मदर्स डे की आड़ में रिश्तों के बाजार में आ टिका वात्सल्य प्रेम, मैया अब मॉम बनी और बच्चा किड्स
जब मैया, मदर बन जाती है
तब मदर्स डे मन जाता है
जब मैया हाय-हैलो कहती है
तो दिल मचल सा जाता है
अंग्रेजी ड्रेस में जब मैया
थोड़ा सा ज्ञान उड़ेले तो
चारों और मदर्स-मदर्स का
शोर खूब मच जाता है
कल तक भारत में हर बच्चा
जो मैया-मैया चिल्लाता था
मैया के गोद में बैठकर
वो कृष्ण बन इठलाता था
कोई राधा बनकर मैया के
गोद में सोया करती थी
आज वह सिम्फन बनकर
देखो मदर-मदर चिल्लाती है
और मदर को इलू-इलू कहकर
मदर्स डे खूब मनाती है
कल मैया, अरे मैया थी
आज मॉम कहलाती है,
बच्चा भी अब किड बनकर
देखो खूब इतराता है।
इस झूठ के रिश्तों में
मिटा रस-वात्सल्य यहां
मदर्स डे की आड़ में
बिकता अमूल्य रिश्तों
का प्यार यहां…
चारो ओर मदर्स डे की धूम है। आज एक अखबार में झारखण्ड के मुख्यमंत्री रघुवर दास का आलेख छपा है। आलेख है –बहुत याद आती है मां। यह मदर्स डे पर सीएम द्वारा उस अखबार के माध्यम से जनता को एक एक्सक्लूसिव भेंट है। आम तौर पर ऐसा आलेख कोई मुख्यमंत्री नहीं लिखता, यह किसी व्यक्ति विशेष के द्वारा लिखवाया जाता है और फिर उसे किसी विशिष्ट के नाम पर अखबारों के माध्यम से उड़ेल दिया जाता है।
अब सवाल सामान्य व्यक्ति से, क्या कोई बता सकता है कि भारत या विश्व के किसी अन्य देश में जैसे हम अपने यहां 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस मनाते है, उसी प्रकार अंग्रेजी दिवस वहां कब और किसी तिथि को मनाया जाता है? इस प्रश्न का उत्तर कोई नहीं दे सकता, क्योंकि कहीं भी अंग्रेजी दिवस नहीं मनाया जाता हैं, ऐसा इसलिए कि कोई भी दिवस तभी मनाने की आवश्यकता पड़ती है, जब हम उसके अस्तित्व को भूलने या खोने लगते है, तो ऐसे में हम उसके अस्तित्व को भूले नहीं, खोये नहीं, इसलिए ऐसे दिवस मनाने की आवश्यकता पड़ जाती है कि कम से कम लोग, साल में एक दिन भी उसके महत्व को समझे। अब सवाल उठता है कि अपने देश में मदर्स या फादर्स डे की आवश्यकता क्यों पड़ी? उस देश में क्यों आवश्यकता पड़ी, जहां का उपनिषद कहता है –
मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, आचार्य देवो भव, अतिथिदेवो भव। – तैत्तिरयोपनिषद्
जहां के गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस के पन्नों में लिखा है –
प्रातकाल उठि कै रघुनाथा। मातु पिता गुरु नावहिं माथा।।
आयसु मागि करहिं पुर काजा। देखि चरित हरषइ मन राजा।।
अर्थात् भगवान राम जैसे ही प्रातःकाल में उठा करते थे, वे अपने माता, पिता और गुरु के आगे प्रतिदिन सर नवाया करते थे, उनके आशीर्वाद प्राप्त कर, उनसे आज्ञा मांग कर ही कोई काम किया करते, जिस चरित को देख उनके पिता मन ही मन हर्षित रहते थे।
कहने का तात्पर्य यह है कि जिस देश में प्रतिदिन मां, पिता और गुरु को स्मरण करने, उनके आगे सर झूकाने, उन्हें सम्मान देने की परम्परा रही है, वहां इस प्रकार की बेकार-बेफजूल की चीजें, या दिन मनाने की आवश्यकता क्यों? वो इसलिए कि अब सही मायनों में हम भी विदेशियों की तरह, अपना जन्मदिन मनाने लगे हैं, अपनी संस्कृति को खोने लगे हैं, अपने आहार-विहार और आचरण को खोने लगे हैं और ऐसा होने से हम अपने माता-पिता के प्रति जो हमारी ड्यूटी होती थी, उसे तिलांजलि दे दिये तब ऐसे में मदर्स डे मनाना ही पड़ेगा और इसे मनाने के लिए भी, मदर्स डे कैसे मनाये? इसके लिए आपको अखबारों व चैनलों का सहारा लेना पड़ेगा। चरित्रहीन एवं पतित संपादकों और राजनीतिज्ञों का समूह आपको ज्ञान देगा, और आप उनके उस कथित ज्ञानों से आप आह्लादित होकर परम सुख पाने का ढोंग करेंगे तो फिर वहीं होगा, आप शीघ्रातिशीघ्र अपने संपूर्ण परिवारों के साथ रसातल में जाने को उत्सुक होंगे।
जरा आप अपने माता-पिता से ही पूछिये, जिनकी उम्र चालीस या पचास साल की होगी, कि क्या वे अपने जीवन में कभी मदर्स डे मनाया करते थे? अरे वे मनायेंगे क्या? उन्हें मनाने की जरुरत ही नहीं थी, क्योंकि प्रतिदिन उनका मदर्स डे हुआ करता था। खाना खाने बैठे, मां खाना खिला रही है, भर-भर कौर हाथों से खिला रही है और लीजिये जब बच्चे ने खाने से इनकार किया तो लीजिये मां, थाली में ही कई भोजन के कई कौर बना दे रही है, और कह रही है, जल्दी से खा लो, नहीं तो ये उड़ जायेंगे। बच्चा मुस्कुराता है और वह उन भोजन के कौरों को उड़ने नहीं देता, वह ग्रहण कर रहा है, अंत में बच्चा मुस्कुराता है, मां भी हंस देती है और अपने हाथों से बच्चे का मुंह धो, अपने आंचल से उसे पोछ देती है, वह यह भी नहीं देखती कि उसका आंचल गंदा हो जायेगा। ये मां और बेटे का प्यार क्या किसी मदर्स डे का मोहताज है?
एक तरफ देखिये, बच्चा छोटा है। मां अपनी साड़ी को धूप में सुखा रही है और बच्चा मां की ही साड़ी को पकड़कर घुमरी खेल रहा है, और मां सामने से देख रही है, और प्रसन्न हो रही है और एक आज का बच्चे को देखिये। आज से डेढ़ साल पहले मैं चुटिया के रामनगर में किराये के मकान में रह रहा था, जहां मैं किराये के मकान में रहता था, वहां ठीक सामने अनिल जी की दुकान है। मैने देखा कि एक बेटी अपनी मां को पीछे अपने स्कूटी में बैठाकर, दुकान पर लाती है। मां झट से अनिल जी को कहती है कि जरा दो अच्छे ब्रेड और कुछ सॉस के पैकेट दे दीजिये। मां उन सामानों को लेकर अपने बेटी को देते हुए कहती है कि बेटी इसे रख लो, कॉलेज में समय मिले तो खा लेना। बेटी कहती है – मां तुम एकदम डफर है, कब तुमको अकल आयेगी, समझ नहीं आता।
ये आज की बेटी है, जो मां को डफर कह रही है, क्या कोई बता सकता है कि डफर का मतलब क्या होता है? पर वो कल की मां थी, जो अपने मां से सीखी थी, वो बेटी को कुछ देना चाहती थी, सब कुछ प्यार के माध्यम से देना चाहती थी, पर बेटी लेने को तैयार नहीं, क्योंकि वो मां में उसे मूर्खता नजर आ रहा था, सचमुच हम बहुत तेजी से आगे बढ़ रहे हैं, मां को खो रहे हैं, मां के वात्सल्य को खो रहे हैं और मदर्स डे मना रहे हैं। आखिर ये झूठ का उत्सव कब तक मनाते रहेंगे। सुधरिये, जल्द सुधरिये और इन बेकार की उत्सवों में न डूबकर भारतीयता के रंग में रंगिये, मैं दिल से कह रहा हूं कि आपको बहुत मजा आयेगा।