सुनो-सुनो नीतीश, जनता द्वारा रिजेक्टेड-आउटडेटेड नेताओं को लेकर झारखण्ड में JDU सरकार बनायेंगे
दो दिन पहले यानी 7 सितम्बर को हरमू के कार्निवल हॉल में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का एक कार्यक्रम था। यह कार्यक्रम झारखण्ड प्रदेश जदयू ने आयोजित किया था। जिसमें मंच पर वे सारे नेता मौजूद थे, जो कब के जनता द्वारा या तो रिजेक्ट कर दिये गये या जनता द्वारा आउटडेटेड घोषित किये जा चुके हैं, या जहां रहते हैं, वहीं पर इनकी कोई राजनैतिक हैसियत नहीं हैं।
स्थिति ऐसी है कि ये नगरपालिका की एक सीट तक नहीं जीत सकते, पर कहा जाता है कि “भागते भूत की लंगोटी काफी”, शायद इसी लोकोक्ति के बल पर नीतीश कुमार की पार्टी यानि जदयू ऐसे–ऐसे रिजेक्टेड–आउटडेटेड नेताओं को लेकर झारखण्ड में अपना खोया जनाधार वापस लाना चाह रही हैं।
एक समय था कि झारखण्ड में सत्ता की दूसरी राजनीतिक धूरी नीतीश की ही पार्टी हुआ करती थी, जब उनके लोग समता पार्टी के नाम से जाने जाते थे, बाद में जदयू नाम पड़ा और जिस प्रकार से इनके नेताओं ने झारखण्ड में राजनीतिक अस्थिरता का बीज बोया, उसका नतीजा यह निकला कि एक लोकोक्ति है कि “पंडित जी अपने तो गये ही, जजमान को भी लेकर चले गये” वाली कहावत जदयू के लिए चरितार्थ हो गई। इनके नेताओं ने जदयू को ही नहीं, बल्कि पूरे राज्य की जनता का सत्यानाश कर दिया और उसमें जदयू के ही बिहार के बड़े नेता ललन सिंह का बहुत बड़ा हाथ था, बाबू लाल मरांडी की चल रही सरकार पर पहला पत्थर ललन सिंह के नेतृत्व में इनके नेताओं ने ही उस वक्त चलाया था।
ऐसे तो खुद नीतीश कुमार पर भी आप विश्वास नहीं कर सकते, जब नीतीश बिहार में हाल ही में लालू के समर्थन से सरकार चला रहे थे, तब उन्होंने झारखण्ड में बाबू लाल मरांडी को एक बार फिर मुख्यमंत्री बनाने की बात कही थी, पर जैसे ही वे लालू की पार्टी को राजनीतिक तलाक दिये तथा भाजपा से नया–नया राजनैतिक प्रेमालाप–गठबंधन किया, उनका वो डॉयलॉग फिर अविश्वसनीय सिद्ध हो गया, साथ ही नीतीश कुमार भी अविश्वसनीय हो गये।
हालांकि उस दिन यानी 7 सितम्बर को बहुत बड़े–बड़े भाषण इनके राज्यस्तरीय नेताओं ने नीतीश के सामने दिये, पर सच्चाई क्या है? कोई जनाधार नहीं, क्योंकि इन्होंने कभी कुछ ऐसा किया ही नहीं, जिससे जनता जुड़ सकें। इन्होंने अपनी पूरी जिंदगी कभी भाजपा, कभी झाविमो, कभी कुछ, कभी कुछ में बिता दिया और इसकी भी कोई गारंटी नहीं कि ये जो 7 सितम्बर को कल मंच पर दिखे थे, वे आनेवाले विधानसभा चुनाव तक भी जदयू में रहेंगे ही।
जैसे ही इन्हें कहीं से कुछ मिलता दिखाई देगा, ये भाग खड़े होंगे, क्योंकि इनका आज तक यहीं काम रहा हैं, इसलिए आम जनता की नजरों में ये रिजेक्टेड व आउटडेटेड हैं। ऐसे जदयू की मर्जी उसे झारखण्ड में बनना है, या रहना है, या सत्यानाश होना है, वो समझे, लेकिन इतना भी तय है कि राज्य में जो 2000-2004 तक जो जदयू की स्थिति थी, वर्तमान में जदयू झारखण्ड मे कही नहीं हैं, और न ही नीतीश कुमार को यहां के लोग नेता मानने को तैयार हैं।
एक समय था जब झारखण्ड में भी कुर्मी समुदाय के लोग नीतीश कुमार को जातीय आधार पर अपना नेता मानते थे, पर झारखण्ड में नीतीश को टक्कर देने में अब एक से बढ़कर एक कुर्मी नेता हर पार्टी में मौजूद हैं, इसलिए जातीय आधार पर भी नीतीश को यहां ग्रहण लग चुका है। ऐसे भी भाजपा जो यहां मजबूत स्थिति में हैं, जदयू को घास देने को तैयार नहीं, क्योंकि वो जानता है कि झारखण्ड में जदयू कितनी मजबूत है?