उच्च मानवीय मूल्यों के बिना किसी का जीवन महान नहीं बन सकता – विवेकानन्द
मेरे प्यारे बच्चों,
बहुत दिनों से तुमलोगों से किसी गंभीर विषय को लेकर बात नहीं हुई, सोचता हूं समय भी है और हमारे देश के एक महान आध्यात्मिक पुरुष स्वामी विवेकानन्द का जन्मदिवस भी है, ऐसे में क्यों न तुमलोगों से अपने मन की बात कह दूं। स्वामी विवेकानन्द ने कहा था क्या भारत समाप्त हो जायेगा? अगर हां तो, दुनिया से आध्यात्मिकता समाप्त हो जायेगी, सब नैतिक पूर्णताओं का अवसान हो जायेगा। धर्म के प्रति मृदु आत्मिक सहानुभूति तिरोहित हो जायेगी, संपूर्ण आदर्शवादिता बुझ जायेगी और उसके स्थान पर वासना तथा विलासिता का साम्राज्य, नर और नारी उनके आराध्य, धन उसका पुजारी, धोखा-धड़ी उनकी शक्ति, प्रतिद्वंद्विता उसके सहयोगी और इस उत्सव पर आत्मा का बलिदान किया जायेगा, किन्तु ऐसा कभी नहीं होगा। यह परम सत्य है।
अब सवाल उठता है कि स्वामी विवेकानन्द ने ऐसा क्यों कहा?, क्योंकि वे जानते थे कि भारत वह भूमि है, जहां से विश्व में यह उद्घोष किया गया था कि मानव से बड़ा सत्य कोई हो ही नहीं सकता। भारत को हर काल में जीवित रहना है, क्योंकि यहीं मानव को जीवित रखने की कला जानता है। यहीं कारण है कि भारत ने समय-समय पर अनेक कालखंडों में विभिन्न झंझावातों को झेलने के बावजूद स्वयं को स्थिर रखा है। यहां हर काल में ऐसे आध्यात्मिक पुरुषों ने जन्म लिया जो भारत की महान परंपराओं को गति देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
हम तुम्हे बताना चाहेंगे कि बेद प्राचीन भारतीय मणीषा के प्राण है। आर्य सभ्यता जब भारत में उदित हो रही थी, तभी ऋग्वेद के कंठ से स्वर निकले – ओ जीवन दूति। तुम अंधकार का नाश करती हो, अब सत्य को प्रतिष्ठित करो, अब प्रज्ञा का साम्राज्य हो। हमारे उपनिषद् उसी चेतना का गहनतर अनुसंधान करते है। हमारे मणीषियों ने प्रकृति का दर्शन करते हुए आत्मदर्शन किया था। मैं कहां से आया हूं? मैं कहां जा रहा हूं? यह सृष्टि क्या है?, सृष्टिकर्ता कौन है? हमारे मणीषियों ने सृष्टि के रहस्य को जानने की कोशिश की और उसका समाधान उन्होंने पाया।
समाधान था – हम आत्मा है, हम विशुद्ध आनन्द है, हम वह जीवन है, जो सभी चराचर वस्तुओं में विद्यमान है, अर्थात् उपनिषदों ने मूल प्रश्न उठाएं और उसका उत्तर खोजने का मार्ग भी प्रशस्त किया।
जरा नचिकेता की कहानी पढ़ो, तुम याज्ञवल्क्य की पत्नी मैत्रेयी के उस वाक्यांश को समझने की कोशिश करो, जब वह अपने पति से सांसारिक वस्तुओं का उपहार पाकर सीधे सवाल दागती है और महर्षि याज्ञवल्क्य से पुछती है कि – हे प्रभो, क्या आपकी ये सांसारिक वस्तुएं मुझे पूर्ण ज्ञान और परमानन्द प्रदान कर सकती है? मैं ऐसी वस्तुओं को लेकर क्या करुंगी?, जो मुझे ज्ञान और अमृतत्व न दे सकें।
रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों में लिखी ज्ञान की बातों को अपने जीवन में उतारने की प्रवृत्ति को अगर हम नहीं अपना पाते, श्रीमदभगवद्गीता में लिखी परम ज्ञान की बातों को अगर हम अपने जीवन में नहीं उतार पाते, तो अपना जीवन ही व्यर्थ है।
मैं ये बाते इसलिए लिख रहा हूं कि भारत में संकट गहराता जा रहा है, जिन पर हमें आशाएं थी कि वे देश और राज्य को सुंदर बनायेंगे, भारत को ऊंचाईयों पर ले जायेंगे, उन्हें अपनी चिंता सताने लगी है, वे अपने परिवार और स्वयं के लिए कितना धन बटोर सके, इस पर लग गये है। तुम तो जानते हो, कि जीने के लिए कितने भोजन, कितने वस्त्र और कितने बड़े मकान की आवश्यकता होती है। मैंने तो अपने जीवन में एक से एक धनाढ्यों को देखा हैं, जिनकी जिंदगी केवल धन बटोरने में ही समाप्त हो गई और फिर उनका धन अंततः पुत्रों द्वारा समाप्त कर दिया गया है, पर दुनिया में मैंने कबीर, मीरा, तुलसी, नानक, और स्वामी विवेकानन्द को जब देखता हूं तो उनका जीवन परमानन्द ही नहीं ब्रह्मानन्द को प्राप्त कर लेने में समर्थ हुआ है, ऐसे भी जिंदगी जीना इसी को कहते है।
स्वामी विवेकानन्द ने ऐसे ही नहीं कह दिया था – उठो, जागो। उनके ये दो शब्द, हमारी अंतरात्मा को झकझोरने के लिए बने हैं। हम किस लिए दुनिया में आये? इस पर मनन करो, उठो जागो। उन्होंने कहा था – मैं उस प्रभु का सेवक हूं, जिसे अज्ञानी लोग मनुष्य कहा करते हैं। उन्होंने कहा था – जगत को जिस वस्तु की आवश्यकता होती है, वह हैं चरित्र। संसार को ऐसे लोग चाहिए, जिनका जीवन स्वार्थहीन ज्वलंत प्रेम का उदाहरण है, वह प्रेम एक-एक शब्द को वज्र के समान प्रतिभाशाली बना देगा। उन्होंने कहा था कि आदर्श, अनुशासन, मर्यादा, परिश्रम, ईमानदारी और उच्च मानवीय मूल्यों के बिना किसी का जीवन महान नहीं बन सकता। उन्होंने कहा था – कि जितना बड़ा संघर्ष होगा, जीत उतनी ही शानदार होगी।
और अंत में स्वामी विवेकानन्द की यह बात गांठ बांध लो कि जब लोग तुम्हें गाली दें तो तुम उन्हें आशीर्वाद दो, सोचो, तुम्हारे झूठे दंभ को बाहर निकालकर, वो तुम्हारी कितनी मदद कर रहा है। तुम बहुत भाग्यशाली हो, तुम उस देश में जन्म लिये हो, जहां स्वामी विवेकानन्द ने जन्म लिया, जिनके गुरुदेव रामकृष्ण परमहंस जैसे महान आत्मा थे, जिन्होंने अपने शिष्य में ऐसी ऊर्जा भर दी, जिसके प्रभाव से उक्त शिष्य ने परतंत्र भारत में विदेश जाकर, खासकर विश्व धर्म सम्मेलन में भारत के हिन्दुत्व की, भारत के स्वाभिमान का ऐसा परचम लहराया, जो भारत के स्वाधीनता की नींव मजबूत कर दी। सोचो कैसा होगा, वह दृश्य, जब परतंत्र भारत का यह युवक, अमरीका के शिकागो में जाकर भारत का अपना पक्ष रख रहा होगा, और जब इनके दिव्य स्वरुप को देख, इनकी वाणी को सुन लोग झूम गये होंगे।
अंततः मैं यहीं कहूंगा कि जिस मानवता की, जिस भारतीयता की बात स्वामी विवेकानन्द ने कहीं थी, उस मानवता और भारतीयता को अपने जीवन से कभी मिटने मत देना, तुम जहां हो, वहां सर्वशक्तिमान परमेश्वर तुम्हारे साथ है, वहीं परमानन्द, वहीं ब्रह्मानन्द देता है, वह तुम्हें अवश्य प्राप्त होगा, हमें पूरा विश्वास है, आओ हम सब मिलकर, हृदय से उस महान आत्मा स्वामी विवेकानन्द को श्रद्धाजंलि देकर, अपने जीवन को कृतार्थ करें।
तुम्हारा पिता
कृष्ण बिहारी मिश्र
बिनु सत्संग विवेक न होहिं।
राम कृपा बिनु सुलभ न सोई।।
स्वामी जी को भावपूर्ण सत् सत् श्रद्धांजलि।
नमन
प्रणाम।।