अपनी बात

कमाल है, जिन्होंने पार्टी की प्रदेश में नैया डूबाई, उन्हीं के साथ बैठकर राष्ट्रीय संगठन मंत्री बीएल संतोष हार का कारण ढूंढ रहे और इधर सोशल साइट पर समर्पित भाजपाइयों की टीम इन सब की धज्जियां उड़ाने में जुटी

कमाल है, जिन लोगों ने पार्टी की प्रदेश में नइया डूबाई, उन्हीं के साथ मिल-बैठकर राष्ट्रीय संगठन मंत्री बीएल संतोष हार का कारण ढूंढ रहे हैं और इधर सोशल साइट पर समर्पित भाजपा नेता/कार्यकर्ताओं की टीम इन सब की धज्जियां उड़ाने में जुटी हैं। फिर भी इन भाजपा नेताओं को शर्म नहीं आ रही। आश्चर्य यह भी है कि चुनाव हारने के बाद भी भाजपा की आईटी सेल जो कल भी मृत थी। वो आज भी मृत ही दिख रही हैं। आज भी इनकी सोशल साइट पर आनेवाली पोस्टों पर कमेन्ट्स, लाइक और शेयर करनेवालों के टोटे पड़े हैं। जो बताने के लिए काफी है कि भाजपा की यहां हालत कितनी बदतर है।

जरा देखिये, भाजपा के एक बड़े नेता रमेश पुष्कर भाजपा के आज के हालात को देखकर क्या लिख रहे हैं? रांची के रमेश पुष्कर फेसबुक पर लिखते हैं कि कार्यकर्ता तो स्थायी पद है। सिर्फ नेतृत्व ही बदला जा सकता है। इस अकल्पनीय हार के बाद मंच पर दूसरे नेताओं को बैठाना ही श्रेष्ठ विकल्प है। ऐसा लिखनेवाले केवल रमेश पुष्कर ही नहीं, बल्कि ऐसे नेताओं की यहां एक बड़ी शृंखला है।

धनबाद के सत्येन्द्र प्रकाश पांडेय फेसबुक पर लिखते हैं कि नाचे न आवें अंगनवे टेढ़। झारखण्ड को चारागाह समझ लिये हैं। भाजपा के आयातित और पैराशूट पदाधिकारी, जमीन पर मेहनत किये नहीं और न ही कार्यकर्ताओं से कोई राय-मशविरा, केवल उड़नखटोले पर उड़े और होटलों में ऐशो आराम किये और चुनाव हारने के बाद असली कारणों को दरकिनार कर लीपापोती में लगे हुए हैं कि कुर्सी बच जाये।

धनबाद के चुन्ना सिंह आज अखबारों में भाजपा के नेताओं के आये बयान पर कड़ी प्रतिक्रिया देते हुए फेसबुक पर लिखते हैं कि हार का बहाना ढुंढ लिया गया। चोर-चोर मौसेरे भाई एक कहावत है वह झारखण्ड में चरितार्थ हुआ। हार का मुख्य कारण है परिवारवाद, जितने नेता थे परिवार को जीताने में लग गये और बाकी सीट की चिंता ही नहीं की।

धनबाद के पूर्व सांसद पीएन सिंह तो इस हार से इतने गुस्से में हैं कि उन्होंने एक पत्रकार से बातचीत में कहा कि उनके लोकसभा क्षेत्र में चार विधानसभा सीटों पर हार हुई हैं। ये हार क्यों हुई? इस पर किसी ने सोचने की कोशिश नहीं की। चुनाव प्रचार के दौरान धनबाद, झरिया और निरसा के प्रत्याशियों ने उन्हें बुलाया, वे गये और किसी ने तो उन्हें निमंत्रित ही नहीं किया। स्थिति ऐसी रही कि दोनों प्रभारियों ने उनसे कभी संपर्क नहीं किया।

जबकि वे अपने क्षेत्र से तीन-तीन बार विधायक और तीन-तीन बार सांसद रह चुके हैं। आश्चर्य यह है कि जिनको जमीनी स्तर का ज्ञान था, उन्हें शंट कर दिया गया और जो हवा-हवाई नेता थे, उनको जिम्मेदारी दे दी गई। तो ऐसे में जो परिणाम आया हैं, वो तो ठीक ही हैं। रही बात जो बाबूलाल मरांडी खुद को तनाव में बता रहे हैं तो उन्हें जिम्मेदारी से मुक्त भी कर देना चाहिए, ज्यादा तनाव ठीक नहीं हैं।

राजनीतिक पंडितों का कहना है कि दरअसल राष्ट्रीय संगठन मंत्री बीएल संतोष को जो जिम्मेवारी मिली है – हार की समीक्षा करने की, वो हार की समीक्षा कम, उनका दर्द बांटने ज्यादा आये हैं, जो इस हार के असली जिम्मेवार है। खांटी संघनिष्ठ व्यक्ति निर्मल सिंह तो गंवई भाषा में बीजेपी झारखण्ड के साइट पर ही बहुत कुछ लिख दिया हैं। लेकिन बेशर्मों को शर्म कहां? दस प्वांइंट के माध्यम से उन्होंने भाजपा का दशकर्म कर दिया हैं। फिर भी इन सब के कानों पर जूं नहीं रेंग रही हैं। उन्होंने साफ कह दिया कि आपको किसी ने नहीं हराया, आपको हरानेवाले लोग भी आपके अंदर ही थे।

हर कोई एक दूसरे को हराने पर लगा था। सब अपने बेटे, भाई, बहू और पत्नी पर ज्यादा ध्यान दे रहा था और दूसरे पर उसका ध्यान ही नहीं था। करोड़ों रुपये आये चुनाव में खर्च करने के लिए, लेकिन वो पैसा कहां गया, किसी को पता नहीं, लेकिन भाजपा कार्यकर्ताओं को नसीब नहीं हुआ। जो भी नेता आ रहे थे, वे कुएं में स्पीच दे रहे थे। मतलब उनके भाषण का कोई असर नहीं था। नेता इस चुनाव के दौरान मलाई खा रहे थे और आम कार्यकर्ता उनके मलाई खाने का तरीका देख रहे थे। कोई भी माल खानेवाला नेता सही मायनों में किसी को चुनाव जीतते नहीं देखना चाहता था।

बताया जा रहा है कि संघ के एक उच्चस्थ पदाधिकारी ने भी इस चुनाव में जमकर मनमानी की है। सूत्र बता रहे है कि एक बड़ी राशि संघ को बड़े अधिकारियों को दी गई थी कि वे चुनाव कार्य में लगे लोगों के बीच उपलब्ध कराकर भाजपा की स्थिति मजबूत करें। लेकिन वो सारी राशि कहां गई, किसी को पता नहीं। आज भी जिन-जिन इलाकों में चुनाव संपन्न हुए हैं। उन चुनाव में लगे भाजपा व संघ के कार्यकर्ताओं/स्वयंसेवकों को धर्म की घूंटी पिला दी गई और जो धन था, वे वरीय अधिकारी डकार गये।

जबकि नीचे जमीनी स्तर पर काम कर रहे भाजपा कार्यकर्ताओं और स्वयंसेवकों को एक फूटी कौड़ी भी नसीब नहीं हुई। जबकि इस बड़े घपले पर कई भाजपा के युवा कार्यकर्ताओं ने सोशल साइट पर जमकर लिखा। लेकिन भाजपा व संघ में बैठे उच्चस्थ पदाधिकारियों की चमड़ी इतनी मोटी थी कि उन पर कोई असर ही नहीं पड़ा। शायद वो जानते थे कि अपने उपर के नेताओं को कैसे इस मुद्दें पर शांत कराया जा सकता है।

इधर रांची के राजनीतिक पंडितों का कहना है कि झामुमो को चाहिए कि वो ईश्वर से मनाये कि भाजपा में दीपक प्रकाश, प्रदीप वर्मा, आदित्य साहू, रवीन्द्र राय, कर्मवीर सिंह तथा संघ के प्रांत प्रचारक के रूप में गोपाल शर्मा जैसे लोग 2029 तक विद्यमान रहें, क्योंकि यही लोग एक बार फिर खुद को कहार बनाकर झामुमो की सत्ता की पालकी ढोते हुए फिर से उन्हें सत्ता दिलायेंगे। इसमें कोई किन्तु-परन्तु नहीं हैं।

राजनीतिक पंडितों का कहना है कि 2024 में जिस प्रकार भाजपा के कार्यकर्ताओं व संघनिष्ठ स्वयंसेवकों ने भाजपा से दूरियां बनाई हैं। वो बताने के लिए काफी है कि भविष्य में अब जब कभी चुनाव होंगे तो भाजपा की सीटें अप्रत्याशित रूप से नीचे जायेंगी, क्योंकि प्रदेश में अब हेमन्त सोरेन व कल्पना सोरेन के टक्कर का कोई नेता ही अब इनके पास नहीं बचा।

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