अपनी बात

सावधान, कारपोरेट घरानों द्वारा संचालित अस्पताल, झारखण्ड के बड़े मीडिया संस्थानों के साथ गलबहियां कर मरीजों और उनके परिजनों को लूट रहे हैं

निजी अस्पतालों की मनमानी पर रोक लगाने के लिए समय-समय पर आवाज उठती रही है, लेकिन इस दिशा में न तो कोई सामाजिक संगठन, न ही राजनीतिक दल कोई कदम उठा सका और न ही इन पर नकेल कसने के लिए सरकार कोई कानून बना सकी। नतीजा यह हुआ कि निजी अस्पतालों की मनमानी बढ़ती गई, लोग लुटते रहे और उन्हें बचाने के लिए कोई आगे नहीं आया।

आश्चर्य है कि जिन पर दारोमदार था कि वे इन निजी अस्पतालों की मनमानी पर रिपोर्ट लिखेंगे, उन्हें पर्दाफाश करेंगे। वे मीडिया संस्थान उन्हीं की गोद में बैठकर, उनसे मुंहमांगी रकम प्राप्त कर, विभिन्न महंगे होटलों में कार्यक्रम आयोजित कर, उन्हें सम्मानित करते रहे और स्वास्थ्य सेवा में बेहतरी के नाम पर सरकारी अस्पतालों पर इनकी कलम चलती रही।

स्वास्थ्य सेवा से जुड़े लोग तो खुलकर यह कहने से भी नहीं चूकते, कि ये मीडिया संस्थान और इनमें काम करनेवाले स्वास्थ्य बीट को देख रहे रिपोर्टर इन निजी अस्पतालों से एक खास रकम तथा समय-समय पर मिलनेवाली पर्वी से ही इतने खुश हो जाते हैं कि उन्हें इन निजी अस्पतालों में दम तोड़ते मरीज और उनके परिजनों की समस्याएं दिखाई नहीं देती।

ऐसा नहीं कि ये रिपोर्टर या पत्रकार इस समस्या के शिकार नहीं हुए हैं, ये भी होते हैं, पर इनकी इतनी हिम्मत या बुद्धि उस वक्त काम नहीं आती, क्योंकि सामनेवाला मतलब निजी अस्पताल चलानेवाला व्यक्ति जानता है कि इलाज करा रहा पत्रकार या उसका परिवार वक्त आने पर पैसा जरुर छुड़वायेगा, इसलिए पहले से ही इतना बिल उस पर चढ़ा देता है कि पत्रकार को लगता है कि उसे छूट मिल गई, पर सच्चाई तो केवल निजी अस्पताल चलानेवाला ही जानता है।

मतलब बिना जांच के जांच, बिना डाक्टर के कंसलटेन्ट डाक्टर बुलाने की प्रथा का जन्म और दवा तथा मेडिकल उपकरणों के नाम पर बार-बार दी जानेवाली बिल बताने के लिए काफी होता हैं कि इन निजी अस्पतालों में इलाज करा रहे लोग कैसे स्वास्थ्य के नाम पर खुद को बर्बाद कर रहे होते हैं। आपको याद होगा सुप्रसिद्ध अभिनेता अक्षय कुमार की एक फिल्म, फिल्म का नाम था – ‘गब्बर इज बैक’।

गब्बर इज बैक फिल्म स्वास्थ्य सेवा में चल रही लूट और निजी अस्पतालों में व्याप्त भ्रष्टाचार और मरीजों ही नहीं बल्कि उनके लाशों से भी कैसे पैसे निकालने हैं, उसकी कला अस्पताल चलानेवाले कैसे जानते हैं, उसको दिखाया गया था, जिसको लेकर यह फिल्म केन्द्रित थी। आज भी ये फिल्म यू-ट्यूब पर मौजूद है, आप उसे देखें और इस फिल्म की रियलिटी देखनी हो तो किसी भी रांची के निजी अस्पतालों को घूम आइये। रांची में ऐसे एक नहीं अनेक उदाहरण हैं। असंख्य लोग हैं, जो इन निजी अस्पतालों में स्वयं को झोककर बर्बाद कर चुके हैं, और कुछ बर्बाद होने की लाइन में हैं, पर जब ज्ञान होता हैं, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।

ताजा उदाहरण देखिये। रांची के एक वरिष्ठ पत्रकार नवल किशोर सिंह से जुड़ा है। नवल किशोर सिंह की सास प्रमिला देवी 25 अप्रैल को चुटूपालू घाटी में बस दुर्घटना में घायल हो गई। उनके परिजनों ने बूटी मोड़ स्थित लाइफ केयर हास्पिटल में उन्हें प्राथमिक उपचार के लिए 25 अप्रैल 2023 को सुबह के 8.30 बजे भर्ती कराया। वहां के प्रबंधक ने तत्काल 30 हजार रुपये जमा करने को कहा। इस पर परिजनों ने आपत्ति दर्ज कराते हुए, सिर्फ प्राथमिक उपचार करने को कहा। इस दौरान मरीज का प्राथमिक उपचार किया गया। इसके बाद उनके परिजनों ने अन्य अस्पताल में ले जाने का निर्णय लिया।

इससे बौखलाए लाइफ केयर हास्पिटल के प्रबंधक ने मात्र तीन घंटे में ही 9900 का बिल थमा दिया। जिसमें 900 रुपये डिस्काउंट भी किया गया। चूंकि परिजन पीड़ित व परेशान थे, उसके बावजूद भी उन्होंने मात्र तीन घंटे में ही 9900 के बिल पर कड़ी आपत्ति दर्ज कराई थी। लेकिन उस वक्त वे कोई भी प्रतिकार करने की स्थिति में नहीं थे, इसलिए पैसे का भुगतान किया और वहां से चल दिये। इसके बाद नवल किशोर सिंह विद्रोही24 को बताते हैं कि मात्र तीन घंटे में ही प्राथमिक उपचार के एवज में 9900 के बिल पर संस्थान के संचालक डा. रजनीश कुमार से कई बार संपर्क करने की कोशिश की। बार-बार बताया गया कि डाक्टर साहेब ओटी में हैं, पर बात नहीं कराया गया।

नवल किशोर सिंह बताते है कि इधर टाटीसिलवे स्थित स्वर्णरेखा अस्पताल में भर्ती उनकी सास का इलाज डा. आलोक चंद्र प्रकाश की देखरेख में चल रहा था। इलाज से सभी संतुष्ट थे। मरीज की रिकवरी भी हो रही थी। जब 30 अप्रैल को नवल किशोर सिंह की सास को अस्पताल से डिस्चार्ज किया गया तो उन्हें 44700 का बिल थमा दिया गया। इसमें सभी शुल्क तो लगभग सामान्य थे, लेकिन आक्सीजन चार्ज के एवज में 94 घंटे में 28200 रुपये का बिल जोड़ दिया गया। इस पर पत्रकार नवल किशोर सिंह ने डाक्टर आलोक चंद्र प्रकाश से संपर्क किया तो उन्होंने 3700 रुपये छोड़ दिया और 41000 रुपये का भुगतान करने को कहा।

स पर श्री सिंह ने चिकित्सा उपकरण के आपूर्तिकर्ता अपने मित्र से संपर्क साधा और उन्हें पूरी बात बताई। उन्होंने स्वयं डा. आलोक चंद्र प्रकाश को ऑफर किया कि सर, आप नवल किशोर सिंह के आक्सीजन का चार्ज माफ कर दीजिये। हम इसके एवज में आपको महीने भर के लिए आपके अस्पताल में खपत होनेवाले आक्सीजन की मात्रा सिलिंडर सहित आपको दे देंगे। जिस पर डा. प्रकाश ने कहा कि मैं 90000 प्रतिमाह ऑक्सीजन का भुगतान करता हूं, इस पर नवल किशोर सिंह के मित्र ने कहा कि इसका मतलब हुआ कि प्रतिदिन 3000 रुपये की आक्सीजन की खपत पूरे अस्पताल में होती है।

इस प्रकार पांच दिन भर्ती मरीज का चार्ज पन्द्रह हजार रुपये से अधिक तो नहीं ही होना चाहिए, यदि पूरे अस्पताल का आक्सीजन खर्च जोड़ दे तो भी। इसके बावजूद डा. प्रकाश ने इस ऑफर को नकारते हुए मात्र पांच हजार रुपये उन्हें वापस किये। इसके बाद श्री सिंह ने अपनी पीड़ा इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के राज्य सचिव डा. प्रदीप कुमार सिंह को बताई।

उन्होंने भी इस प्रकरण को जानने के बाद इसे गलत ठहराया और डा. आलोक चंद्र प्रकाश से बातकर उन्हें और राहत देने को कहा। नवल किशोर सिंह बताते हैं कि डा. प्रदीप कुमार सिंह के निर्देश पर वे फिर वहां गये और डा. आलोक चंद्र प्रकाश से मुलाकात की। इसके बाद बमुश्किल उन्होंने पांच हजार रुपये उन्हें लौटाए और कहा कि इससे अधिक वे लौटाने में असमर्थ है।

निजी अस्पतालों के इस क्रूर व अमानवीय व्यवहार पर इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के राज्य सचिव डा. प्रदीप कुमार सिंह कहते हैं कि निजी अस्पताल प्रबंधन को मरीजों के प्रति सहानुभूति रखनी चाहिए। सरकार को भी इस दिशा में ठोस कदम उठाना चाहिए, क्लिनिक एस्टेब्लिशमेंट एक्ट के प्रभावी होने से बड़े-बड़े अस्पतालों, कारपोरेट घरानों का हित साधन तो होगा, लेकिन छोटे-छोटे अस्पतालों व पचास बेड से कम वाले निजी क्लिनिकों के अस्तित्व पर भी खतरा उत्पन्न हो जायेगा।

यह उक्त एक्ट प्रभावी होने से मरीजों को इलाज के लिए अधिक राशि खर्च करने होंगे, जहां पांच हजार में छोटे अस्पतालों में इलाज संभव हो पायेगा, उसी रोग के इलाज के लिए बड़े अस्पतालों में लोगों को पांच लाख तक देने होंगे। डा. सिंह न कहा कि अधिकतर अस्पतालों का संचालन कारपोरेट घरानों के द्वारा संचालित है। वहां काम करनेवाले चिकित्सक चाह कर भी कुछ नहीं कर सकते। वे बताते हैं कि स्थिति तो इतनी विकट हो चुकी है कि इन अस्पतालों में सेवा देनेवाले डाक्टरों के परिवारों को भी बख्शा नहीं जाता तो हम और आप किस खेत की मूली है। स्थिति बहुत ही विकट हैं।

वे बताते है कि मोहल्ला क्लिनिक का कान्सेप्ट विकसित किया जाना चाहिए ताकि आम मरीजों का इलाज किफायती दरों पर संभव हो सकें। देश में कई राज्यों ने ऐसी व्यवस्था कायम की है। झारखण्ड सरकार को भी इस दिशा में कदम उठाना चाहिए। आइएमए चिकित्सकों के हित संरक्षण के अलावा, आम मरीजों की परेशानियों को भी समझती हैं, इसलिए वो चाहती है कि झारखण्ड में मरीजों के परिजनों और डाक्टरों के प्रति एक मानवीय संवेदना जन्म लें।