साहित्य अकादमी पुरस्कार वापसी जानबूझकर किया गया नाटक था : अशोक वाजपेयी
वरीय साहित्यकार अशोक वाजपेयी बहुत अच्छा नाटक कर लेते हैं, हम सभी को उनके नाटकों से सीख लेना चाहिए कि कौन सा नाटक कब और कैसे करना चाहिए? खासकर साहित्यकारों को तो जरुर सीख लेनी चाहिए कि वे नाटकों का कैसे सदुपयोग कर सकें। खुद अशोक वाजपेयी ने रांची में एक अखबार और टाटा कंपनी द्वारा आयोजित झारखण्ड लिटरेरी मीट में स्वीकार किया कि साहित्य अकादमी पुरस्कार वापसी जानबूझकर किया गया नाटक था। समाज में बढ़ती असहिष्णुता के खिलाफ विरोध प्रदर्शन के लिए किया गया नाट्यकर्म था। इस नाटक ने लोगों का ध्यान मुद्दे की ओर खींचा।
यहीं बात कई लोग उस दौरान कह रहे थे कि ये सारे लोग ड्रामा कर रहे हैं, तब लोग उनकी कही बातों को हंसी में उड़ा रहे थे, पर अशोक वाजपेयी का ये स्वीकारोक्ति अब बहुत कुछ कह देता है। इस देश का दुर्भाग्य है कि यहां साहित्यकार भी विभिन्न वर्गों व जातियों में बंटा है और अपने हिसाब से वह सही-गलत का आकलन करता है, जिससे साहित्यकार का तो कुछ नहीं जा रहा, पर साहित्य की दुर्दशा तो हो ही जा रही है। वह इतना ही नहीं, वह खुद को जनता के सामने महानायक बनने के लिए पुरस्कार तक लौटाने की बात करता है, और इस नाटक के द्वारा साहित्य का चीरहरण कर देता है।
अशोक वाजपेयी के बारे में जनकवि वरवर राव ने कहा था कि अशोक वाजपेयी भारत के महत्वपूर्ण कवि है, उन्होंने लगातार जनमुद्दों पर आवाज बुलंद की है, असहिष्णुता के मुद्दों पर साहित्य अकादमी का पुरस्कार भी लौटा चुके हैं। जब लेखकीय सरोकारों पर हमले हो रहे हैं, उन जैसे साहित्यकारों को टाटा स्टील के साहित्योत्सव में नहीं जाना चाहिए। अब सवाल उठता है कि अगर नही जायेंगे तो फिर इन्हें लोग जानेंगे भी कैसे? क्योंकि उन्हें भी पता है कि आजकल साहित्यकारों के सम्मान का क्या हाल है?
उसका उदाहरण भी देखिये। जिस अखबार ने कार्यक्रम आयोजित किये, उस कार्यक्रम में कौन और किस प्रकार के लोग थे? वहीं मुरझाये चेहरे, वहीं एक ही प्रकार के टाइप्ड लोग, पुराने फाइल से नाम निकाल कट-पेस्ट किये और बुला लिये । लोग भी ऐसे है, जिन्हें बराबर इनके अखबारों से काम पड़ना ही पड़ना है, यानी चेहरे चमकवाने हैं, मजाल है कि अखबार व चैनल द्वारा आयोजित इस कार्यक्रम में भाग लेने से इनकार कर दें, यहीं तो मौका होता है, सीट फुलकर, अखबार के संपादकों का कॉलर मजबूत करने का समय, ऐसा मौका वे कैसे हाथ से जाने दें? ऐसे भी दूसरे दिन इनके अखबारों में इन महानुभावों के फोटो छपेंगे, वे फोटो अखबार के इंटरनेट संस्करण से काट कर, अपने परिजनों को भेजेंगे और कहेंगे कि देखों हम साहित्य सम्मेलन में मौजूद थे।
बेकार की फालतू बातें, जिनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं। एक कंपनी को पकड़ा, कंपनी को भी अखबारों से मेल-मिलाप करके चलना होता हैं। कंपनी ने संपादकों के अनुरोध पर, अपने कोटे से कुछ राशि प्रदान कर दी, लो थोड़ा बहुत साहित्य के नाम कल्याण कर दिया और थोड़ा पुण्य उठा लिया। सच पूछिये तो इस प्रकार के आयोजन से न तो साहित्य को फायदा होता है और न ही राज्य को, अगर फायदा होता है तो सिर्फ और सिर्फ अखबारों को, जिससे वे एक अच्छा-खासा अर्थोपार्जन कर लेते हैं।
जरा साहित्य लिटरेरी मीट में आये एक नमूने साहित्यकार राजदीप सरदेसाई को भी देख लीजिये। ये प्रवचन दे रहे थे। कह रहे थे कि आज राजनीति, फिल्म, व्यवसाय आदि में नये लोग अपने परिवार के जरिये आ सकते है, पर खेल एक ऐसा क्षेत्र है, जिसमें प्रतिभा से ही आगे बढ़ा जा सकता है। अब इस मूर्ख को कौन समझाएं कि खेल ही नहीं, हर क्षेत्र में प्रतिभा ही काम आता है। जैसे राजनीति को ही ले ले, नरेन्द्र मोदी के पिता और परिवार को कोई नहीं जानता था, आज वे प्रतिभा के बल पर देश के प्रधानमंत्री है और परिवारवाद के सहारे नैया खींचवानेवाला राहुल गांधी की हालत सबके सामने हैं। अब फिल्म को देखो, अभिषेक बच्चन के हालत पस्त है और शाहरुख खान, अक्षय कुमार की बल्ले-बल्ले है। बिजनेस में भी देख लो, अंबानी-अडानी से कही ज्यादा देश में रामदेव कमाल कर रहा है। अरे भाई, साहित्य सम्मेलन में आये हो, तो जरा कुछ ऐसा बोलो, जिससे लोग समझे कि तुम साहित्यकार हो, ये क्या मूर्खों जैसी बाते करते-फिरते हो।
और आप पत्रकारिता में क्या-क्या गुल खिलाये हो, लोग नहीं जानते है क्या? पत्रकारिता में आप जैसे लोग अमरीका जाकर कैसे अपमानित होकर आते हो, उसका दृश्य तो अभी भी यूट्यूब पर डाला हुआ है। हाल ही में कई बार देश के कई राजनीतिज्ञों ने आपकी अच्छी क्लास ले ली है, पर आपको तो शर्म है ही नहीं। ऐसे भी आपकी पत्रकारिता कैसी है? वह कौन नहीं जानता? रांची आकर तकिया कलाम रट रहे थे, राजनीति बांटती है, व क्रिकेट जोड़ता है। मूर्ख हो तुम, राजनीति बांटती नहीं, अगर राजनीति बांटती तो, गांधी, राजेन्द्र प्रसाद, नेहरु, शास्त्री जैसे लोग राजनीति का मार्ग नहीं अपनाते और याद रखो, इनलोगों ने बांटा नहीं, सिर्फ और सिर्फ जोड़ा, जो तुम कर ही नहीं सकते, क्यों झूठ फैला रहे हो, साहित्य के नाम पर।