मैत्रेयी ने किया बिहारी महिलाओं का अपमान, सिंदूर लगाने पर बिहारी महिलाओं का उड़ाया मजाक
जब आपके हृदय में, स्वयं को एक बहुत बड़ा साहित्यकार होने का अहं स्थापित हो जाये और इस अहं के स्थापित होने के बावजूद, हालात ऐसे हो जाये कि कोई कुत्ता भी आपको न पूछे, तो बस आपको बड़ा साहित्यकार पुनः स्थापित करने के लिए या ऐहसास दिलाने के लिये, ज्यादा कुछ करने की जरुरत नहीं हैं। बस, मूर्ख हिन्दूओं और उनके महिलाओं पर चोट कर दीजिये, बस लीजिये तुरंत आप लोकप्रियता के सारे पायदान को पार कर प्रगतिशीलता की लंबी-लंबी सीढ़ी चढ़ते हुए, पहुंच गये शीर्ष पर।
अगर भूलवश भी किसी अन्य धर्म पर चोट किया तो लीजिये, लेनी की देनी पड़ जायेगी, इसलिए भूलकर भी अन्य धर्मावलम्बियों पर चोट न करें। अगर चोट करना है तो सिर्फ हिन्दू समुदाय को ही अपना निशाना बनाये, क्योंकि विश्व में हिन्दू ही एक ऐसा समुदाय है, जो लात-जूते खाने के लिए बना है, और इसे मारनेवाले कोई दूसरे नहीं, बल्कि अपने लोग ही ज्यादा होते हैं, जो अधकचरे ज्ञान से भरे होते हैं। आप कहेंगे कि आज ऐसा लिखने की जरुरत क्यों पड़ गई। भाई जरुरत पड़ गई तभी तो लिख रहा हूं।
एक महिला साहित्यकार है, मैत्रेयी पुष्पा। उन्होंने कुछ बात ही ऐसी कह दी है। बेचारी कई सालों से एक बहुत बड़ी साहित्यकार होने के बावजूद अंधकार में भटक रही थी, आज अचानक सभी जगहों पर स्थापित हो गयी। अखबारों, चैनलों और सोशल साइट में। कुछ उनके पक्ष में तो कुछ उनके विरोध में भी आ गये हैं और वह बड़ी शान से खुद को प्रगतिशील बताने के लिए कादर खान टाइप डॉयलॉग बोले जा रही है, जैसे लगता है कि उनका सवालों का जवाब देकर बिहारवासियों ने उनका बहुत बड़ा अपमान कर डाला हो, जबकि सच्चाई यह है कि मैत्रेयी पुष्पा ने अपनी घटियास्तर की मनोवृत्ति से पूरे बिहार की महिलाओं का अपमान कर दिया, और उसके बावजूद अपनी हठधर्मिता के लिए मशहुर इस मैत्रैयी पुष्पा को शर्म नहीं आ रही।
सबसे पहले, जरा देखिये, इस मैत्रेयी पुष्पा ने क्या कहा है? मैत्रेयी पुष्पा का बयान है – “छठ के त्यौहार में बिहारवासिनी स्त्रियां मांग, माथे और नाक पर भी सिंदूर पोत लेती हैं, कोई खास वजह होती है क्या?” और जब इसका जवाब, उन्हीं की भाषा में बिहारवासियों ने दिया तो लीजिये, उन्होंने तुरंत कुछ और बयान जारी कर दिये – “आस्था पर ठेस का दोष मुझपर गालियों की बौछार। एक बार सती, दूसरी बार सिंदूर, हे स्त्री तू इसी के लिए बनी है।“ यानी खुद को महान बनाने की एक बार फिर कोशिश। अब ऐसे हाल में मैत्रेयी पुष्पा को भी सही जवाब मिलना ही चाहिए।
माननीया मैत्रेयी पुष्पा जी,
आपको न तो मैं जानता हूं, और न जानने की कोशिश करना चाहता हूं, पर आज जब कि सोशल साइट से होते हुए मेरे तक ये आपके बयान पहुंचे तो इसका जवाब मैं आपको भलीभांति दे देना चाहता हूं। आपके प्रश्नों का उत्तर चूंकि विस्तृत है, इसलिए क्रमानुसार दे देना चाहता हूं।
- चूंकि आप, जैसा कि वीकिपीडिया बता रहा है, आप का जन्म अलीगढ़ के सिकुर्रा गांव में हुआ, कुछ समय आपने बुंदेलखंड में गुजारा और फिर झांसी जिले के खिल्ली गांव में तथा आप एमए हिन्दी साहित्य से की है, इसलिए इससे साफ पता चलता है कि आप बिहार की सभ्यता और संस्कृति से परिचित नहीं है, तथा कुछ ज्यादा पढ़-लिख लेने के कारण बहुत सारे लोगों को ये गलतफहमी हो जाती है कि वे जब भी बोलेंगे, उनकी बोली साक्षात परमपिता परमेश्वर के समान होगी और लोगों को मानना ही होगा, नहीं मानेंगे तो मनवायेंगे, जैसे भावों से प्रेरित है।
- कोई भी स्त्री चाहे वह शादी शुदा ही क्यों न हो, अगर वह विधवाओं के जैसा रहना चाहती है, या अर्धनग्न वस्त्रों को पहनकर घूमना चाहती है, और इस प्रकार के उसके जीने के हक को लेकर प्रगतिशील महिलाएं उनके बचाव में आती है, तो उसी प्रकार आप जैसी खुद को प्रगतिशील महिला कहलानेवाली महिला को भी अधिकार नहीं कि सदियों से चली आ रही हमारी महान परंपरा, जिससे हमें बिहारी होने का गर्व होता है, उसे चुनौती देने का कोई अधिकार नहीं, ठीक उसी प्रकार जैसे आप पूर्व में विधवाओं की तरह रहती थी या नहीं रहती थी या सिंदूर लगाती थी, या पोतती थी या पोतती नहीं थी, इस पर किसी बिहारी ने आज तक प्रश्नचिह्न नहीं लगाया।
- आपने लिखा है कि “बिहारवासिनी स्त्रियां मांग, माथे और नाक पर भी सिंदूर पोत लेती हैं।“ मैं बता देता हूं कि पोतने और पोतवाने की परंपरा आपके यहां होता होगा, हमारे बिहार में नहीं, हमारे बिहार में सिंदूर लगाया जाता है। कभी सीता को सिंदूर लगाता देख, हनुमान जी ने भी सिंदुर अपने बदन में लगाया था, हो सकता है कि इसमें भी आपको पोतना दिखाई पड़ेगा, पर हमें तो वह सिंदूर लगाना ही दिखता है।
- आपने लिखा है कि “आस्था पर ठेस का दोष मुझ पर गालियों की बौछार. एक बार सती, दूसरी बार सिंदूर, हे स्त्री तू इसी के लिए बनी है।“ जो स्त्री, स्त्री होकर, स्त्री का सम्मान न कर, स्त्री के सम्मान के साथ खेल जाये, भला वह स्त्री है। उसे तो हम “शूर्पनखा” भी नहीं कह सकते, उसे क्या कहेंगे, आप खुद समझ लें।
- हम बिहारवासी आपके जैसे नहीं, कि थोड़ा पढ़-लिख लिये तो आपके जैसे पगला गये और अपनी संस्कृति पर ही सवाल उठा दें। ये हो सकता है कि आपके यहां पढ़ाया गया हो, या खानदानी गुण हो, पर बिहार में कहा जाता है कि कितना भी पढ़ लो, पर ये मत भूलों कि तुम बिहार से हो, इसकी अपनी महान परंपरा व महान संस्कृति है। यहीं कारण है कि बिहार से विदेश गये लोग, भारत के बड़े-बड़े पोस्टों पर विराज रहे लोग, या राजनीतिज्ञ हो या वैज्ञानिक, डाक्टर हो या इंजीनियर्स के परिवार के लोग सभी छठ करते हैं, और इनके घर की महिलाएं बड़ी शान से और बड़ी भाव से नाक व मस्तक पर सिंदूर लगाती हैं, आपके अनुसार पोतती हैं।
- एक बात और आपका नाम मैत्रेयी पुष्पा है न, हमारे यहां सारी महिलाओं का नाम एक ही होता है, दो नाम किसी का नहीं होता। जैसे आपका मैत्रेयी और पुष्पा। ऐसा लोग नाम किसलिए और क्यों रखते हैं? हम बिहारियों को पता है? फिर भी हम लोग सम्मान करते है, क्योंकि हम जानते है कि हर महिलाओं का अपना सम्मान होता है, पर एक बात याद रखियेगा, अगर आप ठेठ बिहारी महिलाओं से मिलियेगा और बोलियेगा कि मेरा नाम मैत्रेयी है तो वह आपको मैत्रेयी कहकर नहीं बुलायेगी। वह जब बोलेगी आपका नाम तो कहेंगी मैतेरी, अब मैतेरी का मतलब बुरा मत मान जाइयेगा, आप समझ रही हैं न, मैत्रेयी जी।
और अंत में
एक बार मैंने बहुत छोटे में अपनी मां से पुछा कि मां तुम नाक से लेकर मस्तक होते हुए मांग तक सिंदूर क्यों भरती हो? मां ने कहा कि तुम अभी नहीं समझोगे, बहुत छोटे हो। जब दसवीं कक्षा में पहुंचा तो फिर मैंने मां से पुछा, मां ने बताया – एक स्त्री दोनों कुल को ताड़ती है, पर पुरुष सिर्फ एक कुल को। इसे ऐसे समझो – अगर पुरुष सम्मानित होता है तो सिर्फ वह एक ही कुल को ताड़ता है, लेकिन जब स्त्री सम्मानित होती है तो वह दोनों कुलों को ताड़ देती है, उसके नैहर और ससुराल दोनों कुलों को स्वतः सम्मान प्राप्त हो जाता है, दोनों के लिए वह क्षण गर्व के पल होते हैं। ये सिंदूर दोनों कुलों के सम्मान का प्रतीक है। स्त्री के शरीर का अंग सिर ससुराल और नाक नैहर का एक तरह से प्रतिनिधित्व करता हैं। सिन्दूर दोनों के सम्मान और समन्वय का भाव परिलक्षित करती है। मेरी मां अशिक्षित थी, पर उसके मन के भाव, उसके बोल, सिन्दूर के गूढ़ रहस्य को इस प्रकार समझा दी कि मैं मां के चेहरे को अपलक निहारता रहा, कितनी खुबसुरत लग रही थी, मेरी मां। कितने सुंदर और कितने उच्च भाव थे उसके।
यहीं सवाल जो मैंने कभी बचपन में मां से पूछे थे। जयपुर की मोनालिसा ने मुझसे पुछा था, और जब मैने बताया तो वह इतनी प्रसन्न हुई कि पूछिये मत, तब उसके मुख से यहीं निकले थे कि – सर आप बिहारियों के विचार कितने उच्च होते हैं। तभी तो चाणक्य, गौतम बुद्ध, महावीर सभी वहीं दिखाई पड़ते है, कितने गिनाउं, उस बिहार को प्रणाम।
अब ऐसे में मैतेरी क्या जानेगी, बिहार को? वह तो बिहार और बिहार की महिलाओं का अपमान ही करती रहेगी, वह भी तब तक, जब तक जिंदा रहेगी, पर मैं बिहार की मां-बहनों से यहीं कहूंगा कि वे मैतेरी जैसी महिला पर कृपा करेंगी, क्योंकि बिहार का दिल बहुत बड़ा है, ये मैतेरी नहीं जानेगी। इसका काम ही रहा है, साहित्य के नाम पर दिलों में दरार पैदा करना, इसलिए यहां भी सिंदूर के नाम पर दिलों में दरार पैदा करने से नहीं रह सकी, पर हम तो बिहारी है, मुझे अपनी मां-बहनों पर गर्व है, जो नाक से लेकर माथा होते हुए अपनी मांग भरी होती है। धन्य हैं, हमारी बिहार की मां, बहनें, बेटियां, बहूएं।
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