जब गुरु ने अपने शिष्य को हिमालय की गुफा में बुलाया
आषाढ़ पूर्णिमा अर्थात् गुरु पूर्णिमा। इस दिन पूरे भारत में विभिन्न आश्रमों एवं देवालयों में जबर्दस्त भीड़ उमड़ती है, लोग अपने आराध्य गुरुदेव के चरणों में लिपटने को व्याकुल होते है। रांची स्थित योगदा सत्संग आश्रम में भी इस दिन भव्य आयोजन होता है, बड़ी संख्या में यहां रह रहे संन्यासियों और इस आश्रम में जुड़े भक्तों का समूह वर्षाकाल में जैसे आकाश में बादल उमड़ने लगते है, ठीक उसी प्रकार भक्तों का समूह आश्रम में उमड़ने-घुमड़ने लगता है। हमें याद है 2015 की आषाढ़ पूर्णिमा, जब मैं इस आश्रम में पहुंचा था, भयंकर बीमारी से ग्रस्त था, स्वामी योगानन्द की ऐसी कृपा हुई कि मैं उस रोग से सदा के लिए मुक्त हो गया, जबकि जो लोग हमें जानते है, वे बराबर उस समय सलाह देते थे कि मैं चेन्नई, बंगलौर अथवा दिल्ली जाकर अपना इलाज कराऊं, पर गुरु जी की कृपा ने ऐसी व्यवस्था कर दी कि मैं वहां जाने से रहा और रांची में ही बीमारी ठीक हो गयी।
कौन है गुरु?
हरदम ये बात कौंधती है कि गुरु कौन है? क्या जो आजकल के स्कूलों, कॉलेजों, विश्वविद्यालयों में लाखों के वेतन पाते, जीवन-यापन करते है, वे गुरु हो सकते है। उत्तर – कभी नहीं। तब गुरु कौन है? इसकी बड़ी ही सुंदर व्याख्या हमारे मणीषियों ने की है, आप स्वयं देखिये कि गुरु कैसा होता है? गुरु कैसा होना चाहिए?
अगर गुरु कृष्ण है तो आनन्द ही आनन्द है
महाभारत का प्रसंग है, यह सुनिश्चित हो चुका है कि युद्ध सुनिश्चित है, दुर्योधन और अर्जुन दोनों श्रीकृष्ण के पास पहुंचे है, सहयोग मांगने। श्रीकृष्ण कहते है कि मैं युद्ध में भाग अवश्य लूंगा पर अस्त्र नहीं उठाऊंगा। दुर्योधन कहता है कि जब आप अस्त्र नहीं उठायेंगे तो जो आपकी नारायणी सेना है, वह हमें दे दें। श्रीकृष्ण अपनी नारायणी सेना दुर्योधन को दे देते है, पर अर्जुन तो सिर्फ श्रीकृष्ण को पाकर ही प्रसन्न है कि वे उनके साथ है, यहीं क्या कम है और लीजिये श्रीकृष्ण ने क्या किया? जब-जब अर्जुन पर संकट आया। श्रीकृष्ण ने बचा लिया।
जरा प्रसंग देखिये – अर्जुन को कुरुक्षेत्र में अपने रिश्तेदारों को देख, अपने गुरुओं को देख मोह उत्पन्न हो गया, वह कर्म से भागने की कोशिश करने लगा, श्रीकृष्ण ने उसे मार्ग पर लाकर कर्मफल से अवगत कराया, यहीं नहीं अपने विराट स्वरुप दिखाकर अर्जुन के मोहभंग किये। यहीं नहीं युद्ध समाप्त हो चुका है, अर्जुन श्रीकृष्ण को अपना गुरु मानते है। श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है कि अर्जुन रथ से उतरो, जबकि सच्चाई यह है कि सारथि सबसे पहले रथ से उतरता है, पर श्रीकृष्ण कह रहे है, अर्जुन उतर रहे है और अर्जुन के उतरने के बाद जैसे ही श्रीकृष्ण रथ से उतरते है, रथ धू-धू कर जल उठता है। अर्जुन को बात समझते देर नहीं लगी कि श्रीकृष्ण ने पहले उन्हें क्यों उतारा, फिर भी वे माधव से पूछते है कि रथ की ये हालत कैसे हुई? श्रीकृष्ण कहते है कि भीष्म और द्रोण के तीरों के प्रभाव से रथ तो कब का खत्म हो चुका था, ये तो मैने योगबल से इसे जीवित कर रखा था और चूंकि अब युद्ध समाप्त हो गया, इसलिए अब रथ की कोई आवश्यकता नहीं और तुम्हें आनन्द भी देना था। दूसरा प्रसंग देखिये –
शिष्य कैसा होना चाहिए?
श्रीकृष्ण द्वारका के राजा है। अर्जुन श्रीकृष्ण से मिलने द्वारका पहुंचे है। श्रीकृष्ण राजकाज संचालन में व्यस्त है, वे अर्जुन से कहते है कि अर्जुन तुम अभी विश्रामालय में जाकर आराम करो। मैं ये राजकीय काज निबटा कर तुमसे मिलता हूं। इधर अर्जुन विश्रामालय में जाकर आराम करने के क्रम में अपने गुरु श्रीकृष्ण को हृदय में रखकर आनन्दित हो विश्राम करने लगते है तथा इसी क्रम में उन्हें नींद आ जाती है। इधर भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से मिलने विश्रामालय पहुंच रहे है। देखते है कि अर्जुन सो रहे है, वे उसी जगह अर्जुन को जगाने की जगह ध्यानमग्न हो जाते है, तभी रुक्मिणी और फिर बलराम उसी जगह आकर श्रीकृष्ण को अर्जुन को जगाने को कहते है, पर भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को जगाने की अपेक्षा रुक्मिणी और भाई बलराम को बता रहे है कि देखो अर्जुन सोते हुए भी क्या कर रहा है? रुक्मिणी और बलराम आश्चर्यचकित हो गये कि अर्जुन सोते समय भी श्रीकृष्ण-श्रीकृष्ण पुकार रहे थे। अर्थात् शिष्य को भी अपने गुरु के प्रति समर्पण की भाव रखना चाहिए, तभी वह गुरु के अद्भुत प्रेम का आनन्द पा सकेगा। आजकल कितने गुरु या शिक्षक श्रीकृष्ण के जैसे है या शिष्य अथवा विद्यार्थी अर्जुन जैसे है।
गुरु का काम, सिर्फ ज्ञान देना ही नहीं, बल्कि उसे परम-पिता परमेश्वर से साक्षात्कार कराना भी है और ये तभी होगा, जब गुरु श्रीकृष्ण जैसे हो या साक्षात् श्रीकृष्ण हो। ऐसा नहीं कि हमारे देश में ऐसे गुरुओं का अभाव है, आज भी ऐसे गुरु है, जिसे पाना संभव है, पर ये तभी संभव होगा, जब हमारे हृदय में ईश्वर को पाने की तीव्र उत्कंठा जाग्रत हो, जैसे ही ईश्वर को पाने की तीव्र उत्कंठा जगेगी, ईश्वर आपके पास सच्चा गुरु भेज देगा, क्योंकि गुरु को आप स्वयं नहीं पा सकते और न ही ढूंढ सकते है, इसकी व्यवस्था तो ईश्वर को ही करनी पड़ती है, क्योंकि बिना उसके आदेश के कोई उस तक पहुंच ही नहीं सकता।
क्या करता है गुरु
गुरु क्या नहीं करता… वह हमें हर प्रकार की बुराइयों से बचाता है। वह हमें हर पल गाइड करता है। जब वो हमारे पास नहीं होता, तब भी वह योगबल से हमारे तक संबंध बनाता है। वह हर समय हमें आनन्द देता है। वह हमें हर जन्म में, हमारी मदद करने के लिए उत्सुक रहता है। हम भूल भी जाये, पर वह हमें नही भूलता। इसका बहुत ही सुंदर प्रसंग परमहंस योगानन्द जी द्वारा लिखित पुस्तक योगी कथामृत में है। जब लाहिड़ी महाशय का स्थानान्तरण रानीखेत हुआ और जब वे रानीखेत पहुंचे, उसी समय उन्हें लगा कि रानीखेत की वादियां उन्हें बुला रही है। यहीं महावतार बाबा जी से उन्हें भेंट हुई। महावतार बाबा जी ने उन्हें पूर्वजन्म की बातें बताई, जो लाहिड़ी महाशय भूल चुके थे, जब लाहिड़ी महाशय को अपने योगबल से महावतार बाबा जी ने आत्मसाक्षात्कार कराया, तब लाहिड़ी महाशय की जिंदगी ही बदल गयी, स्वयं महावतार बाबा जी ने ही कहा था कि रानीखेत में जो उनका स्थानान्तरण हुआ, वो और कुछ नहीं, उन्हीं का प्रभाव है, बस उनसे मिलने की इच्छा थी, उन्होंने व्यवस्था करा दी। यानी समझ लीजिये कि एक गुरु कैसे पूर्व जन्म के शिष्य को भी इस जन्म में अपने योग बल के द्वारा अपने पास बुला ही लेता है और जो उसे आनन्द देना है, दे ही देता है।
दूसरा प्रसंग देखिये गुरु जी, अपने शिष्यों के साथ कहीं जा रहे है, अचानक वे एक खिलौने की दुकान पर रुकते है, वे खुब खिलौने से खेल रहे है, खिलौने से खेलते-खेलते वे एक खिलौना खरीदते है, जो काफी महंगी है, दुकानदार उक्त खिलौने को गुरु जी को बेच रहा है। गुरु जी उस खिलौने को लेकर चल देते है, तभी दुकानदार के आंखों से आंसू छलक रहे है। दुकानदार के आंसू छलकते देख गुरु जी के शिष्यों ने रोने का कारण पूछा, दुकानदार बता रहा है कि उसकी दुकान की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं, वह इस दुकान को कल बेचने जा रहा था, पर आज जो खिलौना बिका, उसकी आय से हमारा सारा काम हो जायेगा, क्योंकि मुझे इतने ही पैसों की तलाश थी, जो खिलौना खरीदकर आपके गुरु जी यहां से गये, अर्थात् एक गुरु-एक ईश्वर अपने भक्तों की किस प्रकार मदद करता है, ये सामान्य आंखों से नहीं देखा जा सकता। इससे महसूस करने के लिए दिव्यता चाहिए।
गुरु अपने शिष्यों की हर प्रकार की बुराइयों को भस्मीभूत कर देता है, इसकी बहुत ही सुंदर व्याख्या कबीर ने की है, यह कहकर-
गुरु कुम्हार शीष कुम्भ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़ै खोट।
अंतर हाथ सहार दे, बाहर मारे चोट।।
तुलसीदास ने श्रीरामचरितमानस की पहली चौपाई ही गुरु को भेंट कर दी और कहा –
बंदऊं गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा।।
अमिअ मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारु।।
अर्थात् मैं गुरु महाराज के चरणकमलों की रज की वंदना करता हूं, जो सुरुचि, सुगंध तथा अनुरागरूपी रस से पूर्ण है। वह अमरमूल का सुंदर चूर्ण है, जो संपूर्ण भवरोगों के परिवार को नाश करनेवाला है।
गुरू साक्षात परम ब्रह्म
तस्मै श्री गुरुदेव नमः
सर, इस लेख पर कमेंट करने के लिए मेरे पास सिर्फ एक शब्द है, लाजवाब..!!