भाजपाइयों द्वारा दिये जा रहे फूलों के हार और शॉल के चक्कर में फंसते जा रहे पत्रकार
लोकसभा व विधानसभा चुनाव को नजदीक आता देख, भाजपाइयों ने नाना प्रकार के तिकड़म शुरु कर दिये हैं। इन्हीं तिकड़मों में से एक तिकड़म हैं – छोटे मंझौले पत्रकारों या प्रेस क्लब से जुड़े पत्रकारों को सम्मान समारोह आयोजित कर उनको माला पहनाना, छोटे-मोटे गिफ्ट देकर, उनके दिलों में अपना जगह बनाना, ताकि लोकसभा-विधानसभा चुनावों के दौरान ये उनकी बेहतर ढंग से मदद तथा उनके लिए विशेष रुप से काम आ सकें।
ये काम आजकल बिहार और झारखण्ड में ज्यादातर देखने को मिल रहा है। आज की ही बात हैं बिहार की राजधानी पटना में भाजपा ने पत्रकारों को उनके बेहतर काम के लिए “पत्रकार सम्मान समारोह” का आयोजन किया। इस सम्मान समारोह के मुख्य अतिथि बिहार सरकार के पथ निर्माण मंत्री नन्दकिशोर यादव थे। इनके साथ साथ पटना के कुम्हरार के भाजपा विधायक सह मुख्य सचेतक अरुण कुमार सिन्हा, विधान पार्षद सूरजनंदन कुशवाहा, भाजपा प्रवक्ता राजीव रंजन भी मौजूद थे।
इन सभी ने संयुक्त रुप से पत्रकारों को चादर ओढ़ाएं, उपहार दिये, तथा पत्रकारों का अभिनन्दन किया। दूसरी ओर झारखण्ड के धनबाद में भाजपा सांसद पीएन सिंह, भाजपा विधायक राज सिन्हा तथा अन्य भाजपाइयों ने धनबाद प्रेस क्लब से जुड़े सभी नवनिर्वाचित पत्रकारों को शाल ओढ़ाया, मालाएं पहनायी और उन्हें सम्मानित किया।
जबसे पत्रकारों को माला पहनने, शॉल ओढ़ने का शौक जागा है, तब से सच पूछिये पत्रकारिता भी तेल लेने चली गई है, क्योंकि जब आप माला पहनेंगे, शॉल ओढ़ेंगे तो आपको उसकी कीमत भी चुकानी होगी, और वो कीमत वसूलता है वो, जो शॉल ओढ़ाता हैं, उपहार देता है, तथा माला पहनाता है। आप चाहे या न चाहे, वो वसूल ही लेता है, और आप वसूलवाने के लिए न चाहकर भी तैयार रहते हैं।
हमने अपने जीवन में एक से एक पत्रकार देखे है, कोई राज्यसभा के टिकट पर स्वयं को बेच देता है, कोई फ्लैट लेकर, कोई नगरपालिका या नगर निगम क्षेत्र में अपने नाम दुकान आवंटित करवा या गोआ जाकर समुद्र में पवित्र स्नान कर या माला पहनकर, सभी ने अपने पत्रकारिता धर्म को त्याज्य कर, स्वयं को सम्मानित होने तथा झूठे तामझाम में स्वयं को कैद कराने के लिए इतने लालायित हो गये हैं कि अब तो पत्रकार लंदन में जाकर चांदी के चम्मच भी चुराने लगे।
सवाल उठता है कि आखिर ऐसे सम्मान को पाने से क्या मिलता है? लोग इन झूठे सम्मानों के पीछे क्यों भाग रहे हैं? वे ये क्यों समझने या जानने की कोशिश नहीं कर रहे कि जब आप बेहतर काम करोगे तो लोग तुम्हें अपने माथे पर बिठायेंगे और वो जब माथे पर बिठायेंगे तो उनके द्वारा दिया गया सम्मान, इन नेताओं के द्वारा मिले सम्मान से कहीं ज्यादा बेहतर और टिकाउ होगा, पर हमें तो लगता है कि ये नये-नये जो पत्रकार बन रहे हैं, वे तो समय मिले तो बड़े-बड़ों का भी कान काट दें, शुरुआत तो नेताओं ने कर ही दी है, सम्मान देकर लालची बनाने की। देखते हैं, इस जाल में फंस कर वे अपनी जिंदगी को कहां ले जाते हैं, शीर्ष पर या गर्त पर।
सावधान पत्रकार,
सरकारी दाना चुगने से बहेलिया के जाल और फंसने का वही पुरना हाल वाला कहानी का ही अंत होना तय है।।
जरा अपने धर्म के लिए शर्म करिये।