कृषि विधेयक को लेकर राज्यपाल और CM आमने-सामने, एक बिल के पक्ष में तो दूसरा उलगुलान की दे रहे धमकी
झारखण्ड की राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू पिछले दिनों केन्द्र सरकार द्वारा संसद में पारित कराये गये कृषि बिल के पक्ष में खुलकर सामने आ गई है। राज्यपाल की नजरों में संसद से पारित कृषि विधेयक भारतीय किसानों के हित में हैं। राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू का मानना है कि जब भी कोई नई चीज, नियम आता हैं तो लोगों को स्वस्थ वातावरण में इस पर चर्चा करनी चाहिए, भ्रांतियों से दूर रहना चाहिए, क्योंकि लोकतंत्र में कोई भी नियम, राष्ट्र एवं जनता के लाभ के लिए निर्मित किये जाते हैं।
राज्यपाल ने खुलकर कहा कि किसानों के हितों को देखते हुए ही संसद में कृषि बिल पारित कराये गये हैं। इस नये कृषि बिल से किसानों को फायदा होगा। कृषि मंडियों में पूर्व की तरह काम चलता रहेगा। राज्यपाल की नजरों में यह 21वीं सदी के लिए कृषि कार्यों में लगे लोगों के लिए आवश्यक था। किसान अपनी शर्तों पर फसल बेचेंगे। एमएसपी से पहले से ज्यादा कीमतें मिल रही है। कृषि मंडियों को आधुनिक बनाने का काम किया गया है, कृषि मंडियों को समाप्त करने की बात भ्रामक है।
राज्यपाल का कहना है कि इस बिल की एक सबसे बड़ी विशेषता है कांन्ट्रैक्ट फार्मिंग या अनुबंध आधारित कृषि का नियमन। यह व्यवस्था कई स्थानों पर प्रचलित है, किंतु असुरक्षा के घटकों को ध्यान में न रखने के कारण किसानों को अतिरिक्त जोखिमों का सामना करना पड़ता है। इस विधेयक द्वारा सहकारिता आधारित खेती और निजी क्षेत्रों को प्रवेश देकर जोखिम और असुरक्षा के कारक को खत्म कर किसानों के हितों का संरक्षण और उनके सशक्तिकरण का प्रावधान किया गया है।
राज्यपाल ने साफ कहा कि इन विधेयकों को पारित होने के बाद किसान अपनी मर्जी का मालिक होगा। अब व्यापारी मंडी से बाहर भी किसानों की फसल खरीद सकेंगे। कुल मिलाकर राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू की नजरों में केन्द्र द्वारा पारित कृषि विधेयक से किसानों को हर हाल में लाभ है, इसलिए इसका समर्थन करना चाहिए, लेकिन इसके ठीक विपरीत राज्य के मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन खुलकर कह रहे है कि इससे किसानों को हानि छोड़ लाभ नहीं होगा, कृषि कार्यों में लगे लोग बेकार और बर्बाद हो जायेंगे, इसलिए केन्द्र द्वारा पारित कृषि विधेयकों के खिलाफ उलगुलान ही एक मात्र संघर्ष का तरीका बचा है।
आम तौर पर राज्य में उलगुलान अब सामान्य संवाद हो चुका है। जिसे देखिये, वह इस शब्द का प्रयोग करता है, पर मुख्यमंत्री द्वारा इस शब्द का प्रयोग काफी मायने रखता है। लेकिन उसके लिए राज्य के मुख्यमंत्री को कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी, कृषि कार्य में लगे लोगों, किसानों-मजदूरों को उन तक यह बातें पहुंचानी होगी कि आखिर क्यों यह बिल उनके लिए बर्बादी का सामान लेकर आया है और क्यों इसके खिलाफ उलगुलान की आवश्यकता है, अगर वे ऐसा नहीं करते, तो फिर इस उलगुलान शब्द का कोई मायने या अर्थ नहीं रह जाता।
जानकार बताते है कि देश में केवल पंजाब व हरियाणा के ही किसान सजग है, और वे केन्द्र सरकार के इस निर्णय के खिलाफ सड़कों पर उतरे हैं, जबकि देश के अन्य प्रदेशों में रहनेवाले किसान इस विधेयक के खिलाफ मुखर नहीं है। जानकार बताते है कि इसका मतलब यह नहीं कि वे केन्द्र सरकार के द्वारा पारित विधयेकों के समर्थन में है, दरअसल यह कृषि विधेयक कैसे उनके लिए लाभप्रद है और किन कारणों से उनके लिए यह खतरनाक है, इसकी जानकारी अभी नहीं हुई।
कालांतराल में जैसे-जैसे समय बीतेगा, कानून बन जाने के बाद इसके प्रभाव देखने को मिलेगे, तब जाकर किसानों का रुख पता चलेगा, फिलहाल तो केन्द्र सरकार के निर्णयों के खिलाफ ज्यादातर राजनीतिक पार्टियां ही इस पर मुखर है, जिसके कारण लोगों को लगता है कि राजनीतिक फायदों के लिए ऐसा वे कर रहे हैं। आज भी जिन राज्यों में भाजपा का शासन नहीं हैं, जैसे महाराष्ट्र, दिल्ली, झारखण्ड आदि राज्य वहां भी किसानों का आक्रोश अभी देखने को नहीं मिला और न ही 25 सितम्बर को उनके द्वारा किये गये भारत बंद का कहीं कोई असर ही दिखा, इसलिए झारखण्ड के मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन सचमुच में इस मुद्दे पर मुखर हैं तो उन्हें बताना होगा, कि आखिर क्यों? हालांकि कारणों की संख्या भी अनगिनत है।
मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने कृषि बिल को लेकर कहा कि केंद्र की मनमानी ऐसे ही चलती रही तो राज्य में उलगुलान होगा। लोग सड़कों पर उतरने को मजबूर होंगे। उनका यह भी कहना था कि कृषि बिल में किसानों के हित की बात का कोई अता–पता नहीं है। बिल को किसान विरोधी बताते हुए उन्होंने कहा कि इससे सिर्फ व्यापारियों, कंपनियों को फायदा होगा। मुख्यमंत्री ने कृषि बिल को देश के संघीय ढांचे पर सबसे बड़ा आघात बताते हुए कहा कि एक तो केंद्र सरकार ने राज्य के विषय पर अतिक्रमण कर कानून बनाया और दूसरी ओर राज्यों से इस संबंध में जरुरी मशविरा तक नहीं किया।
उन्होंने कहा कि अगर कानून बनाया भी, तो उसे लागू करना राज्यों पर छोड़ना चाहिए था, ताकि बिल के गुण–दोष की विवेचना कर राज्य उसे लागू करने के लिए स्वतंत्र होते। लेकिन, केंद्र सरकार तानाशाही रवैया अपनाते हुए उसे राज्यों पर थोप रही है। हेमंत सोरेन ने कहा कि कृषि बिल से एक बार फिर महाजनी प्रथा लागू होगी। वही महाजनी प्रथा जिसके खिलाफ झारखंड के लोगों ने वर्षों आंदोलन किया। उसे जड़ से उखाड़ने का काम किया। उन्होंने कहा कि ये महाजन ही अनुबंध पर किसानों की खेत में फसल लगवायेंगे और फसल का मनमर्जी मूल्य तय करेंगे। क्योंकि कृषि बिल में यह स्पष्ट नहीं है कि अनुबंध पर किसानों के खेत में फसल लगवानेवाले फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य देंगे।
मुख्यमंत्री ने कहा कि इस कृषि बिल से जमाखोरों की बन आएगी। जमाखोरी पर अंकुश खत्म होने से महाजन मनमाना मूल्य निर्धारित करने लगेंगे। उन्होंने चाणक्य के कथन का उदाहरण देते हुए कहा कि जिस देश का राजा व्यापारी होगा, उस देश की जनता भिखारी ही होगी। उन्होंने आलू–प्याज की बढ़ती कीमतों का जिक्र करते हुए कहा कि हमें कब क्या खाना है, उसे भूलना पड़ेगा।
मुख्यमंत्री ने कहा कि प्रधानमंत्री ने येन–केन–प्रकारेण संविधान से प्रदत शक्तियों का दुरुपयोग कर कृषि बिल को संसद से पारित कर किसानों पर थोपा है। यही कारण है कि देश के तमाम राज्यों के किसान आंदोलित हैं। उन्होंने कहा कि समझ में नहीं आ रहा कि प्रधानमंत्री देश को किस दिशा में ले जाना चाहते हैं। पहले जीएसटी, कोल निलामी, शिक्षा नीति आदि पर एकतरफा फैसला लिया और अब कृषि बिल पर भी वही रवैया अपनाया है।