प्रथम पुण्यतिथि: आज के दिन मैंने अरुण श्रीवास्तव को ही नहीं, बल्कि मैंने अपना सर्वश्रेष्ठ मित्र एवं भरत सा भाई भी खो दिया था
अरुण श्रीवास्तव की आज प्रथम पुण्यतिथि है। अरुण श्रीवास्तव एकमात्र मेरे घनिष्ठ मित्र रहे हैं, जिन्हें मैं जीवन पर्यन्त भूल नहीं सकता। उनके मेरे उपर कई ऐहसान रहे हैं। उन ऐहसानों को भी, मैं कभी भूल नहीं सकता। जब उनकी आज के दिन हृदय गति रुकी, तो मैं बहुत व्यथित हुआ था, वो कोरोनाकाल का समय था। कोरोना की दूसरी लहर ने कई जीवनलीलाएं समाप्त कर दी थी, पर कोरोना का असर इन पर नहीं पड़ा, ये इस समय भी, जबकि वे गंभीर रुप से बीमार थे, कई अपने मित्रों की सेवा, जहां तक भी बन पड़ा, उन्होंने की। वो कहते हैं न, “जीवन पर्यन्त सेवा”। इस संकल्प को उन्होंने आजीवन निभाया।
वे हमसे बराबर कहा करते थे, मैं अपने लिये नहीं जीता हूं, चूंकि हमारे उपर कई परिवारों का दायित्व है, उनके दायित्वों के लिए मैं जीता हूं, उन्हें खुशी होती है कि उनके परिवारों में खुशियां बिखरी रहती हैं, जब अरुण श्रीवास्तव दुनिया में नहीं रहे, और इस बात की जानकारी जैसे-जैसे लोगों को मिलती गई, सभी अवाक् रह गये, पर उनके चालक मनोज ने जो बातें उनके मरणोपरांत कही, वो संवाद आज भी मेरे जेहन में गूंजता हैं, “सर अब हम किनसे अपनी पीड़ा कहेंगे, अब तो कुछ आगे-पीछे दिखाई ही नहीं दे रहा”।
मनोज की यह पीड़ा केवल मनोज की नहीं थी, दरअसल वो पीड़ा हमारी भी थी। मैं भी अपनी पीड़ा उनसे कह दिया करता था, और वो कह दिया करते थे, चलिये देखते हैं और लीजिये वे हंसते हुए देख भी लिया करते थे। सचमुच, उनसे मेरा खून का रिश्ता नहीं रहा, पर कुछ ही वर्षों में ही उनसे ऐसा रिश्ता बना कि वो खून से भी बढ़कर हो चला था। उनसे तो मेरी पहली मुलाकात ही उस दौरान हुई, जब मैं कुछ वर्षों के लिए आईपीआरडी के निदेशक अवधेश कुमार पांडेय के अनुरोध पर सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग को अपनी सेवा देनी शुरु की थी। मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि मानवीय मूल्य क्या होता है? उनसे आराम से सीखा जा सकता था।
जब भी देखते, वे ये कहते नहीं थकते, सर समर्पण का भाव जग रहा हैं, चलिए कही समर्पण के भाव को शांत किया जाये। आम तौर पर जब वे खुश होते तो वो समर्पण हमेशा झलकता और हम दोनों कही किसी स्थान पर या कही से कुछ लाकर हल्का जलपान कर लिया करते, यही नहीं वो जानते थे कि मैं किसी का कुछ ग्रहण नहीं करता और न कुछ लेता हूं, पर पता नहीं क्यों, उनके हृदय का भाव ऐसा होता कि मुझे ना करने की, उन्हें मृत्यु पर्यन्त हिम्मत नहीं हुई और यही भाव मैं अब उनके छोटे भाई आनन्द जी में देख रहा हूं। फिलहाल उनके परिवार के सभी बच्चे अभी पढ़ाई कर रहे हैं, उनका पूरा समस्त परिवार भी मानवीय मूल्यों से ओतप्रोत है। जिसे देखकर मेरा हृदय गद्गद हो जाता है।
मैं कैसे भूल जाऊं कि मैं अपने सपनों का एक छोटा सा घर जब बना रहा था, तो मुझे पैसों की दिक्कत हो गई। एक कांग्रेसी नेता के पास गया। उससे मैंने मुंह खोला कि मुझे कुछ पैसे चाहिए, मैं एक साल के अंदर लौटा दूंगा, पर उसने पैसे नहीं दिये। शायद उसे लगा होगा कि भला एक पत्रकार इतनी राशि लेकर कैसे लौटायेगा, एक पत्रकार की औकात ही क्या है? पर अरुण श्रीवास्तव ने केवल मित्रता के रिश्ते पर एक बड़ी राशि मुझे कुछ ही दिनों में दे दी, जबकि इसके पहले भी वे एक बड़ी रकम देकर मुझे मदद कर चुके थे। मैंने भी अरुण श्रीवास्तव जी को कहा कि मैं आपके इस उपकार को नहीं भुलूंगा, जल्द ही ससमय आपको ये सारी राशि लौटा दूंगा।
अरुण श्रीवास्तव ने साफ कहा कि वे जो राशि दे रहे हैं, उसको तब मैं लौटाऊं, जब अन्य लोगों से लिया कर्ज मैं लौटा दूं, और बाद में आराम से उनकी (अरुण श्रीवास्तव की) राशि लौटाता रहूंगा, पर ये क्या वे तो भारी भरकम राशि देने के बाद कुछ महीनों में ही हम सब को छोड़ गये। मैंने उनसे कितनी राशि ली, इसकी जानकारी केवल अरुण श्रीवास्तव और शायद उनकी पत्नी तथा उनके छोटे भाई आनन्द जी को होगी तो होगी, बाकी किसी को पता भी नहीं होगा।
मरणोपरांत मैंने उनकी पत्नी और आनन्द जी को कहा कि मैंने अरुण जी से भारी भरकम राशि ली हैं, उसे मैं जल्द लौटा दूंगा, कृपया स्वीकार कीजियेगा। मुझे खुशी है कि मैं वो सारी राशि लौटा चूंका हूं, पर वो राशि अरुण जी को, उनके हाथों में देता तो मुझे बहुत खुशी होती। वे मेरे नये घर में एक-दो बार आये भी थे। मेरा पूरा परिवार आज भी उन्हें देवता से कम नहीं समझता, वो देवता अब नहीं हैं, पर उनकी यादें आज भी मेरे घर के कोने-कोने में बसती हैं। जब तक मेरा घर रहेगा, मेरे बच्चे रहेंगे, वे अरुण श्रीवास्तव के उपकार को कभी भूल ही नहीं सकते।
तभी तो जब अरुण श्रीवास्तव का आज के दिन देहांत हुआ तो दोनों बच्चों ने कहा कि पापाजी आपका तो दाहिना हाथ ही कट गया, आप ने तो अपना भाई ही खो दिया, वो भाई जो हमेशा आपके दुख-सुख में खड़ा रहा, अब क्या होगा? सर्वाधिक नुकसान तो हमलोगों का हो गया। तभी मेरे मुख् से निकला – ईश्वर तूने ये क्या किया, काश उनकी जगह मुझे उठा लिया होता, क्योंकि वो तो कई परिवारों को देखा करते थे, मैंने कितने परिवारों को देखा, मेरी तो कोई हैसियत ही नहीं। चलिए, भगवान के निर्णय के आगे सभी को नतमस्तक होना ही पड़ता है, मैं भी नतमस्तक हूं, प्रार्थना करता हूं कि उनका पूरा परिवार आनन्दमय हो, सुखमय हो, प्रकाशमय हो, प्रगति के शिखर को छूएं।