कुछ मत कर, लेकिन फेसबुक पर डाल, टपोरियों को अपने कृत्य दिखा, डिजिटल पुरस्कार ले, और उन पुरस्कारों को भी अपने फेसबुकिया फ्रेंड्स को दिखा
अगर आपको भी पुरस्कार या सम्मान पाने की इच्छा आपके मन में हिलोरे मार रही है, तो यह कोरोना संक्रमण काल आपके लिए बहुत ही फायदेमंद है, क्योंकि इन दिनों हर चौक-चौराहे पर कुकुरमुत्ते की तरह उगे एनजीओ, पोर्टल मीडिया व बिना काम-काज के लिए जाने जानेवाले विभिन्न तथाकथित सामाजिक/धार्मिक संगठन आपकी सेवा में हाजिर है।
इन एनजीओ, पोर्टल मीडिया व बिना काम-काज के लिए जाने जानेवाले विभिन्न तथाकथित सामाजिक/धार्मिक संगठन आपसे यह भी नहीं पूछेंगे कि आपने कुछ किया है अथवा नहीं, बस आपका चेहरा उन्हें अच्छा लगना चाहिए या वे आपको अच्छी तरह जानते हो या कभी आपने उनके साथ किसी ढाबे में चाय या कॉफी पी हो तथा उसके पैसे आपने बड़े प्रेम से चुकाये हो, फिर क्या है, देखते ही देखते आपको वह पुरस्कार या सम्मान, वह भी डिजिटल रुप में मिल जायेगा।
फिर इस डिजिटल रुप में मिले सम्मान को आप सोशल साइट पर डालकर अपना प्रचार करें, इसका फायदा यह होगा कि आपकी इस मूर्खता पर भी कुछ लोग वाह-वाह की कमेन्ट्स कर बैंठेंगे, लाइक भी मिलेगा और देखते ही देखते आपको तो लोग जानेंगे ही, उसे भी जान लेंगे, जिसको जानने की कोई आवश्यकता ही नहीं, क्योंकि डिजिटल पुरस्कार में उगे मलाक्षरों में उन संस्थानों के प्रमुखों के हस्ताक्षर बताने के लिए काफी है कि इस प्रकार के पुरस्कारों के पीछे उनकी घटिया स्तर की मंशा क्या है?
यह बात मैं इसलिए लिख रहा हूं कि इन दिनों कोरोना वॉरियर्स के नाम पर जिसे देखो, डिजिटल पुरस्कार बांट रहा हैं, ये वो लोग है, जिन्हें कभी कोई जाना ही नहीं। अगर जानते भी होंगे तो इनकी औकात कोई मुहल्ले के टपोरियों से अधिक नहीं, फिर भी इन टपोरियों से मिले डिजिटल पुरस्कारों से धन्य हो उठे, ऐसे लोगों की सोच पर हमें तरस आ रही है कि आखिर हमारा समाज जा कहा रहा है।
एक समय था, जब लोग सेवा करते थे, तो किसी को बताते नहीं थे, कि उन्होंने किसी की मदद की, क्योंकि उन्हें इस लोकोक्ति पर ज्यादा भरोसा था कि नेकी करना चाहिए पर उसे किसी के समक्ष प्रकट नहीं करना चाहिए और न ही उसका श्रेय लेना चाहिए। इसको लेकर वे लोकोक्ति भी बोला करते, कहते – नेकी कर दरिया में डाल, पर आज हमारे राज्य में एक नई संस्कृति का जन्म हुआ है, वो है – नेकी कर फेसबुक पर डाल, टपोरियों को अपने कृत्य दिखा, डिजिटल पुरस्कार ले, और उन पुरस्कारों को भी अपने फेसबुकिया फ्रेंड्स को दिखा, तथा उन फेसबुकिया फ्रेंडस से लाइक बटोर।
मैंने कई बार कहा कि आम तौर पर जो पुरस्कार देता है, और जो पुरस्कार लेता है, उन दोनों के व्यक्तित्व को देखना चाहिए कि वे हैं क्या? अगर इन बातों को समझना है तो ऐसे समझिये। मोहनदास कर्मचंद गांधी को महात्मा की उपाधि किसने दी? उत्तर है – रवीन्द्र नाथ ठाकुर। मोहनदास कर्मचंद गांधी को राष्ट्रपिता का संबोधन सबसे पहले किसने दिया? उत्तर है – नेताजी सुभाषचंद्र बोस।
अब जरा गांधी जी का राजनीतिक व्यक्तित्व देखिये और रवीन्द्र नाथ ठाकुर और नेताजी सुभाषचंद्र बोस का व्यक्तित्व देखिये, आपको पता चल जायेगा कि उपाधि देनेवाला और उपाधि प्राप्त करनेवाला दोनों महान आत्माएं थी, पर इन उपाधियों को प्राप्त करने के लिए न तो गांधी ने इन लोगों के सामने अपनी पैरवी की और न ही उन्होंने पैरवी के आधार पर गांधी को अपनी भाषा से सुशोभित किया।
अब जरा देखिये, जिन्होंने अभी कलम भी ठीक से नहीं पकड़ा है, जिन्होंने पुरस्कार की अहमियत तक नहीं जानी, जिसने जिसे कोरोना वॉरियर्स कहकर सम्मानित करना शुरु किया, वो सही मायनों में कोरोना पीड़ितों के लिए क्या किया? उसका डिटेल्स तक नहीं और लीजिये खोमचों में बिकनेवाले भूंजों की तरह डिजिटल पुरस्कार भूंजों की तरह बांट दिया। मूर्खों की जमात देखिये वे इन पुरस्कार को फेसबुक पर डाल दे रहे हैं, जैसे लगता हो कि उन्हें भारत रत्न मिल गया हो।
लानत है, ऐसे लोगों पर जो ले- दे संस्कृति के आधार पर ये डिजिटल एवार्ड की परम्परा शुरु कर, एक नई मूर्खता रुपी संस्कृति को जन्म दे दिया, जिसका नुकसान छोड़ लाभ तो है नहीं, ऐसे भी इसे कलियुग का ही प्रभाव कहा जायेगा कि जिसने एक छटाक चावल भी किसी को नहीं दिये होंगे, वह भी दानवीर बनकर कोरोना वारियर्स खुद को कहा रहा है, क्योंकि उसे एवार्ड जो मिला है।