क्रिया योग का अर्थ योगासन नहीं, ईश्वर की प्राप्ति हैः ईश्वरानन्द गिरि
अंतरराष्ट्रीय योग दिवस पर यह जानना जरूरी है कि जिसे आज विश्व अपना रहा है, वह क्रिया योग है क्या और इसकी महिमा क्या है? जो लोग इसे अपना चुके हैं, वे निश्चय ही जानते होंगे कि यह हठ योग जैसा कुछ भी नहीं है, अपितु यह एक जीवन शैली है। जिससे आधुनिक विश्व को परमहंस योगानन्द ने परिचय कराया था।
योगानन्द ने आम भारतीय को इससे अवगत कराने के उद्देश्य से पश्चिम बंगाल के आसनसोल के निकट दिहिका में योग विद्यालय की स्थापना 1917 में की, लेकिन एक साल बाद ही वे इसे राँची ले आए। यहाँ कासिमबाजार के राजा ने अपना एक विशाल बाग, जिसमें रहने का स्थान भी बना हुआ था, उनको उपलब्ध करा दिया था। यहां वह आवासीय योग विद्यालय चलने लगा, जिसमें सामान्य विषयों की भी पढ़ाई होती थी। बाद में उन्होंने योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया का पंजीकरण कराया।
योग का मतलब, क्या है क्रिया योग?
सामान्यतया योग का मतलब हठयोग के आसनों या अन्य तरह के आसनों से लगाया जाता है। क्रिया योग आसन नहीं है। यह एक ऐसा वैज्ञानिक मार्ग है, जिस पर चलकर जीवन परिवर्तित होकर आध्यात्मिक बन जाता है तथा ईश्वर से समस्वर हो जाता है। यह उच्च कोटि का प्राणायाम है। महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र’में अष्टांग योग का वर्णन किया है। इसके आठ अंगों में प्राणायाम एक अंग है। अष्टांग योग के अंग हैं, यम, नियम, आसन, प्राणायाम प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। प्राण-शक्ति पर नियंत्रण को प्राणायाम कहते हैं। यह कहा जाए कि विशेष रूप से सांस लेना-छोड़ना ही प्राणायाम है तो यह आधा सच होगा। शरीर चेतना और आत्मा का स्वरूप है।
प्राण या प्राण-शक्ति वह अदृश्य ऊर्जा है, जिससे हाड़-मांस का शरीर जीवित रहता है। इसी कारण देहांत के बाद कहा जाता है कि इसके प्राण छूट गए। आत्मा अपने साथ प्राण-शक्ति को लेकर बाहर निकल जाती है तो शरीर मर जाता है। प्राणायाम उस अदृश्य प्राण शक्ति पर नियंत्रण करना सिखाता है। हम जिस जगत को देख रहे हैं, वही संपूर्ण सत्य नहीं है, बल्कि इससे इतर आंतरिक जगत भी है, जो कहीं अधिक बड़ा और महत्वपूर्ण है। उस आंतरिक जगत में प्रवेश के लिए योग साधना आवश्यक है। प्राण-शक्ति पर नियंत्रण के बाद ही इस आंतरिक जगत का रहस्य पता चलता है।
योगासन ही सब कुछ नही है
योग विज्ञान में योगासन के अलावा और बहुत कुछ है। केवल योगासन ही सब कुछ नही है। यह योग विज्ञान का छोटा सा अंश है। आसनों से प्राप्त शारीरिक लाभ के कारण ये सबसे ज्यादा प्रचलित हैं। योग विज्ञान का एक ही उद्देश्य है, शरीर को ध्यान के योग्य बनाना। ध्यान के लिए स्थिर या एकाग्रचित्त होकर बैठना पड़ता है। इसे आसन कहते हैं।
‘योगसूत्र’ के अनुसार ‘स्थिरम्, सुखम् आसनम्’ अर्थात जिस मुद्रा में आप बैठकर स्थिर रह सकते हैं, वही आसन है। ध्यान का मतलब ईश्वर के किसी एक पहलू पर एकाग्र होना होता है। साधारणतया प्राण-शक्ति का प्रवाह मेरूदण्ड, मष्तिष्क से बाहर की तरफ निकलकर नाड़ियों के माध्यम से इंद्रियों में होता है। इसे बहिर्मुखी प्रवाह कहते हैं। आँख, कान, नाक, जीभ, त्वचा आदि पाँचों इंद्रियों से जगत् की जानकारी मिलती है।
इसे ही चेतन अवस्था या जागृत अवस्था कहते हैं। इस अवस्था में लगता है कि जगत ही सत्य है, जबकि ऐसा नहीं है। योग विज्ञान बताता है कि जगत् जितना बाहर है, उससे कहीं बड़ा अंदर है। उसे देखने के लिए, जिसे परमात्मा का अनंत स्वरूप भी कहते हैं, इन पांच इंद्रियों और शरीर से ऊर्जा को खींचकर वापस मष्तिष्क, मेरूदण्ड में ले जाना होता है। जब उसका प्रवाह विपरीत कर मष्तिष्क में ले जाते हैं, तो इसे प्राण-शक्ति को अंतर्मुखी करना कहते हैं। यह वैज्ञानिक प्रक्रिया है।
इसका थोड़ा भी अनुभव होने पर अद्भुत आनंद और शांति की प्राप्ति होती है। यही आनंद हमारे शरीर में ईश्वर की उपस्थिति का पहला संकेत है। यहीं पर ईश्वर का स्वरूप समझ में आता है। प्राण-शक्ति के प्रवाह को उल्टा कर मष्तिष्क, मेरूदण्ड में ले जाने को प्राण-शक्ति को अंतर्मुखी करना कहते हैं। यही प्रत्याहार हैं। यह क्रियायोग से संभव होती है। इस विशेष योग का सुबह शाम अभ्यास किया जाना चाहिए। इसे योगानन्द ने विज्ञान कहा है। विज्ञान का प्रयोग चाहे जो कोई करे, कहीं भी करे, एक समान परिणाम देता है। इसी तरह क्रियायोग का अभ्यास परिणामदायी होता है। इससे प्राप्त आध्यात्मिक अनुभव ही ईश्वर का अनुभव है।
उच्चकोटि का प्राणायाम क्रियायोग पहले संतों तक सीमित था, पर आज जनसामान्य के लिए भी सहज
क्रिया योग हर कोई सीख सकता है, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, आस्तिक हो या नास्तिक। दो तत्व आवश्यक हैं। पहला तत्व है जिज्ञासा। बिना जिज्ञासा के कुछ सीखा नहीं जा सकता। दूसरा तत्व है समय। आरंभ में सुबह-शाम आधा-आधा घंटा दें। बाद में खुद समय मिलने लगेगा। उच्च कोटि का प्राणायाम क्रियायोग पहले संतों तक सीमित था। अब ईश्वर और गुरुओं की कृपा से जनसाधारण तक इसका विस्तार है। इसके अभ्यास के लिए शरीर और मन को तैयार करना होता है, जिसमें समय लगता है।
योगानन्दजी कम से कम छह महीने तक प्रारंभिक योग की प्रविधियाँ सीखने को कहते थे, जिससे शरीर स्वस्थ हो जाता था तथा साधक बैठने के काबिल हो जाता था। इसमें शक्ति-संचार व्यायामों के बाद एक आरंभिक तकनीक अपनानी होती है, जिससे मन एकाग्र होता है और इसके बाद की तकनीक से मन को ओम् पर केन्द्रित किया जाता है। इसमें प्रवीणता के बाद क्रियायोग की दीक्षा दी जाती है। योग का अर्थ मन को अंतर्मुखी कर ईश्वर पर केन्द्रित करना होता है। क्रिया योग के माध्यम से यह विज्ञान जानकर हर कोई एक जैसा परिणाम प्राप्त कर सकता है।
क्रियायोग के लाभ
प्रत्यक्ष लाभ तो यही है कि श्रद्धा-भक्ति से और सिखाए के अनुसार सुबह-शाम क्रियायोग का अभ्यास किया जाए तो कभी न कभी जीवन में ईश्वर की प्राप्ति होती है। ईश्वर साकार, निराकार सभी रूपों में हैं। वे नित्य नवीन आनंद हैं। वे शांति का सागर भी कहलाते हैं। आनंद और शांति की प्राप्ति ही विश्वास दिलाती है कि बाह्य जगत् के अलावा भी एक आनंदमय जगत् है। इसे ईश्वरानुभूति कहते हैं। क्रिया योग के निरंतर अभ्यास से व्यक्तित्व में आमूल-चूल परिवर्तन आता है।
मनुष्य सामान्यतः एक किस्म की अशांति में रहता है। वह सांसारिक प्रवृत्तियों में लिप्त रहता है, किंचित गुस्सैल भी। क्रिया योग के अभ्यास से वह धीरे-धीरे आध्यात्मिक संत की तरह शांत, तटस्थ, सुख-दुख से परे हो जाता है। वह निंदा या स्तुति से अलग रहता है। आंतरिक रूप से तटस्थता, इच्छाशक्ति को प्रबल बनाती है। बुरी आदतें, गुस्सा, गलत खान-पान आदि से बिना प्रयास के छुटकारा मिल जाता है। आदतें ही व्यक्तित्व का निर्माण करती हैं।
गहराई में जाएं तो क्रियायोग के अभ्यास से आदमी का क्रम विकास तीव्र हो जाता है। इसमें एक विशेष क्रिया की जाती है, जिसमें आधा मिनट लगता है। इस आधे मिनट के अभ्यास से इतनी प्रगति होती है, जितनी सामान्य अवस्था में एक वर्ष में होती है। इस आध्यात्मिक प्रगति का विवरण परमहंस योगानन्द की जीवनी ‘योगी कथामृत’ में विस्तार से दिया गया है। इस अभ्यास से अन्तर्ज्ञान (intuition) जगता है। ईश्वरानुभूति इसी अन्तर्ज्ञान से होती है। इससे किसी भी समस्या का समाधान संभव है।
क्रिया योग की पुनरोद्धार कथा
क्रिया योग का उल्लेख श्रीमद्भगवद्गीता में भी है। किंकर्तव्यविमूढ़ अर्जुन को पुनः क्रियाशील करने के लिए श्रीकृष्ण ने जीवन जगत् का ज्ञान देते समय इसका उल्लेख किया था। उन्होंने कहा था कि यह नया अन्वेषण नहीं, अपितु बहुत पुराना है। इसके अभ्यास से मनुष्य का भय खत्म हो जाता है।
बाद में 1861 में इसका पुनरोद्धार महावतार बाबाजी ने श्यामा चरण लाहिड़ी को यह प्रविधि बताकर किया था। बाबाजी अजन्मा माने जाते हैं। उन्होंने शंकराचार्य और कबीर को भी शिक्षा दी थी। मानव मात्र के कल्याण के लिए उन्होंने लाहिड़ी महाशय, जो ब्रिटिश आर्मी एकाउंट्स विभाग में कार्यरत थे, को इसकी दीक्षा देकर जन सामान्य को लाभान्वित करने का निर्देश दिया था।
लाहिड़ी महाशय के एक शिष्य कलकत्ता निवासी स्वामी युक्तेश्वर गिरि ने इसकी दीक्षा योगानन्द को दी। बाबाजी ने 1894 के कुंभ मेले में युक्तेश्वरजी को बताया था कि उनके पास दीक्षा के लिए युवक आएगा, जो पश्चिम जगत् को क्रिया योग से परिचित कराएगा। बाबाजी ने योगानन्द से भी एक भेंट में कहा था कि उन्होंने उनको पश्चिम में क्रिया योग के प्रचार के लिए चुना है।
रांची में योग विद्यालय की स्थापना के तीन वर्ष उपरांत एक दिन समाधि की अवस्था में योगानन्द का जगन्माता से साक्षात्कार हुआ। जगन्माता ने ही उनको संदेश दिया कि अब उनके अमेरिका गमन का समय आ गया है। इस प्रकार योगानन्द दैवी प्रेरणा से अमेरिका गए और वहाँ तथा यूरोप में क्रियायोग का प्रचार किया। आज पूरे विश्व में क्रियायोग को अपनाने वाले लोग हैं तो इसका श्रेय योगानन्दजी को जाता है। यही कारण है कि उनको पश्चिम जगत् में योग का जनक माना जाता है।