अपनी बात

धन्य है स्वामी शिवानन्दजी, जिन्होंने 125 वर्ष की उम्र में भी विनम्रता की नई गंगा बहाकर दिखा दिया कि एक योगी के अंदर कैसा भारत रहता है?

जब से हमने ये दृश्य देखा हैं, तभी से मैं अपने आप में नहीं हूं। जीवन का उद्देश्य क्या है, क्या होना चाहिए, एक बार फिर इस दृश्य ने हमें सीखा दिया। इस दृश्य को मैं, बार-बार अपने बच्चों को भी दिखाना चाहता हूं, साथ ही उन्हें भी जो भारतीय जीवन मूल्यों को भारत में ही रहकर नहीं समझ पाये। कल स्वामी शिवानन्द जी ने राष्ट्रपति महोदय द्वारा मिले पद्मश्री एवार्ड लेने के क्रम में जो भाव प्रस्तुत किया हैं, वो भाव अनुकरणीय है, बिना किसी राग-द्वेष के, सबको समान भाव से विनम्रतापूर्वक अभिवादन करना कोई सीखें, तो इन्हीं से सीखें। करतलध्वनियों के बीच 125 वर्षीय स्वामी शिवानन्द जी ने पद्मश्री एवार्ड लेने के दौरान हमें बहुत कुछ सिखा दिया… स्वामी शिवानन्द जी आपको हमारा बारंबार प्रणाम हैं।

प्रणाम देवांशु जी को भी, जिन्होंने अपना हृदय, वाक्यों के इस समुद्र से हमारे सामने रख दिया है। मैंने बड़ी ही विनम्रता से देवांशु जी के फेसबुक पर लिखे गये इस सुंदर आलेख को उनसे प्राप्त कर, आपके समक्ष रखा हैं, आशा ही नहीं, बल्कि पूर्ण विश्वास है कि हमारा भारतीय जनमानस इस सुंदर दृश्य को देख और इस आलेख को पढ़ स्वयं को बारंबार परिष्कृत करने का प्रयास करेगा।

शिवानंद जी और भारतीय मानस

कल से एक वीडियो वायरल है। महायोगी शिवानंद जी पद्म पुरस्कार लेने के लिए राष्ट्रपति भवन आए। 125 वर्ष का जीवन जी चुके योगगुरु चपल-चरण प्रविष्ट हुए। प्रधानमंत्री बैठे थे, झुककर उन्हें प्रणाम किया। प्रधानमंत्री ने प्रत्याभिवादन किया। उस क्षण मोदीजी क्या सोच रहे होंगे, यह जानने की मेरी तीव्र उत्कंठा है। मैं तो यही मानता हूं कि वे कृतकृत्य हुए होंगे। शिवानंद जी मुड़े। राष्ट्रपति तक जाते हुए वे दो बार दंडवत हो गए।‌ मैं अवाक, हतप्रभ रह गया। 125 वर्ष की आयु में पद्म पुरस्कार की पहली सीढ़ी पर चढ़ते हुए वे कैसे झुके। उसी पद्म पुरस्कार को हमारे देश के कई कलावंत तुच्छ कहकर ठुकराते रहे हैं। संभवतः उन्होंने कला के उस स्तर को छू लिया, जहां से देश की गरिमा छोटी पड़ गई! सदाशयता शून्य रह गई! वे बड़े हो गए! किन्तु कितने छोटे होकर रह गए और शिवानंद जी कितने ऊपर उठ गए। इतने ऊपर उठ गए कि करोड़ों-करोड़ जनों ने प्रतीकात्मक अश्रुजल से उनके पांव धोए।

देवांशु झा जी, जिन्होंने स्वामी शिवानन्द जी के इस सुंदर भाव को देखकर शिवानन्दजी और भारतीय मानस आलेख लिख लोगों से इस भाव को समझने की बातें कह डाली

मैंने पिछले दिनों लिखा था कि सरकार ने पद्म पुरस्कारों के लिए भारत के जिन अनन्य सेवकों की खोज शुरू की है, वह खोज गहनतर हो। तुलसी गौड़ा, राहीबाई पोपरे, हरिकाला हाजब्बा और शिवानंद जी जैसी विभूतियां ही उन पुरस्कारों को प्राणवंत करेंगी। उनकी गरिमा ऊपर उठेगी। वह अपनी स्थापना को गौरव प्रदान करेंगे। मैं शिवानंद जी के बारे में सोचते हुए वृंदावन के उस छोटे से नाविक को ध्यान धरता हूं, जिसने करुणाविगलित स्वरों में मुझसे कहा था कि सर,जमुनाजी हमारी मां हैं। बाहर से आए सेठ लोग इसे गटर कहते हैं तो क्लेश होता है। दोनों की मूल चेतना एक है। जबकि वह नाविक अतिसाधारण मनुष्य है और शिवानंद जी अतिविशिष्ट मनुष्य हैं। परन्तु दोनों ने अपने निज को उसे सौंप दिया है, जिसे हम भारतभूमि कहते हैं। दोनों का अपना अहंकार कुछ नहीं है। दोनों उस माटी से एकमेक हैं।

कला या जीवन की साधना का अर्थ उसे मुक्त करना है। जहां कला की साधना अपने दर्प के नीचे दब गई, वहीं कलाकार की काया भस्म हो गई। साधना जाती रही। कुछ शेष न रहा। जो कीर्तियां उसने कमायीं, वे तत्क्षण लुट गईं। योगाचार्य ने अपनी साधना से स्वयं का इतना परिष्कार किया कि वह स्वयं कला हो गए। उनका अपना अस्तित्व उस महत्तर साधना में गल गया। साधक ने सबकुछ तो उस अनंत सत्ता को सौंप दिया, जिससे उसे मान मिला। मोदी सरकार तो बस एक जरिया है। वह नाविक जिसने पिछले पच्चीस वर्षों में स्वच्छ यमुना को प्रदूषित होते हुए देखा। जो हर बार अपनी नौका धार में खोलते हुए एक कचोट से भरता रहा कि अब इस जीवनदायिनी नदी के तल से सिक्के न ढूंढ़ पाऊंगा, वह भी तो स्वयं को उस अनंत सत्ता को सौंप गया है। उसके लिए केवल एक आशा रह गई है कि एक दिन यमुना पुनः निर्मल जाएगी।

मैं बार-बार कहता हूं कि भारत इसीलिए बचा हुआ है कि उसे करोड़ों करोड़ जन साधारण सेवते हैं। मैंने ऐसे अधिकांश लोगों की आंखों में बड़ी निर्मलता देखी है। उसे आप दस देंगे तो सांकेतिक रूप से बीस पावेंगे।‌ भारत की यही अनन्य साधारणता, उसका मानवताबोध पश्चिम के लोगों को यहां खींच लाता है। यूरोप के साफ-सुथरे शहरों से जो भीड़ वाराणसी, वृंदावन के धूल-धक्कड़ में भटकती है, वह क्या खोजने आती है। वह जिस अकेलापन और विखण्डित समाज को जीती भोगती है, उसका ध्वंस भारत में ही होता है। वह भीड़ देखती है कि भारतीय हिन्दू जनमानस का ईश्वर कितना मानवीय और प्राप्य है। वह विग्रह में तो है किन्तु विग्रह से परे कण-कण में है। उसे लोग गाते, उलाहते भजते हैं। नाचते झूमते हैं। वह नदी पर्वत वृक्ष जीव-जंतु सबको समान भाव से देखता है। इस एकात्म में पश्चिम का पीड़ित मनुष्य रम जाता है और गा उठता है- हरे रामा हरे कृष्णा। वह घाटों पर साइकिल से भटकता है। सफेद साड़ी पहनी विदेशी स्त्रियां नंगे पांव घाट को जाती हैं।

शिवानंद जी ने यह सिद्ध किया कि मनुष्य की अपनी उपलब्धियों की आयु एक उल्कापिंड जितनी है। अभी दीख पड़ा, अभी बुझ गया। उन्होंने योग से इस कठिन समय में मृत्यु से होड़ ली है। अन्यथा इस काल में 125 वर्ष का जीवन कौन पाता है और कौन उस अविश्वसनीय उपलब्धि को उसी तथता को सौंप जाता है जिसे समझने खोजने में भारत की शतियां खप गईं।‌ शिवानंद जी, तुलसी गौड़ा और वह साधारण नाविक भारत की आत्मा हैं। उनमें कोई विभेद नहीं है। कभी नहीं रहा। वही नाविक केवट था, जिसे श्रीराम ने अपना बंधु कहा था।