क्या झारखण्ड इसीलिए बना था कि आदिवासी महिलाएं किसी के पैरों पर गिरकर आंसू बहांयेगी?
साहेब चीन गये हैं। वहां जाकर शंघाई टावर देखेंगे और रांची में वैसा ही टावर आकर बनवायेंगे, जिसके बनते ही सारा समस्या छू मंतर हो जायेगा। इधर झारखण्ड के अखबारों व अन्य मीडिया को लंद-फंद न्यूज चलाने/छापने से फुर्सत नहीं हैं, ऐसे में इन्हें फुर्सत कहां कि वे गोड्डा के माली गंगटी गांवों के आदिवासियों के दर्द को अपने चैनल या अखबारों में जगह दे पाये।
झारखण्ड में सत्तापक्ष के अन्य नेताओं को तो लगता हैं, जैसे सांप सूंघ गया हैं, सभी शर्म और लाज हया को धो दिये है, क्योंकि इन्हें पता ही नहीं चल रहा कि झारखण्ड के गांवों में क्या हो रहा हैं और यहां की आदिवासी महिलाएं किस प्रकार बिलखते हुए, ऐसे लोगों के पांवों में गिर रही हैं, जिसकी कल्पना कभी भी झारखण्ड के आंदोलनकारियों ने नहीं की होगी?
अब सवाल उठता है कि आंदोलन किसके लिए? झारखण्ड किसके लिए? आखिर सही बातों को लेकर झारखण्ड में आंदोलन क्यों नहीं हो रहा? आखिर सरकार, अखबार, मीडिया और अन्य नेताओं को गोड्डा के माली गंगटी के आदिवासी महिलाओं के आंसू क्यों नहीं दीख रहे, उनके बिलखने की आवाज, उनके कानों तक क्यों नहीं पहुंच रहे, क्या सभी ने शर्म और हया बेच खाई है?
अगर ऐसा हैं तो इससे कहीं अच्छा ब्रिटिश हुकूमत थी, जो कम से कम, इन आदिवासियों को ये तो लगता था कि ये विदेशी है क्या जाने, उनके दर्द, पर यहां तो अपने ही देश के लोग उनकी खेती पर बुलडोजर चला रहे हैं, उनके खेत निगल रहे हैं, उनके जिंदगी से खेल रहे हैं।
उपर में जो तस्वीर हैं, उसमें जिन आदिवासी महिलाओं को आप किसी व्यक्ति के पैर पर गिरकर आंसू बहाते देख रहे हैं, वे गोड्डा की आदिवासी महिला हैं और जो व्यक्ति खड़ा हैं, वह अडानी का आदमी हैं, खेत में धान रोपा हुआ हैं, और इधर अडानी के लोग खेतों पर कब्जा जमाने के लिए आ खड़े हुए हैं, जैसे ही आदिवासी महिलाओं को पता लगता है कि उनके द्वारा लगाये अपने खेतों में धान के पौधों को अडानी के लोग कब्जा करने के लिए आ पहुंचे हैं, वे रोते-बिलखते उनके पैरों पर गिर रही हैं, पर कोई सुनता ही नहीं। वे अपने पूर्वजों की जमीन को इनसे छुड़ाना चाहती हैं, पर कोई सुनता ही नहीं।
और ये सब वहां हो रहा हैं, उस संथाल परगना क्षेत्र में, जो सिदो-कान्हू के आंदोलन की जमीन रही हैं, जहां संथाल विद्रोह हुआ था, लोग आज भी हैं, पर चुप्पी साधे हुए हैं, कोई बोलता ही नहीं, वहां एमपी, एमएलए तक चुप हैं, प्रशासनिक अधिकारियों का दल अडानी के लोगों पर मेहरबान हैं, क्योंकि केन्द्र व राज्य सरकार जब इनके उपर मेहरबान हैं तो इन सब की औकात क्या? पर जिन आदिवासियों के खेत हैं, उनके हिस्से में तो फिलहाल रोना ही हैं, इसलिए रो रहे हैं, उनके पैरों पर गिर रहे हैं, शायद दया आ जाये, पर यहां तो दया क्या होती हैं, कोई जानता ही नहीं, वो तो सिर्फ और सिर्फ अडानी, अडानी, अडानी ही जानता हैं, इसके सिवा और दूसरे शब्द उसे जानने ही नहीं।