आपका बच्चा 10वीं या 12वीं की परीक्षा में 90-99% अंक ले ही आया तो कौन सा तीर मार लिया? किसने कह दिया कि ये अंक जीवन का मूलाधार है?
एक दिन पहले आइसीएसइ की 10वीं व 12वीं की परीक्षा के परिणाम और उसके कुछ दिन पहले केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड यानी सीबीएसइ की 10वीं व 12वीं परीक्षा के परिणाम घोषित हुए। परीक्षा के परिणाम घोषित होते ही, जिन परिवार के बच्चे 90 से 99 प्रतिशत तक अंक लाये हैं। वे तो इतने खुश हैं, जैसे लगता है कि सारा जहां मिल गया, पर जिनके बच्चे इनसे कम अंक लाये हैं, उनके घरों में उनके बच्चे पास करने के बाद भी वो खुशियां नहीं दिखाई पड़ रही, जो दिखाई देनी चाहिए।
मेरा मानना है कि किसी भी बच्चे को मिले अंक, वो सर्वोच्च हो या मध्यम श्रेणी के अंक ही क्यों न हो, उनके जीवन का सही मूल्यांकन नहीं कर सकते। ऐसे भी परीक्षाओं में मिले अंक जीवन का मूल्यांकन करने के लिए नहीं बने हैं। वो इसलिए कि बड़े शहर (चाहे वो दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई, मुंबई, बेंगलूरु आदि ही क्यों न हो) हो या छोटे शहर (रांची अथवा पटना जैसे ही क्यों न हो), इन सभी जगहों पर एक ही तरह की परिपाटी है।
वो परिपाटी है कि इन शहरों में जहां भी ऊंची दुकान अर्थात् जिन विद्यालयों का बहुत बड़ा नाम होता है, वहां वैसे ही लोगों के बच्चे पढ़ते हैं, जो धनाढ्य हो या बहुत पहुंचवाला हो या आइएएस/आइपीएस हो या कोई बहुत बड़ा नेता ही क्यों न हो, ऐसे लोगों के ही बच्चे नामचीन स्कूलों में पढ़ते हैं, ताकि इन विद्यालयों को चलानेवालों के शौक आराम से पूरी होती रहें, क्योकि सामान्य वर्ग या मध्यम वर्ग परिवार का बच्चा यहां टिक ही नहीं सकता, और अगर टिक रहा हैं, तो समझ लीजिये कि उस परिवार में कहीं न कहीं, कुछ न कुछ खिचड़ी जरुर पक रही हैं, अर्थात् वो परिवार का कोई न कोई सदस्य किसी सरकारी नौकरी में रहकर भष्ट तरीके से धनोपार्जन कर रहा है या कोई ऐसा काम कर रहा है, जिसमें वो सरकार को चूना लगा रहा हो।
एक बात और, इन विद्यालयों में उन्हीं बच्चों को लिया जाता है, जो पहले से ही पढ़ने में कुशाग्र हो, जो अपने ही बल पर, अपने ही मेधा से आराम से पढ़ाई कर पूर्व की अपनी कक्षाओं में 90 से 99 प्रतिशत तक अंक लाते रहे हैं, ताकि बिना किसी परिश्रम या स्कूल के मेहनत के ही सीबीएसई की 10वीं या 12 वीं की परीक्षा में वे 90-99% अंक आराम से ग्रहण कर लें।
ऐसे भी, एक सामान्य व्यक्ति भी जानता है कि सीबीएसई में अंक थोक भाव से दिये जाते हैं, जबकि राज्य सरकार द्वारा आयोजित परीक्षाओं में अंक इस प्रकार से नहीं दिये जाते, राज्य सरकार में कितना भी कुशाग्र विद्यार्थी क्यों न हो, वो 80% से 90% तक आते-आते ही दम तोड़ देता है। लेकिन सच्चाई यही है कि राज्य सरकार द्वारा संचालित विद्यालयों में पढ़नेवाले बच्चें इन नामचीन विद्यालयों में पढ़नेवाले बच्चों से कही ज्यादा मेहनती और कुशाग्र होते हैं, चाहे वे 90 प्रतिशत से कम ही अंक क्यों न लाये हो। इसके कई प्रमाण हमने देखे हैं।
रांची में कई ऐसे विद्यालय हैं, एक विद्यालय का नाम तो मैं खुलकर यहां रखना चाहता हूं। विद्यालय का नाम है – विवेकानन्द विद्या मंदिर, जो पुराने विधानसभा भवन के पास में स्थित है। वहां तो ऐसे बच्चे पढ़ते हैं, जो कभी भी अच्छे अंक अपने जीवन में नहीं लायें, पर इस विद्यालय में आते ही, बच्चे इतने अंक ला रहे है कि उनके माता-पिता भी अपने बच्चों की इस उपलब्धि पर गर्व करना नहीं भूलते, कई बच्चे तो वहां के सचिव अभय कुमार मिश्रा से लिपट कर, रोना-धोना (खुशी के आंसू) शुरु कर देते हैं।
ऐसे भी विद्यालय का मतलब ही यहीं होता हैं। मतलब आपने अमीरों को और अमीर बना दिया तो क्या हुआ? मजा तो तब है जब आपने एक गरीब को अमीर की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया। अर्थात् मजा तो तब है, जब आपने एक साधारण छात्र को असाधारण छात्र बना दिया। मैं यह नहीं कहता कि ऐसा विद्यालय केवल विवेकानन्द विद्या मंदिर ही हैं, हो सकता है कि रांची में ऐसे और कई विद्यालय हो, पर प्रमाणिकता सिर्फ इस विद्यालय की मेरे पास थी, इसलिए मैंने यहां उसे उद्धृत कर दिया।
इधर परिणाम निकला और उधर पत्रकारों की टीम निकल गई। उन टॉपरों से उनके सपने पूछने, क्या बनना है? टॉपर बच्चा के मुंह से निकलता है कि वो आइएएस/आइपीएस बनना चाहता है, क्यों बनना चाहता है तो वो रटा-रटाया जवाब देता है कि देश की सेवा करनी है। अब सवाल उठता है कि क्या केवल भारतीय प्रशासनिक सेवा या भारतीय पुलिस सेवा में जाकर ही देश की सेवा की जा सकती है। कृषि वैज्ञानिक/अंतरिक्ष वैज्ञानिक/शोधकर्ता या कुशल राजनीतिज्ञ, कुशल संगीतज्ञ, कुशल किसान, उद्योगपति, कुशल गायक, कुशल सेनानायक बनकर देश की सेवा नहीं की जा सकती। क्यों नौकर बनने में ज्यादा दिमाग लगाई जा रही है।
मैंने आज तक किसी भी विद्यार्थी को यह बोलते नहीं देखा कि वो रवीन्द्र नाथ ठाकुर या राजाराम मोहन राय जैसा समाज सुधारक बनना चाहता हैं। किसी ने नहीं कहा कि वो गांधी या शास्त्री बनना चाहता है, सब को आइएएस/आइपीएस बनना है और बनकर देश की सेवा करनी है। अब जरा बताइये कि तुम आइएएस/आइपीएस बन भी गये और तुम्हारे अंदर पाशविक प्रवृत्ति का जन्म हो गया तो तुम देश सेवा क्या खाक करोगे?
जिस देश में शिक्षा एक उद्योग का रुप ले चुका हूं। जहां अपने बच्चों के नामांकन के लिए परिवारों का समूह लाखों में डोनेशन देता हो। जहां किताब खरीदने से लेकर स्कूल ड्रेस तक खरीदने का उद्योग धंधा चल रहा हो, वहां बच्चों को संस्कार या चरित्र क्या मिलेगा? वो तो विशुद्ध चरित्रहीन बनेंगे और फिर कुछ भी बनेंगे तो जोंक बनकर देश व समाज का खुन ही चूंसेंगे। अगर गलत बोला तो कहिये?
आज ही एक अखबार में मैंने विज्ञापन देखा, उस विज्ञापन में पतंजलि के नाम पर एक ऐसा कॉलेज खोलने की बात कही गई है कि वो कॉलेज देखते ही देखते, जो बच्चा उसमें नामांकन करायेगा, वो भारतीय प्रशासनिक सेवा में चला जायेगा। अब जरा बताइये जिस पतंजलि ने कहा – योगश्चितवृत्ति निरोधः, जो पतंजलि मन की विकृतियों पर रोक लगाने की बात करते थे, अब उस पतंजलि के नाम पर आइएएस/आइपीएस बनाने की बात होने लगी हैं, भला उस देश का क्या होगा?
मैं तो साफ जानता हूं, देखा हूं कि दसवीं व बारहवीं की परीक्षा में 90-99 प्रतिशत अंक लानेवाले ज्यादातर विद्यार्थी जीवन की असल परीक्षा में, असफल हो जाते है। डिप्रेशन में चले जाते हैं। कई को तो रिनपास उनका इंतजार करने लगता है। कई तो मौत को भी लगे लगा लेते हैं। उसका मूल कारण है कि ज्यादातर परिवारों ने अपने बच्चों को पैसा बनाने का एटीएम मशीन बनाने का ख्वाब पाल रखा हैं।
अगर किसी का भाग्य खुल गया तो उनके बच्चों को अच्छे पैकेज भी मिल रहे हैं। वे विदेश भी जा रहे हैं। पर वहीं बच्चे जब अपने पैरों पर खड़े हो रहे हैं, तो वे संस्कार व चरित्र को तिलांजलि देकर, अपने ही माता-पिता व देश को पहचानने से इनकार कर दे रहे हैं। प्रमाण भी अनेक हैं। अमरीका, ब्रिटेन व कनाडा में जाकर बसनेवाले भारतीयों को भारत के प्रति ही वैमनस्यता पालते हुए देखा जा सकता है।
मैंने तो एक परिवार को देखा, जिसका एक ही बेटा था। बेटा को पढ़ाने में महाशय, अपना सारा सपना लूटा दिये। पर जब उनकी पत्नी मरने को आई, तो उन्होंने अपने बेटे को फोन लगाया कि तुम्हारी मां मरने को जा रही हैं, अंतिम समय है, आकर मिल लो। बेटे ने कहा कि पापा फिलहाल समय नहीं हैं। कंपनी ने ढेर सारे काम दे रखे हैं, उसे नियत समय पर पूरा करना हैं। ऐसा करें कि मैं आपके एकाउंट में पैसे भेज देता हूं, मां का अच्छा इलाज कराइये। इधर मां मर गई। बेटा विदेश से आ नहीं सका। इसी सदमें में खुद भी चल दिये, तो आस-पास के लोगों को उनके मृत शरीर के दुर्गंध से पता चला कि बेचारे वे भी चले गये, लेकिन बेटा नहीं आया।
सवाल उठता है कि आप या आपके बच्चे को ईश्वर ने किसलिए दुनिया में भेजा? भारतीय प्रशासनिक सेवा में योगदान देने के लिए या भारतीय पुलिस सेवा में जाने के लिए। अरे मैं ये नहीं कहता कि यहां नहीं जाना चाहिए। जाइये, लक्ष्य बनाइये, अच्छा लक्ष्य तो बनना ही चाहिए, पर इसी को सर्वोपरि मानकर, उक्त लक्ष्य को प्राप्त कर, जिस चीज के लिए आपको दुनिया में भेजा गया, उसे भूल जाना कहां की बुद्धिमानी है? आप क्यों नहीं समझते कि आपको क्या बनना है, ये आपके स्कूलों ने बताना बंद कर दिया हैं।
आजादी के बाद तो जिन्हें ये बताना था, सबसे पहले उन कांग्रेसियों ने इस देश की शिक्षा व्यवस्था को ही सत्यानाश कर डाला। जिसका नतीजा ये हैं कि आप आदमी ही नहीं बन सकें, जब आदमी ही नहीं बन सकें तो आप कुछ भी बन जाइये, क्या फर्क पड़ता है। याद रखियेगा कि जानवरों को जानवर बनाने के लिए कोई पाठशाला नहीं होता, पर इन्सान को इन्सान बनाने के लिए पाठशाला की आवश्यकता होती है, क्योंकि इन्सान जब इन्सान नहीं बन पाता तो वह पशु से भी ज्यादा खतरनाक हो जाता है।
इसलिए अपने बच्चों को 90-99% के चक्कर में न डालकर, उसे शिक्षा के मूल उद्देश्यों को बताइये। शिक्षा का मूल उद्देश्य आपके अच्छे व आदर्श इन्सान बनने में हैं। बताइये राम को महर्षि विश्वामित्र ने कैसी शिक्षा दी थी। बताइये कृष्ण को संदीपनी ने कैसी शिक्षा दी थी। बच्चों को व्यवहारिक शिक्षा प्रदान करिये। उनके दिमाग में कचरा मत डालिये, ऐसे भी आप नहीं डालेंगे तो उनके दिमाग में कचरा स्वयं भर जायेगा, क्योंकि माया वो सारा काम करने को तैयार है, इसलिए आपके पास थोड़ी सी भी बुद्धि हैं तो उन्हें एक अच्छा इन्सान बनाइये। बताइये कि तुम कुछ भी बन जाओ, अगर बेहतर इन्सान नहीं बनें तो तुम्हारा कुछ भी बनना बेकार है। पढ़ने का मतलब, पढ़ने का उद्देश्य राम बनना होता हैं, रावण बनना नहीं। कृष्ण बनना होता है, कंस बनना नहीं।