अपनी बात

वक्त का तकाजा है, दिल मिले या न मिले पर हाथ मिलाते रहिये, कल तक मधुर संबंध नहीं थे तो क्या हुआ, अभी से उधर से दो कदम आप, तो इधर से दो कदम हम चलें

वक्त का तकाजा है, दिल मिले या न मिले पर हाथ मिलाते रहिये, नहीं तो दोनों को वो राजनीतिक नुकसान उठाना पड़ेगा कि फिर झारखण्ड में कभी उठ नहीं पायेंगे। ऐसे भी दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है। शायद मुख्य चित्र यही कह रहा है। झारखण्ड के दो पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा व रघुवर दास, दोनों एक दूसरे के घुर विरोधी, एक दूसरे को फूंटी आंखों से भी नहीं देखनेवाले, आज देखिये दोनों अपने चेहरे पर कैसे बनावटी हंसी लाकर एक दूसरे से हाथ मिला रहे हैं। मतलब ये दोनों झारखण्ड के राजनीतिक पंडितों को कितना बेवकूफ समझते हैं। हैं न।

जिस दिन से भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष पद से दीपक प्रकाश को हटाकर बाबूलाल मरांडी को पदासीन करने की घोषणा हुई तभी से ये दोनों ही नहीं, कई ऐसे भाजपाई और भी हैं, जो भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष पद पर बैठे बाबूलाल मरांडी को पचा नहीं पा रहे हैं। अभी से ही उनके सामने ऐसी-ऐसी चुनौती लाने के प्रयास करने का षडयंत्र शुरु हो गया है कि बाबूलाल मरांडी को भी पता है कि प्रदेश अध्यक्ष पद दरअसल उनके लिए फूलों का ताज नहीं, बल्कि कांटों का ताज है।

यही कारण है कि विद्रोही24 ने पूर्व में ही कह दिया था कि प्रदेश भाजपा में फैली घृणा, वैमनस्यता व आपसी कटुता की विषवेल हटा पाना बाबूलाल मरांडी के लिए आसान नहीं, पहले से खार खाये बैठे पुराने भाजपा नेता उनके लिए सिरदर्द बन सकते हैं। झारखण्ड के राजनीतिक पंडितों का मानना है कि उसके लिए तैयारी शुरु हो चुकी हैं। रघुवर दास का अचानक दिल्ली स्थित अर्जुन मुंडा के आवास पर जाकर उनसे मिलना इसकी एक कड़ी है।

हालांकि बाबूलाल मरांडी झारखण्ड प्रदेश अध्यक्ष का पदभार ग्रहण करने के पूर्व दिल्ली जाकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा, केन्द्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा, भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रघुवर दास से मिले थे और इन सबसे मिलने का फोटो भी उन्होंने अपने सोशल साइट पर बड़ी ही ईमानदारी से शेयर किया था। पर चार-पांच दिन पूर्व अचानक रघुवर दास और अर्जुन मुंडा का दिल्ली में मिलना जरुर ही बाबूलाल मरांडी और उनके चाहनेवालों की बेचैनी बढ़ा दी होगी।

राजनीतिक पंडितों का दावा भाजपा को भाजपा से ही खतरा

राजनीतिक पंडितों का कहना है कि दरअसल भाजपा को झामुमो से खतरा नहीं, बल्कि भाजपा को भाजपा से ही खतरा है। यहां ज्यादा जोगी मठ उजाड़ वाली स्थिति हो गई हैं। सभी अपने-अपने महत्वाकांक्षा के लिए राजनीति कर रहे हैं, किसी में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी या गृह मंत्री अमित शाह जैसा भाव नहीं हैं। वो इसलिए मैं लिख रहा हूं कि आप जरा कभी पीएम नरेन्द्र मोदी से मिलते हुए अमित शाह को देखियेगा। वे जब भी मिलते हैं, तो उनका मिलना ही दोनों के प्रति परस्पर प्रेम के भाव को परिलक्षित कर देता है। ठीक उसी प्रकार जैसे कभी अटल और आडवाणी के बीच में था। इस प्रकार का भाव, हमने झारखण्ड निर्माण के बाद यहां के राजनीतिज्ञों में नहीं देखा।

हमें याद है, जब बाबूलाल मरांडी बतौर मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिये थे। तब उन्होंने मुख्यमंत्री आवास पर एक प्रेस कांफ्रेस किया था। उस वक्त उन्होंने अपने उत्तराधिकारी के तौर पर अर्जुन मुंडा को आगे किया था। मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा के बनने की बात पक्की हो चुकी थी। लेकिन जब वे मुख्यमंत्री बने तब उन्होंने सर्वाधिक नुकसान बाबूलाल मरांडी का ही किया।

उनकी स्थिति ऐसी कर दी कि केन्द्र में भाजपा के बड़े नेताओं के सामने बाबूलाल मरांडी की राजनीतिक स्थिति बौनी हो गई। अर्जुन मुंडा सबके चहेते हो गये। चहेते उनके भी हो गये, जिन्होंने बाबूलाल मरांडी की सत्ता पलटी थी। स्थिति यहां तक बिगड़ गई कि बाबूलाल मरांडी ने एक नई पार्टी का गठन कर दिया। उसके बाद क्या हुआ। सभी जानते हैं।

यहां के नेता अटल-आडवाणी तो दूर, मोदी-शाह के नक्शे-कदम पर भी चलने को तैयार नहीं

एक घटना और बताता हूं। 2005 में झारखण्ड विधानसभा चुनाव हो रहा था। भाजपा प्रदेश कार्यालय में राजनाथ सिंह प्रेस कांफ्रेस कर रहे थे। उनकी एक ओर बाबूलाल मरांडी तो दूसरी ओर अर्जुन मुंडा बैठे थे। मैंने बाबूलाल मरांडी से सवाल किया कि ये तो तय है कि सरकार फिर से आपकी ही आ रही है। बताइये मुख्यमंत्री कौन होगा? बाबूलाल मरांडी ने कहा कि निः संदेह अर्जुन मंडा जी के नेतृत्व में हम चुनाव लड़ रहे हैं, तो अगले मुख्यमंत्री भी वहीं होंगे।

फिर मैंने अर्जुन मुंडा से भी यही सवाल पूछा। उनका उत्तर था – जो पार्टी जिम्मेदारी देगी, उसका वे निर्वहण करेंगे। हालांकि कहने को वो भी कह सकते थे कि बाबूलाल मरांडी बनेंगे। जैसा कि उस वक्त का दौर था। जब कोई लालकृष्ण आडवाणी से पूछता कि प्रधानमंत्री कौन बनेंगे? वे बिना किन्तु-परन्तु के अटल बिहारी वाजपेयी का नाम लेते और जब यही बात अटल बिहारी वाजपेयी से पूछी जाती तो उनका उत्तर होता – लाल कृष्ण आडवाणी। मतलब जो राष्ट्रीय स्तर पर जो राजनीतिक प्रेम व एक दूसरे के प्रति समर्पण का भाव दिखता था, वो प्रदेश में कभी नहीं दिखा।

बाबूलाल मरांडी को हमेशा अपमान का घूंट सहना पड़ा। बाद में जब उन्होंने अपनी नई पार्टी बनाई तो रघुवर दास ने तो सारी मर्यादाएं ही तोड़ दी। अब होना चाहिए था कि नये तरीके से पार्टी आगे बढ़ें, पर लक्षण ठीक नहीं दिख रहे। जरा रघुवर दास से पूछिये कि अर्जुन मुंडा तो जमशेदपुर में ही रहते हैं, वे कितनी बार उनसे उनके जमशेदपुर आवास में मिले हैं। रघुवर दास के समर्थक तो बोलेंगे कि काली पूजा में तो वे अर्जुन मुंडा के आवास पर प्रसाद खाने जाया ही करते हैं।

अरे भाई, पूजा-पाठ की बात छोड़ों, जिस प्रकार बाबूलाल मरांडी के प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद दिल्ली स्थित अर्जुन मुंडा के आवास पर रघुवर दास पहुंच गये, क्या उस प्रकार से रघुवर दास, अर्जुन मुंडा से कभी मिले या अर्जुन मुंडा ही रघुवर दास से मिलने में कभी दिलचस्पी दिखाई। उत्तर होगा – नहीं। तो फिर ये नौटंकी क्यों? क्या यहां की जनता इतनी मूर्ख है।

जब रघुवर के चेहरे पर मधुर मुस्कान बिखर गई

अरे दोनों तो एक दूसरे के इतने कट्टर विरोधी है कि एक जमशेदपुर की महिला पत्रकार ने एक पुस्तक लिखा, जिस पुस्तक में अर्जुन मुंडा को लेकर भयंकर कटाक्ष किया गया है। जैसे ही उक्त कटाक्ष के बारे में रघुवर दास को पता लगा, जनाब उस पुस्तक को मंगवा कर बड़े ही चाव से पढ़े और अपने चेहरे पर मधुर मुस्कान भी बिखेर दी।

दरअसल, ये लिखने का मतलब साफ है कि भाजपा में अब भी कुछ ठीक नहीं चल रहा। हालांकि बाबूलाल मरांडी ठीक-ठाक करने में लगे हैं। लेकिन हमें नहीं लगता कि उनकी राह इतनी आसान है। अगर बाबूलाल मरांडी को लोगों ने काम करने नहीं दिया तो झामुमो के विजय रथ कोई रोक नहीं सकता। ऐसे भी भाजपा के पास जितने नेता हैं, इन सबके लिए फिलहाल महागठबंधन में हेमन्त सोरेन ही काफी है। जनता में आज भी उनका क्रेज बना हुआ है, जो पहले था।