धर्म

अगर जीवन संग्राम में विजयी होना है तो परमहंस योगानन्द जी की कालजयी रचना “ईश्वर-अर्जुन संवाद” से स्वयं को जोड़े – स्वामी ईश्वरानन्द

श्रीमद्भभगवद्गीता पर तो देश और विदेश के कई संतों/महानुभावों/आध्यात्मिक पुरुषों ने अपने काल खण्ड में उस काल खण्ड के अनुरुप बहुत कुछ लिखे हैं, पर जो कालजयी रचना परमहंस योगानन्द जी ने “ईश्वर-अर्जुन संवाद” के रुप में हम सभी को दी हैं, वो अद्भुत, अविस्मरणीय व अलौकिक हैं, अगर हम सभी ने इसके अनुसार अपने जीवन को ढाल लिया तो चाहे हम कितनी भी अंतः/बाह्य कठिनाइयों से क्यों न संघर्ष कर रहे हो, हम अपनी आध्यात्मिक प्रवृत्तियों पर आरुढ़ होकर ईश्वर के साथ अवश्य एकाकार हो जायेंगे, यह अपने हाथों में हैं।

उक्त आध्यात्मिक आख्यान रांची स्थित योगदा सत्संग मठ के ध्यान केन्द्र में योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया (वाईएसएस) के वरिष्ठ संन्यासी स्वामी ईश्वरानंद गिरि ने दी। उन्होंने आज रांची ध्यान केन्द्र में आये योगदा भक्तों के साथ-साथ ऑनलाइन जुड़े, ऑनलाइन ध्यान केंद्र के माध्यम से करीब तीन हजार लोगों को भी संबोधित किया। आज का विषय भी सम-सामयिक था। विषय था – जीवन संग्राम में विजयी बनें।

उन्होंने परमहंस योगानन्द जी द्वारा लिखित “ईश्वर-अर्जुन संवाद” के माध्यम से कई तर्क प्रस्तुत किये और लोगों को संतुष्ट करने में सफल रहे कि यह पुस्तक वर्तमान में एक सामान्य नागरिक से लेकर अध्यात्म की ओर चल पड़नेवाले एक संन्यासी के लिए कितना महत्वपूर्ण है। उन्होंने बताया कि श्रीमद्भगवद्गीता महाभारत के भीष्म पर्व से लिया गया है, जिसमें 700 श्लोक हैं। यह अद्भुत गीता हमें तब प्राप्त हुआ, जब देश के सभी राजा दो भागों में विभक्त होकर कौरवों और पांडवों के रुप में कुरुक्षेत्र में आमने-सामने खड़े थे और इसी बीच अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण को कहा कि वे उसके रथ को उस जगह पर लाकर खड़ा करें, ताकि वो देख सकें कि उसे युद्ध किनसे करना है?

स्वामी ईश्वरानन्द ने कहा कि हम वेदव्यास की इस महान रचना महाभारत को प्रतीक के रुप में देखें, तो प्रत्येक साधक के मन में महाभारत की तरह युद्ध चल रहा हैं, जिस पर विजय प्राप्त करने के लिए हर साधक नाना प्रकार के यत्न कर रहा है। महाभारत एक महाकाव्य है तो महाभारत हमारे जीवन में चल रहे उस युद्ध का प्रतीक भी है। जहां एक मनुष्य स्वयं को यह तो कहता है कि – अहं ब्रह्मस्मि। मैं ईश्वर की संतान हूं, पर उस रुप में स्वयं को पहचान नहीं पा रहा, और उसकी स्थिति उसी तरह हैं जैसे पासा के खेल में फंसकर कौरवों-पांडवों ने युद्ध कर डाली, उसी तरह माया के पासा में फंसकर आम आदमी अपने जीवन को कहां ले जाना हैं, भूल जाता है।

उन्होंने कहा कि हम माया के इस पासे से निकल सकते हैं, अगर हमने अपने चार गुरुओं द्वारा दिये गये क्रिया योग व उनके द्वारा दी गई अद्भुत ज्ञान-विज्ञान के मार्ग पर चल सकें, उनका इशारा महावतार बाबाजी, लाहिड़ी महाशय, स्वामी युक्तेश्वर गिरि और परमहंस योगानन्दजी की ओर था। उन्होंने बड़े ही सुंदर ढंग से माया के प्रभाव और महाभारत के प्रसंगों को मिलाकर जन-सामान्य की उत्सुकताओं को शांत किया। उन्होंने बताया कि महाभारत में दुर्योधन – सांसारिक इच्छाओं, दुशासन – क्रोध, कर्ण – राग, द्रोणाचार्य -अच्छी/बुरी आदतों का प्रतीक है। ऐसे तो कौरवों की संख्या 100 हैं, पर आप इसे मानिये ये सभी 100 दुष्प्रवृत्तियां हैं, जिसे हम पांच पांडवों जो दिव्य शक्तियों के प्रतीक हैं, उन्हें जगाकर उन दुष्प्रवृत्तियों पर विजय पाना है, यहां हमें याद रखने की भी जरुरत है कि यहां श्रीकृष्ण परमात्मा के प्रतीक है, जहां हमें जाकर एकाकार हो जाना है।

स्वामी ईश्वरानन्द ने कहा कि दरअसल जैसे पांडव वन-वन भटक रहे थे और श्रीकृष्ण की सहायता से उन्हें अपना खोया साम्राज्य वापस मिला, उसी प्रकार हमलोग जन्म-जन्मांतर से भटक रहे हैं, उस ईश्वर को पाने को, जिसे प्रत्येक जीव को पाना है, हमें भी श्रीकृष्ण जैसा गुरु को पाकर उक्त ब्रह्म में विलीन हो जाना हैं,  उस ईश्वर के साम्राज्य में खुद को विलीन कर देना है, पर ये तभी होगा, जब हम इसके लिए जागरुक हो।

उन्होंने कहा कि जब साधक ईमानदारी से साधना करता है, प्रयास के बावजूद भी जब उसे सफलता नहीं मिलती, तब वह परमात्मा को याद करता है, जो अर्जुन की स्थिति है, क्योंकि मन जानता है कि हमें क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, हमारी मनोदशा के लिए यह ठीक नहीं हैं, फिर भी हम वो करते हैं, जो नहीं करना चाहिए, ऐसे में ईश्वर कहते है, सांत्वना देते हैं – लगे रहो और यहीं श्रीकृष्ण है। श्रीकृष्ण का मतलब ही है मन को आदर्श बना देनेवाली चेतना।

उन्होंने कहा कि परमहंस योगानन्द ने “ईश्वर-अर्जुन संवाद” ऐसे ही नहीं लिख दिया। यह ईश्वरीय चेतना थी। वे मानव-मात्र की सेवा के लिए, उसके प्रेम में अभिभूत होकर, यह अद्भुत आध्यात्मिक पुस्तक की रचना की, ताकि उसका कल्याण हो। जब वे यह पुस्तक लिख रहे थे, तब उनकी चेतना ईश्वर से एकाकार रहती थी। स्वामी ईश्वरानन्द ने “ईश्वर-अर्जुन संवाद” जब परमहंस योगानन्द लिख रहे थे, तब की अनेक घटनाओं से उन्होंने पर्दा उठाया। उन्होंने कहा कि अमेरिका के एक रेगिस्तान में जहां इस पुस्तक की रचना परमहंस योगानन्द कर रहे थे। वहां की घटनाओं का कई संन्यासियों ने अपने-अपने ढंग से इसकी चर्चा की।

एक ने कहा कि जब वे उस स्थल पर गये, जहां परमहंस योगानन्द पुस्तक लिख रहे थे, तो ऐसा लगा कि किसी अदृश्य दैवीय शक्ति ने उन्हें पीछे धकेल दिया। एक ने कहा कि उस स्थान का सौंदर्य अद्भुत था, जैसे मानों ईश्वर का दर्शन हो रहा हो। एक ने कहा कि हमने ईश्वरीय स्पन्दनों को महसूस किया। परमहंस योगानन्द “ईश्वर-अर्जुन संवाद” लिखे जा रहे थे, कही रुकावट थी ही नहीं, क्योंकि वे अविराम, अविरल, व्याख्या करते जा रहे थे, सोचने-विचारने की भी जरुरत नहीं थी, ईश्वरीय सम्पर्क से ऐसा स्वतः संभव हो रहा था। उन्होंने कहा कि परमहंस योगानन्द जी ने कहा था कि जब लोगों को यह पुस्तक मिलेगी तो उन्हें स्वतः आभास हो जायेगा कि यह पुस्तक उनके जीवन की आध्यात्मिक उन्नति के लिए कितना आवश्यक है।

स्वामी ईश्वरानन्द ने कहा कि यह पुस्तक दो खंडों में हैं, जिसमें पृष्ठों की संख्या 1300 है। हर तरह के इसमें मार्गदर्शन है। दैनिक जीवन में जो काम करता हैं, उसके लिए भी यह पुस्तक उतना ही उपयोगी है, जितना आध्यात्मिक व्यक्ति के लिए। उन्होंने कहा कि इस पुस्तक में आत्मा की यात्रा का वर्णन है। जो माया में लिप्त है, उन्हें यह साधना के माध्यम से जोड़ने का प्रयास करती है। यह गीता ऐसी है कि यह सावधान भी करता है और प्रोत्साहित भी करती है। परमहंस योगानन्द कहते है कि जैसे अर्जुन ने भगवान से संवाद किया था, ठीक उसी प्रकार आप से भी भगवान संवाद करेंगे। जैसे अर्जुन की चेतना का उत्थान भगवान ने किया, उसी प्रकार आपकी भी चेतना का वे उत्थान करेंगे। वे पक्षपात नहीं करते। सर्वोच्च आध्यात्मिक व आत्मज्ञान प्राप्त करने का अधिकार जितना अर्जुन को था, उतना आपको भी है।

स्वामी ईश्वरानन्द ने कहा कि ईश्वर उन्हीं आत्माओं को चुनते हैं, जो उन्हें चुनते हैं। हमें अपने अंदर, उन्हें पाने के भाव को जागृत करना होगा। याद रखें, हमें प्रत्येक लड़ाई खुद लड़नी है, आपके लिए आपके सद्गुरु भी लड़ने नहीं आयेंगे, लेकिन याद रखें, आपको अपनी लड़ाई में हर हाल में विजय प्राप्त करना है, और ये तभी होगा जब आप ईश्वर को पाने के भाव को जागृत करेंगे। उन्होंने कहा कि यह मत भूलिये कि चार वेदों, 108 उपनिषदों व छह शास्त्रों का सार है – गीता। विश्व के समस्त धर्मग्रंथों का निचोड़ गीता के 700 श्लोकों में निहित है। हर प्रकार की अंतः/बाह्य दोषों को निवारण करने में सक्षम है – गीता। उन्होंने गीता का प्रथम श्लोक –

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।

मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय।।

का उद्धरण देते हुए कहा कि यहां धृतराष्ट्र मन के अंधे होने का प्रतीक है, यानी मन का अंधे होने का मतलब उसमें विवेक नहीं हैं, जिस ओर इंद्रियों ने उस मन को मोड़ा, उस ओर चल दिया, जबकि संजय आत्मनिरीक्षण करने का प्रतीक है। इसमें आप सांसारिक और आध्यात्मिक दोनों का आत्मपरीक्षण कर सकते हैं। यह महाभारत का युद्ध हमारे जीवन में हमेशा चलता रहेगा। इसमें एक प्रश्न भी है कि उन्होंने क्या किया? इस भूतकाल के प्रयोग पर व्यास जी साफ कहते है कि यो जो महाभारत है, यह केवल प्रतीक के रुप में है, जो कई साधकों के रुप में आत्मनिरीक्षण के रुप में हैं। जो भी साधक/व्यक्ति अपने अंदर चल रहे इन सांसारिक युद्धों पर विजय प्राप्त कर, ईश्वर को पाने लिए साधना में लीन रहेंगे, वे ईश्वर की सहायता से आध्यात्मिक उन्नति में प्रवृत्त होकर ईश्वर में अवश्य एकाकार हो जायेंगे।