अपनी बात

डूब मरो “दैनिक जागरण” वालों एवं “धनबाद प्रेस क्लब” से जुड़े पत्रकारों

डूब मरो “दैनिक जागरण” वालों एवं “धनबाद प्रेस क्लब” से जुड़े पत्रकारों, तुम्हारे सामने तुम्हारा साथी पत्रकार मर गया और तुम उसके शोकाकुल परिवार के साथ खड़े भी नहीं हो सकें, उसकी मदद भी नहीं कर सकें। “दैनिक जागरण” ने तो वहीं किया जो वह करता आया है, उसने विजय रजक की मृत्यु की खबर तो छापी, पर ये नहीं लिखा कि वह काम कहां करता था? किसके लिए करता था?

जबकि सारा धनबाद जानता है कि विजय रजक “दैनिक जागरण” के लिए काम करता था और वह पुटकी से “दैनिक जागरण” का संवाददाता था। विजय का कितना दुर्भाग्य है, कि वह जिस संस्थान में काम करता था, उस संस्थान ने उसकी मौत के बाद अपने संस्थान से जुड़े होने का प्रमाण ही सदा के लिए समाप्त कर दिया, वह भी उसके बेटे अभिषेक के उस समाचार के साथ इस प्रकार से समाचार प्रकाशित कर, जैसे लगता हो कि विजय रजक “दैनिक जागरण” का संवाददाता न होकर, कोई मजदूर या सामान्य व्यक्ति था, जिसका “दैनिक जागरण” से संबंध ही न हो।

आम मजदूर और पत्रकार में शायद यही फर्क है। आम मजदूर मरता है तो लोग कम से कम ये जरुर कहते है कि वो फलां संस्थान में काम करता था, उसका मालिक भी मरने के बाद उसके परिवार के पास जाकर, परिवार के आंसू पोछता है, कहता है कि चिन्ता मत करो, हमलोग आपके साथ है, पर शायद बुद्धिजीवी कहलानेवाले लोगों अखबारों-चैनलों में ऐसा नहीं होता। लेकिन जब सरकार से कुछ मांगने की बात होती हैं तो फिर देखिये इन पत्रकार बने कलाकारों की कलाकारी। कैसे अपने को समाज के लिए लड़नेवाला अग्रिम पंक्ति का योद्धा बताते है?

जबकि सच्चाई यह है कि जिन संस्थान के लिए ये काम करते हैं, वे संस्थान इन्हें इन्सान तक नहीं मानते, पत्रकार तो दूर की बात हैं। विजय रजक के साथ जो हुआ, उसका ये जीता जागता प्रमाण है। सुना है धनबाद में एक प्रेस क्लब भी है। यह प्रेस क्लब बड़े-बड़े पत्रकारों को समय-समय पर धनबाद क्लब में कार्यक्रम आयोजित कर, उन्हें शॉल ओढ़ाता है, उन्हे सुस्वादु भोजन कराता है, इस प्रकार के कार्यक्रम के लिए उसे बहुत सारे प्रायोजक भी मिल जाते हैं, पर विजय रजक जैसे पत्रकारों की मदद के लिए न तो इन्हें प्रायोजक मिलते हैं और न ही उन बड़े-बड़े पत्रकारों के आंसू ढलकते हैं, जो इन प्रेस क्लब के महामानवों से सफेद शॉल लेकर, सुस्वादु भोजन प्राप्त कर स्वयं को महिमामंडित करने से नहीं इतराते और जब ऐसे लोगों को कोई आइना दिखायेगा तो फिर इनकी नौटंकी देखिये।

मैं पूछता हूं कि क्या “धनबाद प्रेस क्लब” की ये जिम्मेदारी नहीं बनती कि वो “दैनिक जागरण” संस्थान में जाकर उनके संपादक से ये पूछे कि जब विजय रजक, उनके अखबार में काम करता था, तो उसने ये क्यों नहीं छापा कि मृतक “दैनिक जागरण” के संवाददाता थे। मैं पूछता हूं कि धनबाद प्रेस क्लब ने विजय रजक के घर जाकर उनके परिवार को क्यों नहीं सांत्वना दी, आर्थिक मदद की, कि वे घबराएं नहीं, सारा धनबाद का पत्रकार इस शोक के समय उनके साथ है। ये कर क्या रहे हैं? तो विधवा प्रलाप। “बिल्ली की गली में घंटी कौन बांधे” इस शीर्षक पर परिचर्चा कर रहे हैं।

अरे भाई, पत्रकार बाद में बनियेगा, पहले इन्सान तो बनिये। वो कौन “धनबाद प्रेस क्लब” का अधिकारी है, जो इस शोकाकुल वातावरण में स्वयं को जाने से रोक रहा हैं और उसे मदद करने को तैयार नहीं। विद्रोही24 ने आज ही विजय रजक के पुत्र अमन अभिषेक से बात की, उसने कहा कि उसके पिता की मौत नहीं हत्या हुई है, क्योंकि पीएमसीएच के कैथलैब में कार्यरत कर्मचारियों ने उसके पिता पर ध्यान ही नहीं दिया, और इसके लिए प्रशासनिक स्तर से लेकर सभी से गुहार लगाई, पर किसी ने मदद नहीं की, उसने ये भी कहा कि आज कई दिन बीत गये न तो दैनिक जागरण और न ही धनबाद प्रेस क्लब के लोग उसके घर आकर आर्थिक मदद या सहयोग करने की बात कही।

सच्चाई यह है कि आज सबसे बड़ी समस्या उन पत्रकारों की हैं, जो प्रखण्ड व अनुमंडलों में काम करते हैं। अखबारों-चैनलों में काम करनेवाले संपादक से लेकर बड़े अधिकारियों तक उनका शोषण करते हैं, पर जब उनकी जरुरत होती हैं तो ये यह भी कहने से इनकार करते है कि फलां रिपोर्टर उनके यहां काम करता था। विडम्बना देखिये, जिनके नाम पर प्रेस क्लब खुल रहे हैं, विभिन्न शहरों में, वे भी इनके साथ नहीं होते, बल्कि उन संपादकों व बड़े-बड़े मालिकों की जी-हुजूरी में लगे होते हैं, ऐसे में क्लब रहे या अखबार रहे या चैनल। छोटे-मझौले पत्रकारों की यहा पूछता कौन है? मैं तो कहता हूं कि थोड़ा भी शर्म अगर धनबाद के “दैनिक जागरण” या वहां के “प्रेस क्लब” को हैं तो विजय रजक के घर जाकर, उनके परिवार से अपने कुकृत्यों के लिए माफी मांगे, नहीं तो जो हो रहा हैं, वो ठीक ही हैं, एक दिन ऐसा जलजला आयेगा कि उसमें सभी बह जायेंगे, कोई बच नहीं पायेगा, वो दिन दूर भी नहीं।