अगर पुरानी पेंशन नीति की ओर लौटना अब संभव नहीं, तो फिर आप जैसे नेता इसका मोह क्यों रखे हुए हैं हरिवंश जी?
हरिवंश नारायण सिंह उर्फ हरिवंश राज्य सभा के उप-सभापति हैं। ये बिहार की घोर जातिवादी पार्टी जनता दल यूनाइटेड की टिकट पर राज्यसभा सीट पर निर्वाचित होकर दिल्ली की संसद तक पहुंचे है। नीतीश कुमार इनके आदर्श हैं। मूल रुप से ये पत्रकार हैं, पर इनकी महत्वाकांक्षा राज्यसभा तक ले आई। किसी भी व्यक्ति के लिए किसी भी प्रकार की महत्वाकांक्षा रखना और उसे प्राप्त करना किसी भी दृष्टिकोण से गलत नहीं हैं।
पर जब आप उच्च पद पर पहुंचते हैं तो आप कई के आदर्श हो जाते हैं, लोग आपके पद चिह्नों पर चलने को सोचते हैं, इसलिए ऐसे लोगों को कोई भी बातें कही भी रखनी चाहिये तो सोच समझ कर रखनी चाहिये कि उसका प्रभाव आम आदमी पर कैसा पड़ेगा? जैसे 24 जून 2022 का दैनिक भास्कर ही पढ़ लीजिये, जिसमें नजरिया कॉलम में हरिवंश के दो कॉलम में आर्टिकल छपी है।
मूलतः ये आर्टिकल पेंशन को लेकर हैं, जिसमें उनका मानना है कि पुरानी पेंशन नीति की ओर लौटना अब संभव नहीं हैं। हालांकि मैं भी इस बात को स्वीकार करता हूं कि देश की जो आर्थिक स्थिति हमारे माननीयों ने कर दी हैं, उस हालात में पुरानी पेंशन नीति को लागू कर पाना संभव नहीं हैं और अगर ऐसा कभी होता हैं तो देश के लिए ये नुकसान छोड़ फायदेमंद नहीं होगा।
हरिवंश ने हालांकि अपने इस आर्टिकल को लिखने के दौरान कई दृष्टांत दिये हैं, उन दृष्टांतों का भी मैं समर्थक हूं। जैसे – “जो नीतियां भावी पीढ़ियों की कीमत पर मौजूदा पीढ़ी को सुविधाएं दे रही हैं, चलेंगी नहीं।” जैसे – “पिछले दिनों एक सेवा निवृत्त आईएएस अधिकारी से बात हुई। उन्हें रिटायर हुए दो दशक से अधिक हो गये हैं। बड़े पद पर थे। ढाई लाख से ज्यादा पेंशन मिलती है। स्वास्थ्य सुरक्षा अलग से।
जबकि पूर्व राष्ट्रपति डा. एपीजे अब्दुल कलाम कहा करते थे कि हम आज अपना कुरबान करें, ताकि हमारे बच्चे सुखद भविष्य पा सकें।” जैसे- “अगर केवल छह फीसदी सरकारी कर्मचारियों पर सरकारी आमद का 60 फीसदी खर्च होगा और शेष 94 फीसदी जनता पर महज 40 फीसदी तो फिर विकास और कल्याणकारी योजनाओं के पैसे कहां से आयेंगे।”
और अब इन्हीं बातों को लेकर मेरा सवाल राज्यसभा के सर्वाधिक बुद्धिमान व महान उपसभापति हरिवंश जी से, यही बात तो माननीयों पर भी लागू होती हैं, माननीय तो आप समझते ही होंगे, हरिवंश जी। माननीय शब्द का प्रयोग आप भी उपसभापति के पद पर रहते हुए खुब प्रयोग करते हैं। आखिर इन्हीं बातों को ध्यान में रख, ये सांसदों-मंत्रियों-विधायकों, प्रधानमंत्रियों-मुख्यमंत्रियों का समूह अपने लिए वेतन और पेंशन से तौबा क्यों नहीं कर लेता?
अरे ये तो सरकारी नौकर भी नहीं, ये तो जनप्रतिनिधि हैं, जनप्रतिनिधियों को वेतन और पेंशन से क्या मतलब? आखिर जिस अटल बिहारी वाजपेयी ने नई पेंशन स्कीम लागू की, वहीं अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने लिए या अपने जैसे नेताओं के लिए, जनप्रतिनिधियों के लिए न्यू पेंशन स्कीम लागू क्यों नहीं किया? ये सवाल तो हम आपसे पूछेंगे ही, जनता पूछेगी ही, आप चाहे जवाब दे या न दें, इससे जनता को क्या मतलब?
कमाल है सासंद महाराज को तो सांसद कोटे की राशि भी मिलती हैं और उन्हें इसी सांसद कोटे की राशि का कमीशन पिछले दरवाजे से प्राप्त भी हो जाता हैं, जिससे वे दुनिया की सारी खुशियां प्राप्त कर लेते हैं और अपनी जय-जयकार भी मूर्ख बनी हुई जनता से कराते/करवाते हैं, आपको तो खुद भी पता होगा कि आपको ही वेतन के नाम पर कितने और किस-किस प्रकार के भत्ते मिलते हैं, जो अनावश्यक भी हैं, पर आपने कभी ये कहा कि मुझे ये सब नहीं चाहिए, ठीक उसी प्रकार जैसे तीन-तीन बार सांसद और तीन-तीन बार विधायक रहने के बावजूद एके राय जैसे व्यक्तित्व ने न तो वेतन लिया और न ही पेंशन लिया।
होना तो ये चाहिए था कि आप ये सब लिखने के पहले एक मिसाल कायम करते, क्योंकि मैं आप में यही सब देखना चाहता हूं, ये आर्टिकल लिखने से क्या होगा, ये तो जनता और देश दोनों को धोखा देने जैसा हैं। भगवान ने आपको किस चीज की कमी दी हैं, सारी भौतिक परिसम्पतियां तो आपसे पास हैं ही, आप अपने कीर्तियों से देश व जनता को राह दिखाइयें और कहिये कि जैसे आम जनता को विकास और कल्याणकारी योजनाओं का लाभ मिलना चाहिए और उसके लिए जैसे पुरानी पेंशन योजना को बंद कर दिया गया।
ठीक उसी प्रकार हम नेता, हम पत्रकार से नेता बने नेता, संकल्प करते हैं कि हम भी पुरानी पेंशन योजना का लाभ नहीं लेंगे, चूंकि हम सरकारी नौकरी में नहीं, बल्कि जनप्रतिनिधि हैं, इसलिए वेतन भी नहीं लेंगे पर आप ये सब कर पायेंगे, क्योंकि ये सब करने के लिए दृढ़ संकल्प लेनेवाली इच्छाशक्ति का होना आवश्यक हैं, जो हमें लगता है कि आप में नहीं हैं।
मैं तो देख रहा हूं कि उप-सभापति बनने के बाद आप में काफी परिवर्तन आया है, जो देश व समाज के लिए ही नहीं बल्कि आप जैसे व्यक्ति के लिए भी ठीक नहीं है, क्योंकि आज लिखने या बोलने का वक्त नहीं, बल्कि कर के दिखाने का वक्त है, ताकि मैं ये कह सकूं कि ए के राय के बाद एक और व्यक्ति हरिवंश निकलें, जिन्होंने स्वेच्छा से देश हित में वेतन और पेंशन दोनों न लेने की ठान ली हैं, क्या ऐसा कर पायेंगे?
अरे करिये न, भगवान ने आपको किस चीज की कमी दे रखी है। आपके नेता नीतीश कुमार तो बार-बार कहते है कि कफन में पॉकेट नहीं होता, पर उनकी भी इतनी हिम्मत नहीं कि वे खुद को ओपीएस से बाहर निकालकर, एनपीएस का हाथ थाम लें। खैर जो करना है करिये, लिखते रहिये, पर ईश्वर सब देख रहा हैं, उससे भला आज तक कौन बचा है?