोग बखूबी जानते हैं।