प्यारे दर्शकों, हमारे चैनल के छोटे रुपहलें पर्दें पर CM रघुवर का एक्सक्लूसिव इंटरव्यू देखना न भूलें
जब मैं छोटा था, तब उस वक्त मनोरंजन के साधन के रुप में ले–देकर, केवल सिनेमा था और इससे कुछ अलग हुआ तो सर्कस, समाचार जानने के लिए लोग अखबार व रेडियो का न्यूज सुना करते थे। कहीं कोई फेक अथवा किसी के महिमामंडन की खबर या पेड न्यूज तो दूर-दूर तक न दिखाई देता था और न सुनाई पड़ता था, अगर किसी जनाब को लेकर उनके गलत कारनामों को रेखांकित करती खबर छप गई तो समझिये उनकी राजनैतिक कैरियर ही समाप्त और अच्छी खबर छप गई तो लीजिये उनकी बल्ले-बल्ले।
ये वो वक्त था, जब मुख्यमंत्री तो छोड़ दीजिये, गवर्नर के यहां से भी अगर संपादक को बुलाहट हो गई तो ये संपादक ही डिसाइड करते थे कि उन्हें जाना चाहिए या नहीं, बहुत कम ही संपादक ऐसे हुए जो ऐसे कार्यक्रमों में जाना पसन्द करते थे, ज्यादातर तो मुस्कुराकर, हाथ जोड़कर, धन्यवाद पत्र लिखकर खिसक जाते, पर आज तो समय ही बदल गया है।
आज तो गवर्नर या मुख्यमंत्री के यहां लोग अपने बेटे-बेटियों की शादी का निमंत्रण पत्र देने तथा उनके घर में ये दोनों महाशय पधारें, इसकी ईश्वर से कामना करते हैं, और जब इनदोनों में से कोई संपादक के बेटे-बेटियों की शादी में पहुंच गया तो ठीक उसके दूसरे दिन शुद्ध घी के लड्डू हनुमान मंदिर में चढ़ाना नही भूलते। यहीं नहीं मुख्यमंत्री और गवर्नर भी जानते है कि कोई संपादक उनके यहां किस भाव से अपनी बेटी या बेटे की शादी के कार्ड देने के लिए आया है, इसलिए वे उन भावों को सम्मान देने में नाकुर-नुकूर नही करते।
आगे देखिये, हमारे जमाने में जब कोई फिल्म किसी हॉल में लगती तो एक रिक्शे में पीछे और रिक्शे के छतरी के दोनों तरफ छोटे-छोटे पोस्टर लगाकर, एक माइक पकड़ा व्यक्ति फिल्मी गानों के रिकार्ड को बजाता हुआ, प्रचार करता, “प्यारे भाइयो और बहनों, पटना के एलफिन्सटन सिनेमा के रुपहले पर्दे पर आज ही से रोजाना चार शो में देखिये, मार-धाड़ से भरपूर, जीपी सिप्पी की फिल्म शोले, इसमें काम करनेवाले कलाकार है – धर्मेन्द्र, अमिताभ बच्चन, हेमा मालिनी, जया भादुड़ी, संजीव कुमार और अमजद खान, सलीम जावेद के डायलॉग से सजी और आरडी बर्मन के संगीत और आनन्द बख्शी के गीतों में ढली इस फिल्म को अपने सपरिवार के साथ देखना ना भूलें।”
जब माइकवाला यह बोल रहा होता, तो जिनको फिल्मों में रुचि रहती, उसके बातों को ध्यान से सुनते, तथा जब तक वह रिक्शा वाला उनकी आंखों से ओझल नहीं हो जाता, तब तक वे उसे निहारते रहते। ठीक इसी प्रकार आजकल मैं देख रहा हूं कि कुकुरमुत्ते की तरह उगे चैनलों में बैठे, कुकुरमुत्तों की तरह उगे संपादकों/ब्यूरो प्रमुखों/वरिष्ठ संवाददाताओं ने गंध मचाकर रख दी है। ये जब भी मुख्यमंत्री या गवर्नर का कोई इंटरव्यू लेते हैं, तो उसका फेसबुक या अन्य सोशल साइट पर इस प्रकार से प्रचार करते हैं, जैसे पूर्व में किसी फिल्म का वो रिक्शा पर बैठा माइकवाला प्रचार करता था।
अरे हद हो गई, फिल्म का प्रचार होता हैं, तो समझ में आता है, आप क्यों प्रचार कर रहे हो कि आप हमारे चैनल पर सीएम रघुवर का एक्सक्लूसिव इंटरव्यू देखना न भूलें, अरे जब एक्सक्लूसिव होगा तो लोगों को पता चल ही जायेगा, लोग खोद-खोद कर देंखेंगे, पर जब एक्सक्लूसिव होगा ही नहीं तो तुम कितना भी चिल्लाओं, लोग क्यों देखेंगे? हद हो गई, गला-फाड़ें जा रहे हैं, फेसबुक पर पोस्टल की तरह, एक नहीं, कई-कई फोटो डाले जा रहे हैं, विभिन्न मुद्राओं में सीएम रघुवर के साथ खिंचाई फोटो डाले जा रहे हैं, जैसे लगता हैं कि सीधे ईश्वर की प्राप्ति हो गई है। सच्चाई यह है कि ऐसा फोटो, कभी अपने पिता या मां के साथ नहीं खिंचवायें होंगे या खिंचवाकर डालें होंगे, पर सीएम के साथ फोटो हैं भाई, इसे तो फेसबुक में जरुर डालेंगे।
हद हो गई, इन दिनों हरेक चैनल, सीएम रघुवर का इंटरव्यू दिखाये जा रहा है, सच्चाई यह है कि उस इंटरव्यू में कुछ भी नहीं है, सिवाय सीएम रघुवर की स्तुति के, यहीं कारण है कि आज झारखण्ड की जनता, इनके सोशल साइट में प्रचार के बावजूद भी इन चैनलों को नहीं देखते और न ही उस पर चर्चा करते हैं, चूंकि चुनाव का बाजार गर्म है, इससे सीएम रघुवर को लगता है कि उनके इंटरव्यू दिखाने से उनका तथा उनकी पार्टी का प्रचार हो जायेगा, इधर चैनलों के मालिकों/संपादकों को लगता है कि सीएम रघुवर से उनका पी-आर मजबूत हो जायेगा, तथा विज्ञापन रुपी सागर में डूबने का मौका भी मिलेगा, इसलिए क्यों न इंटरव्यू-इंटरव्यू खेला जाये, चाहे इस खेल से कुछ निकले अथवा न निकले।
राजनीतिक पंडितों की मानें तो झारखण्ड हो या बिहार, यहां की जनता सब जानती है, भले ही फिल्म “रोटी” का वह अमर गीत, ये चैनल वाले गुनगुनाये या नहीं गुनगुनाये, पर जनता के दिलों में वो गीत तो आज भी हैं, बोल है – “ऐ बाबू ये पब्लिक है पब्लिक, ये जो पब्लिक है, ये सब जानती है, पब्लिक है, अजी अंदर क्या है? अजी बाहर क्या है? अंदर क्या है? बाहर क्या है? ये सब कुछ पहचानती है, पब्लिक है, ये सब जानती है, पब्लिक है।”
मीडिया नचावत ..रघुबर गोसाईं
क्या ये मीडिया वाले यह भी बताएंगें कि उस समय के नेता पूरे चुनाव प्रचार के दौरान केवल एक जीप ही मुश्किल से चला पाते थे।अधिकतर लोगों को तो मैंने साईकिल से प्रचार करते देखा है , और साथ में बन्दूक धारी अंगरक्छक भी नहीं रहते थे। रात को अक्सर देर होने पर जिस गांव , शहर में रहते वही किसी कार्यकर्त्ता के घर रुक भी जाते थे। उस समय चमड़े के सिक्के चलाने वाले मुख्यमंत्री होते थे।
क्या तीसरा स्तम्भ पूरी तरह ढह गया है ? अगर नहीं तो सत्ता की दलाली बंद कराईये !