काश, हमारे देश या रांची में भी हांगकांग के “एप्पल डेली” जैसा समाचार पत्र प्रकाशित हो रहा होता
कल यानी 25 जून को रांची से प्रकाशित हिन्दी दैनिक “प्रभात खबर” के देश-विदेश पेज पर ब्रीफ न्यूज में एक खबर छपी। जिसकी हेडिंग थी – “एप्पल डेली के अंतिम संस्करण की प्रतियां हाथोंहाथ बिकीं”। समाचार इस प्रकार था – हांगकांग में लोकतंत्र समर्थक ‘एप्पल डेली’ का अंतिम प्रिंट संस्करण खरीदने के लिए गुरुवार तड़के ही लोगों की कतारें लग गयीं और महज कुछ घंटे में ही 10 लाख प्रतियां बिक गयीं, आम तौर पर अखबार की 80,000 प्रतियां ही छपती थीं। अखबार ने 23 लाख डॉलर की संपत्ति फ्रीज होने, कार्यालय की तलाशी और पांच शीर्ष संपादकों की गिरफ्तारी के बाद अखबार को बंद करने का फैसला लिया है।
अब यही सवाल रांची या देश के महानगरों से प्रकाशित होनेवाले तथाकथित स्वयं को सर्वश्रेष्ठ घोषित करनेवाले आज के अखबारों/चैनलों/पोर्टलों से, कि क्या उनमें इतनी हिम्मत है, जितनी हिम्मत हांगकांग से निकलनेवाली लोकतंत्र समर्थक “एप्पल डेली” ने दिखाई। धन्य है हांगकांग की जनता और धन्य है वहां का यह अखबार, जहां “एप्पल डेली” जैसा अखबार था, जिसने अखबार को बंद कर देने की जहमत उठाई, पर आतताई सरकार के आगे झूकी नहीं।
अरे इतिहास तो वहीं लिखते हैं, जो झूकते नहीं, जो झूक गया, वो इतिहास क्या लिखेगा? जरा सोचिये “एप्पल डेली” की 80,000 प्रतियां हमेशा छपती थी, लेकिन जिस दिन इसका अंतिम दिन था, दस लाख प्रतियां बिक गई और लोगों ने पंक्तिबद्ध होकर खरीदी, शायद वो इस ऐतिहासिक अखबार के अंतिम पृष्ठ को सम्मान देने के साथ-साथ इसके अंतिम पल के गवाह बनने को इच्छुक/उत्सुक थे।
क्या रांची या देश के अन्य महानगरों में छपनेवाले अखबारों ने अपनी ऐसी हैसियत बनाई है कि लोग उसके अंतिम अखबार को खरीदने के लिए लोग पंक्तिबद्ध हो जाये और लाखों प्रतियां खरीद लें। उत्तर है – नहीं, क्योंकि आज देश का वर्तमान पत्रकार रीढ़विहीन हो चुका है, वो सत्तापक्ष-विपक्ष में बंट चुका है, और मैं कहता हूं कि पत्रकार को सत्ता-विपक्ष से क्या मतलब, जो सच हैं, उसे स्थान दो, लेकिन यहां तो नेताओं की नौकरी करनी है, वो भी पत्रकारिता की आड़ में।
तो ऐसे में क्या होगा? वही होगा, जो हो रहा है, नेताओं के टूकड़ों पर पलकर अपना आशियाना बनायेंगे, राज्यसभा में जायेंगे, नेताओं के पीछे खड़े होकर सेल्फी लेंगे, फोटो खिचवायेंगे, लेकिन एप्पल डेली जैसा काम न करेंगे और न करने का जोखिम उठायेंगे।शानदार, जानदार, प्रशंसनीय हांगकांग का अखबार “एप्पल डेली” आपने इतिहास बना दिया। आप पर कितने जुल्म हुए, पर उफ्फ तक नहीं की। आपने अपने गले में फांसी का फंदा स्वीकार किया, पर लोकतंत्र व मानवीय मूल्यों से कोई समझौता नहीं किया, मैं जब तक जीवित हूं, आपके इस पत्रकारीय निष्ठा के प्रति हमेशा कृतज्ञता ज्ञापित करुंगा।
जरा सोचियेगा, चीन की घटियास्तर-वामपंथियों की सरकार ने अखबार की 23 लाख डॉलर की संपत्ति फ्रीज कर दी। जब मन किया कार्यालय की तलाशी ली और यही नहीं, पांच शीर्ष संपादकों को गिरफ्तार भी कर लिया, फिर भी इस जूल्म के आगे “एप्पल डेली” नहीं झूका और न ही किसी वामपंथी नेता तथा चीनी समर्थक बुद्धिजीवियों ने भारत में इस जुल्म का प्रतिकार किया या मुंह खोला।
चीन ही जिनके माई बाप है वो चीन के खिलाफ बोलने की हिम्मत कैसे कर सकते हैं ? 1962 को एकबार भूल जाइये पर 2019 में एक बार फिर चीन ने लद्दाख में घुसपैठ की तो भी किसी वामपंथी ने चीन की आलोचना नहीं की । राहुल गांधी भी मोदी की आलोचना करते रहे , उनसे सवाल करते रहे पर एक बार भी चीन के खिलाफ कुछ भी नहीं कहा ।