अपनी तुच्छ स्वार्थपूर्ति के लिए अखबारवालों ने मां के भक्तों की भावनाओं से खेलने में भी परहेज नहीं की
07 अक्टूबर 2019, प्रभात खबर का लाइफ रांची, पेज संख्या 20, एक खबर का हेडिंग है –पसंदीदा मंडप को वोट करें। ये समाचार है या विज्ञापन भगवान जानें। इसमें कुछ बातें लिखी हैं, जो मैं आपको बताना चाहता हूं – “प्रभात खबर की ओर से श्रेष्ठो दुर्गा पूजा प्रतियोगिता का आयोजन किया जा रहा है, निर्णायक मंडली बेस्ट लाइटिंग, बेस्ट पंडाल, बेस्ट आइडल, बेस्ट ओवरऑल, इको फ्रेंडली, पालिथीन मुक्त और सबसे स्वच्छ पंडाल की श्रेणी में अपना निर्णय लेगी। श्रद्धालुओं को अपने पसंदीदा पंडाल को जिताने के लिए व्हाट्सएप के माध्यम से वोट करना पड़ेगा।”
इसके लिए प्रायोजक भी नियुक्त किये गये है, जिनके नाम इस प्रकार है – प्रेमसंस मोटर, नेक्सा प्रेमसंस और वेद टेक्सटाइल एंड अपैरल। इस कार्यक्रम के लिए जज भी नियुक्त है, उनके नाम भी अखबार ने प्रकाशित किये हैं – ये हैं महुआ माजी, विकास सिंह, हरेन ठाकुर, अमिताभ मुखर्जी और वेद मिनोचा। साथ ही व्हाटसएप करने के लिए बहुत सारे पूजा समितियों के नाम और उनके कोड भी दिये गये हैं, जिसे श्रद्धालु प्रभात खबर को व्हाट्सएप के द्वारा मैसेज करेंगे।
हां, एक बात और अखबार ने सेल्फी विद् पूजा पंडाल का भी पुरस्कार रखा हैं। हम आपको बता दें कि ऐसे कार्यक्रम केवल प्रभात खबर ही नहीं, बल्कि और अखबार वाले भी कई वर्षों से करते रहे हैं, और ये करते भी रहेंगे, क्योंकि जिन्हें जो धर्म के नाम पर करना हैं, और जिन्हें उससे जो फायदा लेना हैं, वो फायदा लेंगे, क्योंकि वे इसी के लिए पैदा हुए हैं, पर अगर आप मां के भक्त हैं, आप आध्यात्मिक हैं, आपको लगता है कि सचमुच में जगतजननी हैं, जिसके प्रकाश से आप और आपका परिवार आलोकित हैं।
आप कभी बर्दाश्त करेंगे कि आपकी जगतजननी को देख कोई अखबार या उसके द्वारा निर्धारित कोई भी व्यक्ति या समूह यह जजमेंट करें, कि आपकी मां, दूसरे अन्य पंडालों में बैठी मां से सर्वश्रेष्ठ हैं, या आप ये स्वीकार करेंगे कि अन्य पंडालों में बैठी मां, आपके पंडाल में बैठी मां से सर्वाधिक श्रेष्ठ हैं, या आप ये दावे के साथ कह सकते है कि महासप्तमी, महाष्टमी या महानवमी के दिन जो श्रद्धालु विभिन्न पंडालों में पहुंचते हैं, वे मिट्टी की प्रतिमाओं को देखने जाते हैं और अगर नहीं तो फिर इस प्रकार के प्रचलन पर आप मौन क्यों हैं?
क्या आप इन तीन दिनों में मां को मां न मानकर सिर्फ मिट्टी की प्रतिमा मानते हैं और यह कहते हैं कि ये प्रतिमा अन्य प्रतिमाओं से श्रेष्ठ हैं, और अगर आप इन जजों के द्वारा जांच करने को सही मानते हैं तो आप क्या सचमुच माता की आराधना कर रहे हैं या आपकी शक्ति की आराधना पर कोई प्रश्न चिह्न लगा रहा हैं?
हमारा मानना है कि हम धर्म को सही दिशा में न ले जाकर, उसमें आ रही विकृतियों को मजबूती प्रदान कर रहे हैं, अगर दुर्गा पूजा को दुर्गा पूजा ही रहने दिया जाय और उसे दुर्गा पूजा की तरह मनाया जाय, तो ठीक हैं, पर उसे बाजार का रुप दिया जायेगा तो बाजार की क्या हालत होती हैं, उसमें क्या बुराइयां होती हैं, वह भी सम्मिलित हो जायेगी, इसलिए हमें इन सभी बुराइयों से तौबा करनी चाहिए।
ये कैसे हो सकता है कि एक मां का भक्त अपनी पंडाल को बेहतर और दूसरे मां के भक्त के पंडाल को उसके पंडाल से कमतर मानेगा, अरे वो तो जगतजननी हैं, वह हर जगह विद्यमान हैं, एक साधारण पुरुष और साधारण नारी, अध्यात्म की दिव्यता से विभूषित किसी भी पंडाल या पूजा पद्धति या मां की प्रतिमा को बेहतर कैसे आंक सकता हैं, एक लोकोक्ति हैं कि हीरे की पहचान जौहरी कर सकता हैं, तो फिर प्रभात खबर बताएं कि उसने जो जज नियुक्त किये, उन्हें वह कहां से वो दिव्य आंखे दिलवा दी, जो हमारी मां जगतजननी की दिव्यता का आकलन कर सकें और ये कैसे जज हैं, जो मां की दिव्यता का आकलन करने के लिए निकल पड़े।
आखिर जिनकी कृपा से जिन प्रायोजकों को धन प्राप्त हुआ हैं, वो अपने धन को मां की भक्ति की जगह, उसकी सुन्दरता, उसकी भव्यता के आकलन की प्रतियोगिता पर पैसे कैसे लूटा सकते हैं? क्या हम दुर्गा पूजा किसी अखबार द्वारा पुरस्कार प्राप्त करने के लिए मनाते हैं, और अगर यहीं मनाने का आधार हैं, तो फिर दुर्गा पूजा तो हम मना नहीं रहे हैं, हम तो दुर्गा पूजा के नाम पर अखबार एवं उनके द्वारा नियुक्त जजों को रिझाने के लिए ऐसी विकृतियों को हवा दे रहे हैं।
आजकल मैं देख रहा हूं कि जितना धर्म के नाम पर सनातन संस्कृति को तबाह किया जा रहा हैं, उतना किसी धर्म में नहीं दिख रहा, जिसे देखों अपने ढंग से इस धर्म की व्याख्या कर दे रहा हैं और उसके गुप्त रहस्यों और पूजा पद्धति से खेल जा रहा हैं, तथा इसे सिर्फ धन इकट्ठे करने का माध्यम बना दे रहा हैं, नहीं तो अखबार बताये कि इस प्रकार की प्रतियोगिता आयोजित करने का उसका मुख्य उद्देश्य क्या है? दुर्गापूजा महोत्सव को बढ़ावा देना या उसके नाम पर अपने संस्थान के लिए अच्छी राशि इकट्ठी करना।
क्या हम अपनी तुच्छ स्वार्थ के लिए अपनी महाशक्ति मां तथा उनके भक्तों के भावनाओं के साथ खिलवाड़ नहीं कर रहे? क्या इससे आनेवाली पीढ़ी धर्म व संस्कृति के जगह इसे प्रतियोगिता का सिर्फ माध्यम नहीं मान लेगी? आखिर इसके खिलाफ आवाज कौन उठायेगा? कौन ऐसी विकृतियों के खिलाफ बोलने को आगे आयेगा? जो धर्म के ठेकेदार हैं, वे तो बोलेंगे नहीं, क्योंकि उन्हें छपास की बीमारी हैं, अगर वे इसके खिलाफ बोलेंगे तो अखबार वाले तो उनकी दुकानदारी बंद कर देंगे, ऐसे में बोलने का सामर्थ्य तो उसी के पास होगा, जो सचमुच धर्म के मूल स्वरुप को समझता या जानता हो तथा उसे इसकी चिन्ता न हो कि भविष्य में कोई अखबार उसे अपने पृष्ठों पर स्थान देगा या नहीं, और फिलहाल ऐसे लोगों का समाज में घोर अभाव है।
पाखण्ड से गुप्त हुए सद्ग्रन्थ, सदर्थ अनर्थ पक्का है