अगर यह बैनर झामुमो के कार्यकर्ताओं ने लगाया है, तो वे झामुमो के कार्यकर्ता नहीं हो सकते, वे झामुमो के दुश्मन हैं, क्योंकि कोई भी बड़ी जीत किसी भी दल के कार्यकर्ताओं के लिए अहं का भाव प्रदर्शित करने के लिए नहीं मिलती
अगर यह बैनर झामुमो के कार्यकर्ताओं या समर्थकों ने लगाया है, तो सही मायनों में वे झामुमो के कार्यकर्ता या समर्थक नहीं हो सकते, वे झामुमो के दुश्मन हैं, क्योंकि कोई भी बड़ी जीत किसी भी दल के समर्थकों व कार्यकर्ताओं के लिए अहं का भाव प्रदर्शित करने के लिए नहीं मिलती, बल्कि जनता की सेवा के लिए, जनता के द्वारा दी जाती है।
लेकिन जब किसी को ये अहं हो जाये कि हम तो अब सर्वशक्तिमान हो गये, किसी को भी कुछ भी कह सकते हैं या गालियां दे सकते हैं तो फिर यहीं से उसके पतन की शुरुआत भी हो जाती है। ये पतन की शुरुआत इतनी तीव्रता ले लेती है कि उस व्यक्ति या दल को पता भी नहीं चलता कि कितनी जल्दी वो पतन के कगार पर पहुंच गया।
इस प्रकार के बैनर लगानेवालों को यह भी सोचना चाहिए कि भाजपा इसलिए नहीं हारी की भाजपा को लोग वोट देना नहीं चाहते थे। बल्कि भाजपा इसलिए हारी कि उसके नेताओं/कार्यकर्ताओं/समर्थकों को भी इसी प्रकार का अहं हो गया था कि वे कुछ भी करेंगे, जीत ही जायेंगे। उन्होंने इसी चक्कर में हेमन्त सोरेन को कुर्सी से उतारकर उन्हें जेल भेज दिया। एक नेता भानु प्रताप शाही ने रांची की जनसभा में कह दिया कि मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन को हमलोग गट्टा पकड़कर कुर्सी से नीचे उतार देंगे, आज जो यह डायलॉग बोला था, खुद उससे पूछिये कि वो आज कहां हैं?
जब जीत मिले तो व्यक्ति या दल को धीर-गंभीर हो जाना चाहिए। जनता द्वारा मिली जीत को जनता को ही समर्पित कर देना चाहिए, न कि उस जीत को अपनी जीत मान लेनी चाहिए। लोकतंत्र में तो हार-जीत चलती रहती है। हमेशा एक की थोड़ी ही कभी रही हैं, कभी कोई जीतता, तो कभी कोई हारता है, जीतने वाला शासन करता है और हारनेवाला जीतनेवाले पर नकेल कसता है कि कही जीत के दंभ में वो कोई ऐसी हरकत न कर डालें, जिससे जनता का नुकसान हो जाये। यही तो लोकतंत्र की खुबसुरती है।
हमने तो पढ़ा है कि व्यक्ति और दल, वही महान है, जो हार या जीत में एक समान रहे। मतलब हार से ज्यादा हताश न हो और जीत से ज्यादा गर्व न पाल लें। जरा देखिये न, 20 वर्ष तक राज करने का दंभ भरनेवाले लालू प्रसाद यादव बिहार में 20 वर्षों से कहां फेकाएं हुए हैं। क्या हालत हो गई हैं उनकी और उनके परिवार की? और इससे भी अगर आपको सबक न मिले तो राहुल गांधी को ही देख लीजिये कि एक समय इनका परिवार कितना परमानन्द में समाया रहा करता था और पिछले ग्यारह सालों से इनकी क्या स्थिति हो गई हैं? कि आज संविधान लेकर घूमने पर मजबूर हो रहे हैं और हर जगह हार ही हार उन्हें मिल रही हैं।
अब आप कहेंगे कि झारखण्ड में तो कांग्रेस जीती हैं, उसे 16 सीटें मिली हैं। अरे जनाब ये राहुल की जीत नहीं, ये शत् प्रतिशत हेमन्त सोरेन और कल्पना सोरेन के मेहनत की जीत हैं, अगर सही मायनों में राहुल का दौरा पूरे झारखण्ड में हो जाता तो झामुमो के हाथ से भी यह राज्य निकल जाता, ये मैं ऐसे ही नहीं कह रहा हूं, खांटी पत्रकार हूं। इसलिए कहता हूं कि वक्त से हर कोई डर कर रहें, वक्त हमेशा एक जैसा नहीं रहता।
मैं तो यह भी देख रहा हूं कि जो कल तक हेमन्त सोरेन और उनकी पार्टी को हराने के लिए दम भर-भर कर, पानी पी-पीकर कोसते रहते थे। आज हेमन्त जी की और उनकी पार्टी की, उनकी सरकार की जय-जयकार कर रहे हैं। अगर हमारी बात पर आपको विश्वास नहीं हो तो कल का प्रभात खबर पृष्ठ संख्या एक और नौ देख लीजिये। यहीं नहीं रांची के सारे अखबार और उनके पत्रकारों का समूह हेमन्त सोरेन के चरणों पर आज लोटने को बेताब हैं।
दैनिक जागरण का एक चिलगोजा टाइप पत्रकार तो एक पत्रकार के फेसबुक पर गर्व से लिखता है कि ‘सही है। पोस्टर लगानेवाले का समर्थन करता हूं।’ इस मूर्ख पत्रकार को यह भी नहीं पता कि ये पोस्टर है या बैनर है? लेकिन घमंड इतना इसके पोर-पोर में भरा है कि पूछिये मत। कुछ पत्रकार तो झामुमो के नेताओं के खिलाफ जो चुनाव के पहले से अभियान चलाये हुए थे, उनका अभियान अभी बंद ही नहीं हुआ हैं। हालांकि ऐसे पत्रकारों को बारे में झामुमो के नेताओं को भी जानकारी हैं। लेकिन वे चुप्पी साधे बैठे हुए हैं, क्यों बैठे हैं, भगवान जाने।
इधर कहा जाता है कि दुनिया ज्यादातर उगते सूर्य को प्रणाम करती हैं। कभी-कभार ही वो भी एक खास पर्व (छठ) में डूबते सूर्य को प्रणाम करती हैं। देखा जा रहा है कि पत्रकारों व ऐसे लोगों का समूह जो चुनाव परिणाम आने के पूर्व तक हेमन्त सोरेन व उनकी पार्टी को खुब कोसता रहता था। आजकल मुख्यमंत्री आवास और मुख्यमंत्री आवासीय कार्यालय ही नहीं बल्कि धुर्वा स्थित मुख्यमंत्री कार्यालय की परिक्रमा करने से बाज नहीं आ रहे हैं। यहीं नहीं हर वक्त उनके हाथों में बूके देखी जा रही हैं कि कब मुख्यमंत्री मिले और उनके हाथों में बूके या किताब थमाते हुए एक फोटो क्लिक करवा लें या सेल्फी ले लें तथा उसके बाद उसे सोशल साइट पर डालकर कहें कि देखो मैं कितना पावरफुल हूं।
जबकि दूसरी ओर ऐसे लोग भी हैं, जिन्होंने बिना किसी राग-लपेट के अपना काम किया, जिसका फायदा इस सरकार को भी मिला। ऐसे लोग आज तक हेमन्त सोरेन से नहीं मिल पाये हैं और न हेमन्त सोरेन के आस-पास रहनेवाले लोग उनसे मिलने दे रहे हैं। एक ने विद्रोही24 को बताया कि वो पिछले तीन महीने से मुख्यमंत्री के खासमखास व्यक्ति को फोन किया कि वो मुख्यमंत्री का समय दिलवा दें, लेकिन वो हमेशा कहता है कि पन्द्रह दिनों के बाद मिलवा देंगे, कभी कहता है कि तीन दिन बाद मिलवा देंगे, लेकिन वो समय ही नहीं दिलवा पाता। खैर वक्त-वक्त की बात है, कौन सा वक्त, कब किसके पास आ जायेगा, कौन जानता है? इसलिए वक्त का इंतजार करिये, कल किसने देखा है?
यथार्थ विश्लेषण..
नहीं कोई अस जन्मा जग माहीं।
प्रभुता पाई जाहि मद नहीं ॥