धर्म के मूल स्वरुप को नहीं समझनेवाली पूजा समितियां अगर पूजा समिति तक ही रहे तो ठीक हैं, अगर धर्माचार्य बनेंगे तो धर्म का नुकसान ही करेंगे
पूजा समितियां अगर पूजा समिति तक ही रहे तो ठीक है, अगर धर्माचार्य बनने की कोशिश करेंगे तो धर्म का नुकसान होना तय है, क्योंकि धर्म के मूल स्वरुप को न तो वे जानते हैं और न जानने की कोशिश करते हैं, अगर वे धर्म के मूल स्वरुप को जानते तो वे बेवजह की बातों पर न तो चर्चा करते और न ही माता के मूल स्वरुप और आकृतियों से छेड़-छाड़ करते।
यह मैं इसलिए लिख रहा हूं कि आज ही प्रभात खबर अखबार में प्रथम पृष्ठ पर ‘सात को विसर्जन पर फैसला आज’ नाम के हेडिंग से एक छोटी सी खबर छपी है, खबर तो छोटी है, पर इसका प्रभाव व्यापक है। इस समाचार को पढ़कर पता चला कि रांची जिला दूर्गा पूजा समिति के संयोजक मुनचुन राय व अध्यक्ष अशोक चौधरी का कहना है कि कोरोना के कारण दो साल बाद दुर्गोत्सव का भव्य आयोजन हो रहा है। ऐसे में मंगलवार को भी बारिश हुई, तो पूजा एक दिन के लिए आगे बढ़ा दिया जा सकता है। तब विसर्जन गुरुवार की जगह शुक्रवार को किया जायेगा। वैसे मंगलवार को शहर की पूजा समितियों की बैठक होगी। इसमें सर्वसम्मति से इस संबंध में फैसला लिया जायेगा।
अब सवाल उठता है कि जब अध्यक्ष व संयोजक ने निर्णय ले ही लिया हैं तो ये सर्वसम्मति क्या होती है? कौन ऐसी पूजा समितियां है, जो कहेंगी कि नहीं गुरुवार को ही हम विसर्जन करेंगे, उनका तो मन चलें तो दो दिन और बढ़ा देंगे, ऐसा कई बार देखा गया है। लेकिन मेरा शत प्रतिशत दावा है कि रांची की दुर्गाबाड़ी जो विशेष तौर पर पारंपरिक प्रतिमा व विशेष पूजा के लिए जानी जाती हैं, वो निश्चय ही किसी की बात नहीं मानेंगी, धर्मानुसार आचरण करते हुए माता दुर्गा और उनके परिवार की प्रतिमाओं का विसर्जन बुधवार यानी पांच अक्टूबर को ही करेंगी, क्योंकि दुर्गाबाड़ी से जुड़े लोग धर्म के मूलस्वरुप और माता के तीनों चरित्रों की पूजा-अर्चना कैसे की जाती हैं, वे विशेष तौर पर जानते हैं।
लेकिन और जगहों पर देखा गया है कि पूजा गौण हो जाती हैं और मां की प्रतिमाएं और मां के दरबार जिन्हें पंडाल कहा जाता हैं, वे प्रदर्शनी की वस्तु मात्र बन कर रह जाती हैं, ऐसे में इन पूजा समितियों का निर्णय या कोई कार्य धर्मानुसार हैं या नहीं, वे खुद समझें तो बेहतर रहेगा। हालांकि मां की प्रतिमा और पंडाल को प्रदर्शनी की वस्तु बनाने में कुछ अखबारों की भी संलिप्तता हैं, क्योंकि ये धर्म की आड़ में मां दुर्गा की बेहतर प्रतिमा, बेहतर पंडाल आदि को लेकर पूजा समितियों को पुरुस्कृत करते हैं।
इसमें उनका फायदा भी छुपा रहता हैं, क्योंकि इसी के नाम पर वे कई संस्थानों से एक मोटी रकम वसूलते हैं और और उन वसूली गयी रकमों से अपना और अपने संस्थान का भला करते हुए, पीतल की कुछ छोटी -बड़ी आकृतियां इन पूजा समितियों को थमा देते हैं, जिसे पाकर ये पूजा समितियां स्वयं को कृतार्थ हुआ समझती हैं, जबकि धर्मानुसार देखें तो दुर्गा-पूजा हो या कोई अन्य पूजा उसमें बाह्यांडबर की कोई आवश्यकता ही नहीं होती, पर क्या करें अर्थ युग हैं, तो ये सब करना ही होगा, शायद ये लोग यहीं समझते हैं।
पूजा समितियों के अध्यक्ष/संयोजक को लगता है कि भारी बारिश हो रही है, अखबार को लगता कि साइक्लोनिक सर्कुलेशन से झारखण्ड में बारिश हो रही हैं, पर जो भारतीय संस्कृति को जानते हैं, वे आज भी कहते है कि फिलहाल हस्त नक्षत्र, जिसे गांवों में हथिया नक्षत्र कहते हैं, चल रहा है और इस नक्षत्र में पंचाग कहता है कि भारी बारिश के योग हैं, ऐसे भी जो पुरनियां हैं, वे आज भी कहते है कि कनवा-हथिया न बरसे, ऐसा हो ही नहीं सकता, और अगर नहीं बरसा तो समझ लो धान की फसल गया काम से।
संयोग से इस बार दुर्गा-पूजा हथिया नक्षत्र में आ गया, तो दुर्गा पूजा को बारिश में प्रभावित होना ही था, फिर आप ये कहेंगे कि बारिश हो रहा हैं, इसलिए हम गुरुवार को विसर्जन न कर, शुक्रवार को करेंगे तो भाई पूजा समिति के लोगों, जिन विद्वानों से आप पूजा करवाये हो, उन्हीं से पूछ लो कि मां का विसर्जन या विदाई किस नक्षत्र में किया जाता हैं, तो वे बोलेंगे – श्रवण और श्रवण नक्षत्र शुक्रवार को रहेगा ही नहीं, श्रवण नक्षत्र तो बुधवार यानी पांच अक्टूबर को रात्रि के 09.25 पर ही खत्म हो जायेगा, फिर उसके बाद धनिष्ठा चढ़ जायेगा और धनिष्ठा से लेकर रेवती यानी पांच दिनों तक ये पंचक नक्षत्र रहेंगे तो क्या पंचक में किसी भी सामान्य लड़की की विदाई होती हैं, और नहीं तो फिर मां की विदाई कैसे हो जायेगी?
अरे आपने मां को भैसा पर खड़ा कर दिया, यानी जो सिंहवाहिनी थी, उसे भैसावाहिनी बना दिया और अब पंचक में चल दिये मां की विदाई करने, अरे भाई थोड़ा यह भी तो सोचो, जो धर्म के प्रतिकूल आचरण करना आप लोग शुरु किये हो, ईश्वर ने आपको इसका दंड देना शुरु कर दिया तो फिर आप कहां जाओगे? दो साल कोरोना झेले, समझ नहीं आया? अरे कम से कम दुर्गासप्तशती के इस मंत्र के मूल भाव को तो समझो, शायद आपको कुछ अक्ल आ जाये…
नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः।
नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम्।।
(दुर्गासप्तशती, पंचम अध्याय, श्लोक संख्या -9)
अर्थात् देवी को नमस्कार है, महादेवी शिवा को सर्वदा नमस्कार है। प्रकृति एवं भद्रा को प्रणाम है। हमलोग नियमपूर्वक जगदम्बा को नमस्कार करते हैं।
अब इस मंत्र में जहां साफ लिखता है कि नियमपूर्वक जगदम्बा को नमस्कार करते हैं तो आप नियम के विरुद्ध कार्य क्यों कर रहे हो, क्यों नियम के विरुद्ध चलने के लिए मीटिंग बुलाते हो और उस पर अपने नियम थोपने के लिए सभी से हामी भरवाते हो। विजयादशमी पांच अक्टूबर दिन बुधवार को ही हैं, ये समझने की कोशिश क्यों नहीं करते? मां दुर्गा को प्रदर्शनी के लिए अपने मन के अनुसार कई दिनों तक रखना तो दूर, सोचना भी महापाप है, क्योंकि ये नियमविरुद्ध आचरण है।