धर्म

सच्चा भक्त वही है, जो भगवान के प्रेम में इतना डूब जाये कि उसे अपनी पीड़ा या कष्ट का पता ही न चलें, दरअसल यहां सारा खेल प्रेम और पीड़ा का हैः स्वामी आद्यानन्द

सच्चा भक्त वही है, जो भगवान के प्रेम में इतना डूब जाये कि उसे अपनी पीड़ा या कष्ट का पता ही न चले, दरअसल ये सारा खेल प्रेम और पीड़ा का ही तो हैं, जो इस खेल को समझ गया, वो सब कुछ छोड़कर ईश्वर में डूब गया और जिसने नहीं समझा, वो ईश्वर से दूर होता चला गया। ये बातें आज रविवारीय सत्संग के दौरान नोएडा में योगदा भक्तों के बीच स्वामी आद्यानन्द गिरि ने कही। जिसका ऑनलाइन प्रसारण रांची के योगदा सत्संग आश्रम में भी हो रहा था, जिसे रांची के योगदाभक्त मनोयोग से श्रवणालय में सुन रहे थे।

स्वामी आद्यानन्द गिरि विश्वास और समर्पण – अनन्त प्रेम का मार्ग विषय पर योगदा भक्तों को नाना प्रकार के आध्यात्मिक कथाओं से उन्हें समझाने में सफल रहे। उन्होंने कहा कि नौंवी सदी में एक सूफी संत हुए, जिनका नाम इब्राहिम था। उनके पास एक दास आया और कहा कि वो उनकी सेवा करेगा। इब्राहिम ने उक्त दास से पूछा कि तुम उनके लिए क्या करोगे? दास ने कहा कि वो उनके लिए अच्छे-अच्छे भोजन बना दिया करेगा और वो जो कहेंगे, उनके लिए कर दिया करेगा?

इब्राहिम ने फिर पूछा और तुम अपने लिये क्या करोगे? उसने कहा कि उसका क्या वो तो दास है, दास को चाहिए ही क्या, सिवाये उसके मालिक के सेवा के। इब्राहिम उक्त दास के बातों से विचलित हो गये। उन्होंने मन ही मन कहा कि एक ये दास है, जिसे अपनी कोई फिक्र ही नहीं, सिवाय मालिक की सेवा के और एक हम है, जो अपनी मालिक(प्रभु) की सेवा के फल के लिए भी टकटकी लगाये रहते हैं। ऐसे में तो हमसे अच्छा दास तो ये दास ही है। हम तो अपने मालिक (प्रभु) की सेवा इस समर्पण भाव से तो कभी की ही नहीं।

आद्यानन्द गिरि ने कहा कि समर्पण का आधार है विश्वास। उन्होंने कहा कि प्रभु के लिए हर चीज का त्याग ही व्यक्ति को ईश्वर के निकट ले जाता है और त्याग वही है, जिस त्याग से आनन्द मिले। उन्होंने कहा कि श्रीमद्भगवद्गीता के 16 वें अध्याय में पहला, दूसरा और तीसरा जो श्लोक है, उसमें केवल उन 26 गुणों को बताया गया है, जो हमें दिव्यता की ओर ले जाते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि निर्भय वही है, जिसका ईश्वर पर पूर्ण विश्वास है।

उन्होंने कहा कि मनुष्य को ईश्वर से हमेशा प्रार्थना करते रहना चाहिए। हम अगर भगवान से प्रेम करते हैं तो याद रखिये, उन पर कभी अविश्वास भी नहीं होना चाहिए। जिनके हृदय में श्रद्धा का वास है, वे भक्त ईश्वर के निकट जल्द पहुंच जाते हैं, क्योंकि श्रद्धा समर्पण के निकट ले जाती है। याद रखें कि हमें कभी भी किसी भी वस्तु की डिमांड ईश्वर के समक्ष नहीं रखनी चाहिए। ईश्वर आपको जो चाहिए वो बिन मांगे ही देंगे। कभी-कभी आप कुछ चाहते हैं, लेकिन ईश्वर आपको कुछ और देना चाहते हैं।

जैसे एक सज्जन ईश्वर से बार-बार मांग रहे थे कि ईश्वर उन्हें एक मारुति दे दें, ईश्वर ने उन्हें मारुति दे दिया। जब ईश्वर उस सज्जन के स्वप्न में आये और कहा कि मैं तो तुम्हें बीएमडब्लयू देना चाहता था, लेकिन तुम मारुति में ही प्रसन्न हो तो मैं कर ही क्या सकता हूं। इसलिए मारुति तुम्हें हमने दे दिया। उनका कहना था कि ईश्वर से कुछ भी मांगने से लाभ कम, नुकसान ज्यादा है, क्योकि जो ईश्वर आपके आने के पूर्व ही आपके लिए सारी व्यवस्था कर देता है, वो आपकी सामान्य जरुरतों को कैसे पूरा नहीं करेगा और आपको समस्याओं से घिरा हुआ कैसे देख सकता है। हमेशा याद रखिये। ईश्वर वहीं चीज हमें देते हैं, जिसमें हमारा कल्याण निहित है। उन्होंने कहा कि जहां सच्चा समर्पण होता है, वहां जीवन के सारे संघर्ष समाप्त हो जाते हैं।

उन्होंने कहा कि उन्होंने कई लोगों को देखा है कि वे अपनी पीड़ा को भी नहीं छोड़ते, समय-समय पर उन पीड़ाओं को स्वयं ही लोगों के बीच रखकर सहानुभूति पाना चाहते हैं, यह सही नहीं हैं। ऐसे लोग कभी आनन्द को प्राप्त नहीं कर सकते। गुरु जी कहते हैं कि अगर कोई पीड़ा हैं, समस्याएं हैं तो पहले उन समस्याओं से स्वयं लड़ने का प्रयास करिये। उसका समाधान ढूंढने का प्रयास करिये। लेकिन इस दौरान ईश्वर को मत भूलिये। अच्छा रहेगा कि जब आप संघर्ष कर रहे हो तो उन पर विजय प्राप्त करने लिए, पहले ईश्वर को याद करें, उनकी कृपा प्राप्त करें और जब उस पर विजय प्राप्त कर लें तो उन्हें धन्यवाद ज्ञापित करना नहीं भूलें। कहें कि ईश्वर सब आपकी कृपा से हुआ और उन्हें अपना कर्म समर्पित कर दें।

उन्होंने कहा कि आत्मा की स्वाभाविक अवस्था है – संतोष। लेकिन उससे भी उपर है – शांति और आनन्द। उन्होंने कहा कि ईश्वर आपको अनन्त रूपों में विभोर करते रहेंगे, ठीक उसी प्रकार जैसा कि ईश्वर का अनन्त रूप है। उन्होंने कहा कि समर्पण हमेशा ध्यान की अवस्था में करनी चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि कभी भी अनुभूति के लिए ध्यान नहीं करें। हालांकि अनुभूति जरुरी हैं। लेकिन उसके बावजूद भी ईश्वर के प्रति अपना प्रेम समर्पण करने के लिए ध्यान जरुर करें। मतलब ईश्वर प्राप्ति के आगे किसी अन्य चीज की अपेक्षा न करें/रखें। आप जितना सहज भाव से ध्यान करेंगे, उतना ही आनन्द प्राप्त करेंगे।

स्वामी आद्यानन्द ने इसी दौरान राव्या और हसन की कहानी सुनाई। हसन को आध्यात्मिक पथ पर रहने के कारण कुछ सिद्धियां प्राप्त हो गई थी। हसन ने इसी बीच जल के बीचोंबीच एक चादर फेंकी और उस पर जाकर बैठकर ध्यान करने लगे और राव्या से भी कहा कि वो आकर यहां ध्यान करें। राव्या को यह समझते देर नहीं लगी कि हसन अपने आध्यात्मिकता का प्रदर्शन कर रहे हैं। राव्या ने तुरंत ही एक चादर हवा में फैला दी और वहां जाकर हसन को कहा कि वो यहां आकर ध्यान करें।

दरअसल राव्या हसन को ऐसा कर यह बताना चाह रही थी कि हसन जो कर रहे हैं या राव्या ने जो किया, वो कोई भी कर सकता है। जैसे मछलियां भी जल में ऐसा कर सकती है, जैसा कि हसन ने करके दिखाया और मक्खियां भी हवा में वो कर सकती है, जैसा कि राव्या ने किया। ये कोई बहुत बड़ी चीज नहीं हैं। आध्यात्मिकता का प्रदर्शन नहीं होना चाहिए।

स्वामी आद्यानन्द ने कहा कि हमारा  सारा कर्म गुरु और ईश्वर के लिए होना चाहिए। उन्होंने कहा कि आप कोई भी कर्म करें, तो ईश्वर को अवश्य याद करें, ताकि आपको उनका समय-समय पर मार्गदर्शन मिलता रहे और आप उस काम में कामयाब हो। उन्होंने कहा कि गहरा समर्पण सिर्फ ध्यान में होता हैं। उन्होंने एक सुंदर दृष्टांत देते हुए बताया कि हमारा ईश्वर के प्रति विश्वास कैसा होना चाहिए?

उन्होंने कहा कि आपने बंदर के बच्चे को देखा होगा, जहां-जहां उसकी मां जाती है। वो अपनी मां को कसके पकड़े रहता है, और मां के साथ ज्यादा समय बिताता है। जबकि बिल्ली के बच्चे को देखिये, तो जहां उसकी मां उसे छोड़ देती हैं, वहीं पर वो पड़ा रहता है, ये जानकर कि जहां उसकी मां रखी हैं, वहां उसे कोई संकट नहीं आनेवाला। तो हमारा प्रेम भी उस ईश्वर के प्रति उस बिल्ली के बच्चे की तरह होना चाहिए कि ईश्वर हमें जहां भी रखें हैं। हमें कोई संकट नहीं आनेवाला और अगर संकट आ भी गया तो फिर डर कैसा? ईश्वर तो सर्वव्यापी हैं। वो तो हमें हर संकट से बचा लेगा। उन्होंने कहा कि भगवान ने हमें संजो कर रखा है, बस उनका हाथ पकड़कर चल देना है। दरअसल ये सारा खेल प्रेम और पीड़ा का हैं। ईश्वरीय प्रेम को समझिये। इससे ज्यादा कुछ करने की जरुरत ही नहीं।

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