कर्म और आध्यात्मिकता साथ-साथ, ईश्वर से कोई शिकायत नहीं, हमेशा उनके प्रति गहरा विश्वास रखते हैं, राजभवन के पास फुटपाथ पर छोटा सा सैलून चलानेवाले जय प्रकाश ठाकुर
उत्तर-पूर्व दिशा की ओर स्थित राजभवन की चहारदीवारी से सटे प्लास्टिक के शेड लगाकर फूटपाथ पर जय प्रकाश ठाकुर अपना एक सैलून चलाते हैं। जय प्रकाश ठाकुर बिहार के जमुई के रहनेवाले हैं। 2001 में वे बिहार से झारखण्ड आये और झारखण्ड के रांची में ही उनका मन रम गया। उनके अनुसार रांची की जलवायु और यहां के लोगों की सादगी के वे कायल हो गये और फिर यहां से दूसरे जगह जाने का कभी रुख ही नहीं किया।
जयप्रकाश ठाकुर सुबह यहां आ जाते हैं और शाम तक अपनी ग्राहकों के लिए कुर्सी और उसके ठीक सामने एक दर्पण लगाकर ग्राहकों का इंतजार करने लगते हैं। जय प्रकाश ठाकुर के कथनानुसार उनके इस छोटी सी फुटपाथ के दुकान पर कभी बहुत अच्छे लोग भी आते हैं और कभी ऐसे लोग भी आते हैं, जिनका ग्राहक के रुप में आना वे पसन्द नहीं करते। फिर भी अपने काम के प्रति ईमानदार और चेहरे पर बराबर मुस्कान लिये अपने काम को अंजाम देना, उनकी यही खासियत है।
जय प्रकाश ठाकुर राजभवन के पास दुकानदारी करते हैं, जबकि उनका परिवार रातू रोड के इन्द्रपुरी नंबर एक में किराये के मकान में रहता है। वे अपने जीवन से बहुत ही संतुष्ट हैं। वे हमेशा ईश्वर को इसके लिए धन्यवाद देते हैं। कभी उनकी ईश्वर से कोई शिकायत नहीं रही। वे बराबर कहते हैं कि ईश्वर ने उनके उपर बहुत कृपा की है। मनुष्य तन दिया है। अपना नाम भजने के लिए मुख दिया है और ईश्वर से क्या चाहिए। मतलब कुल मिलाकर वे आध्यात्मिक जीवन जीते हैं।
ऐसे भी हमारे देश के सांस्कृतिक व आध्यात्मिक ग्रंथों को पलटे। तो ज्यादातर आपको ऐसे संत मिलेंगे, जिन्होंने अपने रोजमर्रे के जीवन में खुद को झोकते हुए, ईश्वर के प्रति ईमानदारी रखी और वे ईश्वर के हो गये। इसके एक नहीं, अनेक उदाहरण है। हमारी जय प्रकाश ठाकुर से पहली मुलाकात इसी सप्ताह 13 सितम्बर को हुई। मैं पैदल ही उस ओर से गुजर रहा था। कई दिनों से बाल भी बढ़े हुए थे। बाल कटाने की कई बार सोच रहा था, पर समय नहीं मिल पा रहा था।
अचानक मेरी नजर राजभवन के दीवार पर टंगी दर्पण और खाली पड़ी कुर्सी पर पड़ी। मैंने सोचा, क्यों नहीं यही पर आज बाल बना लिया जाये। सैलून में तो पता नहीं, लाइन लगाना भी पड़ जाता है। बैठना पड़ जाता है। यहां तो सब कुछ खाली है। पर वहां उस वक्त कोई नहीं था। दस-पन्द्रह मिनट इंतजार किया। दूर से कोई व्यक्ति आता इस ओर दिखाई पड़ा। मुझे समझते देर नहीं लगी कि यही व्यक्ति ठाकुर जी है, इन्हीं का यह दुकान है।
मैंने पूछा – कहां थे जनाब। मैं आपका इन्तजार कर रहा था। जय प्रकाश ठाकुर ने कहा – बस थोड़ी देर के लिए एक काम को पूरा करने के लिए यहां से हटा था। मैंने कहा कि अब मेरा बाल भी काट दीजिये। उन्होंने बड़ी ही साफ एक सफेद चादर निकाली और मेरे बदन पर लिपटा दिया ताकि कटे हुए बाल शरीर से न चिपके और फिर शुरु हो गया बाल का कटना। अचानक कहां से बात शुरु हुई, मुझे नहीं पता।
लेकिन जब बातें शुरु हुई, तो फिर भारत की सारी सभ्यता-संस्कृति से लेकर अध्यात्म की गूढ़ गहराई तक उन्होंने बोलना प्रारम्भ किया और इसी बातचीत में मेरा बाल भी कट गया। बाल भी ऐसी उन्होंने काटी कि क्या कोई वातानुकूल स्थान पर बैठाकर बाल काटेगा। मुझे अपने बचपन के समय की याद आ गई। जब मेरे यहां एक छोटी सी लकड़ी का संदूक लेकर उसमें बाल काटने के लिए कैंची, अस्तूरा, छोटे-बड़े कई कंघियों को लेकर राजा ठाकुर आया करते थे। जय प्रकाश ठाकुर ने उनकी याद दिला दी थी। वे भी हम बच्चों को बाल काटते और बड़े प्रेम से अनेक छोटी-छोटी कहानियां जो शिक्षाप्रद हुआ करती थी, सुनाया करते, जिससे बाल तो कटता ही, हम बच्चों का अच्छा खासा मनोरंजन और ज्ञानप्रद बातें भी प्राप्त हो जाती।
जय प्रकाश ठाकुर, मस्ती में जीनेवाले और शानदार जिंदगी जीनेवाले व्यक्ति है। कोई गम नहीं। मिल गया तो मिल गया। आमदनी अच्छी हो गई तो भी ठीक, नहीं हुई तो भी ठीक। सब भगवान की कृपा पर छोड़कर दुकान लगाते और दुकान उठाते हैं। मतलब आज भी रांची में कई लोग ऐसे हैं, जो अभावों के बीच में भी स्वयं को किसी से कम नहीं समझ रहे, बल्कि अभावों में भी ईश्वर को धन्यवाद कहना नहीं भूलते कि उन्होंने उनके उपर बहुत बड़ी कृपा की हैं।
जय प्रकाश ठाकुर ने हमें बताया कि उनके दुकान पर कभी बड़े-बड़े लोग भी घुमते-फिरते आ जाते हैं और साधारण लोग भी। लेकिन उनके हाथों की कैंचियां किसी से भेद-भाव नहीं करती, बल्कि दोनों पर समान भाव से अपना काम करती है। ठीक उसी प्रकार ईश्वरीय प्रेम भी ऊंच-नीच, बड़ा-छोटा नहीं देखता, वो तो सिर्फ यह देखता है कि किस भाव से किसने उसे याद किया। सचमुच जीने की कला कोई भी कही से सीख सकता है। आध्यात्मिकता की पुट कही से भी ली जा सकती है। कबीर की पंक्ति है न…
लघुता ते प्रभुता मिलै, प्रभुता ते प्रभु दूरि।
चींटी लै शक्कर चली, हाथी के सिर धूरि।।