घोर आश्चर्य? जिसे उपवास का मतलब नहीं मालूम, वो उपवास पर लेक्चर दिये जा रहा है
आजकल दो उपवासों का चर्चा पूरे भारतीय समाज में खूब उछाला जा रहा हैं। एक कांग्रेस का दलितों के नाम पर कुछ दिन पहले हुआ उपवास और दूसरा संसद नहीं चलने देने को लेकर भाजपा का उपवास। आश्चर्य इस बात की है, जिन्हें उपवास का अर्थ नहीं मालूम, वे भी आजकल धर्माचार्य बनकर खूब दिये जा रहे है, फेसबुक, व्हाट्सएप तो ऐसे धर्माचार्यों से भरे पड़े है। पूरा समाज जिनको धर्म की एबीसीडी नहीं मालूम, वे महापंडित और बड़े मौलानाओं के खेमें में बंट गये हैं, अनाप-शनाप दिये जा रहे है और इन्हें साथ मिल गया है, उन मीडिया का, जो अपनी टीआरपी के लिए भारत को रसातल में ले जाने के लिए कृतसंकल्पित हैं।
कांग्रेस के उपवास पर लोग इसलिए अंगूलियां उठा रहे हैं, कि उसके कुछ नेताओं ने उपवास पर बैठने के लिए पहले जमकर छोले-भटूरे खाये, वहीं भाजपा के उपवास पर लोग इसलिए अंगूलियां उठा रहे है कि इन्होंने भी कभी संसद को कभी नहीं चलने दिया था, जब वे विपक्ष में थे, और सच यह है कि जो अंगूलियां उठा रहे हैं, उनसे पूछिये कि उपवास का मतलब क्या होता है, तो उसका ये सही अर्थ भी नहीं बता पायेंगे, और अगर बताने की कोशिश भी की, तो यही कहेंगे कि उपवास का मतलब अन्न-जल का परित्याग, इससे ज्यादा वे कुछ कह ही नहीं पायेंगे, जबकि सच्चाई इसके भिन्न है।
सच पूछिये तो उपवास का मतलब होता है – ईश्वर के पास ज्यादा से ज्यादा समय बिताने का समय। पूर्व में हमारे पूर्वज उपवास में यहीं किया करते थे। उपवास में जाने के पूर्व वे शरीर की शुद्धिकरण के लिए अन्न-जल का परित्याग कर दिया करते थे, पर ये उनका मूल कार्य नहीं होता था, मूल कार्य होता था, अपना समय ईश्वर को देना, जिसमें वे ध्यान करना, या अपने-अपने ढंग से ईश्वर को मनाने का कार्य करते, पर अब ऐसा नहीं। समय बदला, उपवास के मायने भी बदल गये, लोग अपने-अपने ढंग से उपवास करने लगे और उसकी धारणाएं भी बदलने लगे, और इसमें कबाड़ा किसका निकल रहा है, न तो कबाड़ा भाजपा का निकल रहा है और न ही कांग्रेस का, पर इतना जरुर है कि भारत की आत्मा का कबाड़ा जरुर निकल रहा है।
एक दिन देखियेगा, कि जिस देश से विश्व के सारे देश आलोकित होंगे, वहीं विश्व के दूसरे देश, भारत में पतित हो गये लोगों को मार्ग दिखाने के लिए यहां आयेंगे, हालांकि उसके लक्षण अभी ही दिखाई पड़ने लगे हैं, जब मैं रांची की सड़कों पर कई विदेशियों को हाथों मे श्रीमद्भगवद्गगीता को लेकर प्रचार-प्रसार करते देखता हूं, जब मैं फादर कामिल बुल्के को श्रीरामचरितमानस की एक चौपाई को पढ़कर विचलित होते हुए देखता हूं।
भारत में राजनीतिक शुचिता एवं शुद्धता के लिए उपवास का प्रचलन सर्वप्रथम महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता आंदोलन के समय प्रारंभ किया था, जिसका प्रभाव स्पष्ट रुप से दिखा भी, ये अलग बात है कि गांधी के सत्य, अहिंसा और समरसता के भाव भारत के लोगों को अच्छे नहीं लगते, वे तो गांधी पर ही अंगूलियां उठाते हैं, लेकिन दूसरे देशों में गांधी पढ़े और जाने जा रहे हैं।
सर्वप्रथम हमें लगता है कि लोगों को, खासकर राजनीतिक दलों में जो शामिल लोग हैं, जिन पर देश के दारोमदार है, उन्हें गांधी के उपवास को समझना चाहिए, उन्हें गांधी के उस संवाद पर भी ध्यान देना चाहिए, जो गांधी ने कभी कहा था – “मैंने ऐसी कोई प्रार्थना नहीं की, जिस प्रार्थना को ईश्वर ने सुना ही न हो।”
जरा दिमाग पर जोर डालियेगा, विश्व में कई लोग आये और चले गये, पर महात्मा गांधी ने अपने ही समय में आंदोलन प्रारंभ किया और उसे जीवित रहने पर ही सत्य होते देखा, यहां तक की स्वतंत्र भारत में वे चाहते तो बड़ा पद लेकर प्रतिष्ठित हो सकते थे, पर उन्होंने स्वतंत्रता की कीमत नहीं वसूली। वे भारत को महान बनाना चाहते थे, चारित्रिक रुप से, सामाजिक सुधार करके, भारत के गांवो को आत्मनिर्भर बनाके, पर दुर्भाग्य है कि जिनके हाथों में सत्ता मिली, उन्होंने गांधी के ग्राम स्वराज्य को न तो देखने की कोशिश की और न ही समझने की, जिसका परिणाम हमारे सामने है, न तो हम उपवास को समझ रहे है और न ही उपवास के विश्वास को, और जब इसे समझेंगे ही नहीं तो आप किसे उल्लू बना रहे हैं, समझते रहिये।
उपवास, धरना, …..मार्च, भूख हड़ताल, आंदोलनों का उद्देश्य केवल और केवल वोट बैंक बढाना ही होता है। राष्ट्रहित या जनहित से इसका दूर का भी वास्ता नहीं होता है। मजेदार बात तो यह है कि इसमें सम्मिलित होनेवालों को कुछ पता नहीं होता। वे तो चेहरा दिखाने और कैमरे के सामने रहने का प्रयास करने में व्यस्त रहते हैं।