अपनी बात

संपूर्ण क्रांति और जेपी को छोड़िये जी, हम इमरजेंसी में जेल गये, इसलिए पेंशन चाहिए

कल की ही तो बात है, पूरे देश में लोकनायक जयप्रकाश नारायण की जयंती मनाई जा रही थी। उस लोकनायक की, जिन्होंने संपूर्ण क्रांति का नारा दिया। जिन्होंने हर क्षेत्र में नई क्रांति कर, नई सोच के साथ समाज व देश निर्माण की कल्पना की थी, पर उनके मरते ही लोकनायक जयप्रकाश नारायण के चेलों ने क्या किया? सर्वप्रथम उनके आदर्शों का ही गला घोंटा दिया।

लोकनायक के नाम पर जमकर खेती की, पर उस खेती से किसका भला हुआ, ये वही बता सकते हैं, क्योंकि जनता को तो पता है कि लोकनायक के नाम पर इन्होंने कैसे अपने परिवारवाद को आगे बढ़ाया और देश की दुर्दशा कर दी।आज की जो राजनीतिक स्थिति है, उस राजनीतिक स्थिति में भारत की कौन ऐसी पार्टी हैं, जिसमें लोकनायक के आंदोलन से निकले नेता नहीं है।

कांग्रेस पार्टी में सुबोध कांत सहाय, लोकनायक की क्रांति की ही तो देन है। बिहार के लालू-नीतीश या दिवंगत रामविलास पासवान वो लोकनायक की क्रांति के ही तो उपज है, पर इन नेताओं ने लोकनायक को दिया क्या? सच्चाई यह है कि जिस इंदिरा गांधी के परिवारवाद को लोकनायक ने चुनौती दी, उस चुनौती को उन्होंने स्वयं अपनाकर लोकनायक को ही चूना लगा दिया।

दिवंगत रामविलास पासवान की पार्टी लोकजनशक्ति पार्टी हो या लालू की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल, दोनों परिवारवाद की खुबसूरत उदाहरण है, जबकि एक समय था, कि जनता पार्टी के पोस्टरों, बैनरों में खूब लिखा होता था, कि वो मतलब कांग्रेस चाहती है, परिवार का राज और हम चाहते है आप यानी जनता का राज, तभी तो जनता पार्टी का गठन हुआ, लेकिन आज ये खुद ही परिवारवाद का बीज बोकर बिहार की राजनीति को ही कलंकित कर दिया, लोकनायक के आदर्शों का ही गला घोंट दिया।

जो लोग राजनीति छोड़कर पत्रकारिता में आये, वे भी किसी न किसी प्रकार राजनीतिक सत्ता का स्वाद पाने के लिए कलम को राजनेताओं के आगे गिरवी रख दिया और राज्यसभा तक पहुंच गये। कितने लोगों को तो हमने देखा कि वे जाति तोड़ो-बंधन तोड़ो के तहत अंतररजातीय विवाह किये, पर एक पीढ़ी को भी अपने जैसा नहीं बना सके, अंततः जीवन भर जो बाबू साहेब थे, वे बाबू साहेब ही रहे और जो बाबा थे, वे अंत-अंत तक बाबा ही रह गये, तो फिर लोकनायक के इस जाति तोड़ो-बंधन तोड़ो का क्या मतलब?

जब आप अपने जीवन में ही उनके आदर्शों को लेकर एक कदम तक नहीं बढ़ा सके। आज भी मेरे पास कई उदाहरण है, जिन्होंने अपने बच्चों में लोकनायक के आदर्श को जन्म ही नहीं दिया, उनके बच्चे जातीयता के दलदल में आकंठ डूब कर, वहीं कर रहे है, जो सामान्य लोग कर रहे हैं, और उसके बाद भी उन्हें ये कामना है कि उन्होंने जेपी के आंदोलन के समय, इंदिरा जी द्वारा लागू आपातकाल के दौरान चूंकि जेल में रहे, इसलिए उन्हें भी स्वतंत्रता सेनानी की तरह आजीवन पेंशन चाहिए।

अब जरा सोचिये, लोकनायक अगर जिन्दा होते तो अपने इन चेलों को देखते तो क्या कहते? निःसंदेह अपना माथा पकड़ लेते कि किस पर उन्होंने भरोसा किया, ये तो भरोसा के लायक भी नहीं। कमाल है, लोकनायक जयप्रकाश की जयंती हो या पुण्य तिथि, ये उनकी प्रतिमा के पास जाकर फूल-मालाएं चढ़ा आयेंगे, पर उनकी बताई बातों पर अमल नहीं करेंगे, जब अमल ही नहीं करना है, उनके पथ पर चलना ही नहीं, तो फिर पेंशन किस बात की। जब संपूर्ण क्रांति को अपनी जातीयता में ही विलीन कर देना है, तो फिर आप किस मुंह से लोकनायक के नाम को अपनी जिह्वा पर लाते हैं।

मैं जहां रहता हूं, वहां देख रहा हूं, बहुत सारे ऐसे लोग है, जिनके घरों में जयप्रकाश नारायण की फोटो है, उनके घर में नारे भी है – अंधेरे में तीन प्रकाश, गांधी, लोहिया, जयप्रकाश, पर सच्चाई है कि ये नारे केवल उनके दीवारों पर स्थित फोटों में ही चिपक कर रह गये हैं, यानी जो व्यक्ति जयप्रकाश के जीवन चरित्र को अपने घर में या खुद में नहीं अपना सकता, उसे क्या हक है, जयप्रकाश के नाम को ढोने की, इसलिए कि जेपी के नाम पर उन्हें पेंशन की सुविधा मिल जाये, अगर ऐसी सोच हैं तो इस सोच से संपूर्ण क्रांति हो गई।