अपनी बात

एक पत्रकार की मौत पर रोनेवाला कोई नहीं, इससे बड़ा दु्र्भाग्य और क्या हो सकता है?

हिमाचल प्रदेश के पत्रकार रवीन्द्र ठाकुर अब इस दुनिया में नहीं है। उन्होंने नई दिल्ली स्थित हिन्दुस्तान टाइम्स कार्यालय के दफ्तर के सामने  गत वृहस्पतिवार को दम तोड़ दिया। बताया जाता है कि जब हिन्दुस्तान टाइम्स ने 2004 में सैकड़ों पत्रकारों को नौकरी से निकाल दिया, तब वे अखबार के इस फैसले के खिलाफ कई सालों से लड़ रहे थे। वे दफ्तर के बाहर धरने पर थे और लड़ते-लड़ते मौत के आगोश में चले गये।

कमाल की बात है, यह पत्रकार दुनिया से संघर्ष करते हुए, अपने हक की लड़ाई लड़ते-लड़ते दम तोड़ दिया पर कोई उसका साथ देने नहीं आया। जो लोग पत्रकारों की लड़ाई लड़ने की बात करते हैं, जो लाखों-करोड़ों में खेलते है, जो गौरी लंकेश के लिए आसमान हाथों में उठा लेते है, वे रवीन्द्र ठाकुर के इस संघर्ष पर आंखे मूंद लेते हैं, उसकी मौत पर आंसू तक नहीं बहाते, उनके लिए ऐसे लोगों के लिए शब्द नहीं है।

रवीन्द्र अकेला नहीं हैं, ऐसे कई रवीन्द्र हैं, जो कई संस्थानों में अभी भी काम कर रहे हैं, जिन पर नौकरी जाने का खतरा हमेशा मंडराता रहता है, कई रवीन्द्र बनने या पैदा करने के लिए विभिन्न प्रकार के शिक्षण संस्थान भी चल रहे हैं, जो पत्रकारिता का कोर्स कराते हैं, पर जब सच्चाई सर पर आकर दस्तक देती हैं, तो सारी हंसी-खुशी काफूर हो जाती हैं।

कमाल की बात है कि इतना बड़ा हादसा हो जाता है, एक अखबार के कार्यालय के सामने। जिस अखबार में वह व्यक्ति कभी काम कर रहा होता था, वह भी इस समाचार को अपने अखबारों में स्थान नहीं देता। यहीं नहीं किसी अखबार या चैनल ने इस खबर को तवज्जों नहीं दी है, यानी जो मानवता की बात करते हैं, जो सामाजिक मूल्यों की बात करते हैं, उनके यहां सारी बातें घास चरने चली गई है।

हमें यह समाचार ईटीवी में कार्यरत संवेदनशील व मानवीय मूल्यों से ओतप्रोत राजीव विमल के माध्यम से मिली, उन्होंने अपने फेसबुक के माध्यम से इस बात को सभी के समक्ष रखा है, जो लोग संवेदनशील हैं, वे शोक प्रकट कर रहे हैं, पर जहां ये घटना घटी है, उस प्रबंधन के अंदर अभी भी मानवीय संवेदना नहीं प्रकट  हुई है, अब ऐसे समय में जबकि रवीन्द्र दुनिया में नहीं है, क्या उन्हें अंतिम समय में अपने परिवार का कंधा भी मिल पायेगा? ये कहना मुश्किल सा लग रहा है, क्या हो गया है इस देश कोइतने बड़े-बड़े प्रेस क्लब, इतने बड़े-बड़े पत्रकारों की दुनिया और वहां एक रवीन्द्र ठाकुर का यह हाल?  क्या रांची के पत्रकार, इस रवीन्द्र के लिए थोड़ा समय निकालेंगे, शोक प्रकट करेंगे या केवल उनका शोक खासमखास लोगों के लिए ही सिर्फ पैदा होता है?