अपनी बात

हेमन्त की मजबूती के आगे लक्ष्मीकांत, शिवराज, हिमंता सब फेल, अब तो भाजपाई मोदी और शाह का भी नाम नहीं लेते, भागते भूत की लंगोटी काफी वाली हाल में चम्पाई के आगे ढेर हुए भाजपाई

भाई, मानना पड़ेगा झारखण्ड के मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन को। इन्होंने अकेले भारतीय जनता पार्टी के केन्द्र से लेकर राज्यस्तर के नेताओं की ऐसी नींद उड़ा दी हैं कि भाजपाइयों को कुछ सूझ ही नहीं रहा। वे हरकत तो कुछ ऐसी कर रहे हैं कि जैसे लगता है कि हेमन्त सरकार को एक तरह से उखाड़ फेंका है। लेकिन सच्चाई यह है कि हेमन्त सरकार को उखाड़ने के क्रम में खुद ही उखड़ते चले जा रहे हैं।

अब तो राजनीतिक पंडित भी कहने लगे है कि भाजपा की ऐसी दुर्दशा कभी नहीं देखी, वे हेमन्त सोरेन और उनकी सरकार को साइड करने के चक्कर में खुद ही उन्हीं की शरण में कब चले गये, उन्हें पता ही नहीं। अब तो भाजपा के नेताओं के जुबान से पीएम मोदी और अमित शाह सुनाई ही नहीं देते, जब देखिये तो इनके जुबान से हेमन्त सोरेन और उनका परिवार ही सुनाई दे रहा है।

दरअसल, हेमन्त सोरेन और उनकी सरकार ने सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच एक ऐसी लंबी लकीर खींच दी है कि उस लंबी लकीर को पार पाना भाजपा के लिए मुश्किल ही नहीं, बल्कि नामुमकिन है। सबसे पहले पिछले पांच सालों में भाजपा की हरकत को देखिये। उसने हेमन्त सोरेन को साइड करने के लिए कौन-कौन सी हरकत की। सबसे पहले तो 2019 में विधानसभा चुनाव समाप्त होते ही बाबूलाल मरांडी जो हेमन्त सोरेन और महागठबंधन की कृपा से ही विधानसभा चुनाव जीते थे।

बाबूलाल मरांडी ने जब देखा कि हेमन्त सोरेन एक बहुत बड़े नेता के रुप में सामने आये हैं और खुद की राजनीतिक पकड़ धूमिल हो रही हैं तो उन्होंने राजनीतिक पलटी मारने की सोची। भाजपा को भी उस समय कोई नेता सूझ नहीं रहा था, उसे भी एक ऐसे राजनीतिक नेता की जरुरत थी कि उसमें कुछ दम हो, तो ले-देकर उसे बाबूलाल मरांडी दिखाई पड़े। बाबूलाल मरांडी ने आव देखा न ताव, भाजपा में शामिल हो गये।

भाजपा ने उन्हें तुरन्त नेता प्रतिपक्ष बनाने का प्रस्ताव रखा। लेकिन बाबूलाल मरांडी की बदली राजनीतिक महत्वाकांक्षा ने हेमन्त सोरेन के क्रोध को और बढ़ा दिया। हेमन्त सोरेन ने ऐसी राजनीतिक चाल चली कि बेचारे वे कभी नेता प्रतिपक्ष नहीं बन सकें। ले-देकर पार्टी ने भी अपना विचार बदला और उन्हें प्रदेश अध्यक्ष बना दिया। उनके प्रदेश अध्यक्ष बनाने के बावजूद भी जो भाजपा की वर्तमान स्थिति हैं।

वो बेहतर नहीं हैं, क्योंकि भाजपा के पास वर्तमान में कोई ऐसा नेता नहीं हैं, जो अपनी ओर एक अदद भीड़ खींच सकें। हाल ही में युवा आक्रोश रैली भाजपा ने करवायें। करोड़ों खर्च करने व मीडिया पर लाखों फूंकने के बावजूद भी पांच से सात हजार से ज्यादा की भीड़ भाजपा नहीं जुटा सकी। जो बताता है कि भाजपा वर्तमान में किस प्रकार की राजनीतिक संकट से गुजर रही हैं।

भाजपा हेमन्त सोरेन की सरकार से कितनी डरी हुई है। उसका अंदाजा इसी से लगाइये कि वो उत्तर प्रदेश से लक्ष्मीकांत वाजपेयी, मध्यप्रदेश से शिवराज सिंह चौहान और असम से हिमंता बिश्वा सरमा को हेमन्त सोरेन के पीछे लगा दी है। इसके बावजूद भी जब देखा कि हेमन्त सोरेन का हम बाल बांका नहीं कर पा रहे तो झामुमो में सेंध लगाने की सोची।

पहले से ही एन्वायड चल रहे लोबिन और चम्पाई को अपनी पार्टी में मिलाया। स्थिति ऐसी है कि भाजपाइयों के इन हरकतों से खुद भाजपा के कार्यकर्ता भी हैरान और परेशान है और वे भाजपा से दूरी बनाते चले जा रहे हैं। उनका कहना है कि जब झामुमो के नेताओं से ही पार्टी को मजबूती मिलनी है, तो उनके जैसे कार्यकर्ताओं का भाजपा में क्या काम?

कुछ तो सोशल साइट पर खूलेआम पार्टी के खिलाफ बिगुल बजा रहे हैं। कुछ तो कहते है कि पार्टी में नेताओं की कमी हो गई हैं क्या कि वे दूसरे दलों से आयात कर रहे हैं और जब नेता आयात कर रहे हैं तो कार्यकर्ता भी आयात कर लें। राजनीतिक पंडितों का कहना है कि लोबिन और चम्पाई के भाजपा में शामिल होने से जो भाजपा नेता ज्यादा खुश हो रहे हैं।

उन्हें गीता कोड़ा और सीता सोरेन की हार भी अच्छी तरह देख लेना चाहिए। राजनीतिक पंडितो की मानें तो लोबिन और चम्पाई के भाजपा में आने से झामुमो को उतना नुकसान नहीं हुआ, जो भाजपा को हुआ है। ये समझने की कोशिश ही नहीं कर रहे है कि उनके मतदाताओं पर इसका क्या इम्पेक्ट पड़ा है। मतदाता तो साफ कहने लगे है कि जब झामुमो के लोगों से ही भाजपा को पाटने का अभियान भाजपावालों ने चला रखा हैं तो सीधे इस बार झामुमो को ही हमलोग क्यों न वोट दे दें। इससे भाजपा के लोगों को पलटी मरवाने की मेहनत करने की जरुरत ही नहीं पड़ेगी।