मेरी दक्षिण भारत यात्रा
मेरे बड़े बेटे को घुमने का बहुत शौक है, वह कई सालों से दबाव डाल रहा था कि पापा जी कहीं घुमने निकला जाय। संयोग से ईश्वरीय कृपा हो गईं, माहौल अनुकूल हुआ और हम सपरिवार दक्षिण भारत की यात्रा पर निकल पड़े। 3 सितम्बर 2017 को हम सपरिवार 18616 हटिया हावड़ा क्रियायोग एक्सप्रेस से हावड़ा के लिए निकल पड़े। रांची से हावड़ा यात्रा के दौरान हमें कहीं टीटीई दिखाई नहीं पड़ा, और न ही हमारे टिकट की जांच हुई, सुरक्षा के नाम पर एक दो पुलिसकर्मी इधर से उधर टहलते दीखे और दूसरे दिन हावड़ा स्टेशन हम करीब एक घंटे लेट पहुंचे।
हमने शीघ्र बच्चों से राय ली कि यहां करना क्या है? बच्चों ने कहा कि कन्याकुमारी एक्सप्रेस चूंकि अपराह्ण 4 बजे है, इसलिए हमारे पास इन बचे समयों में दक्षिणेश्वर घुम आना चाहिए। हमने तुरंत दो कार लिये और दक्षिणेश्वर की ओर चल दिये। कहा जाता है कि जब आप यात्रा की शुरुआत करते है और पहली ही बार में शुभ-शुभ हो जाये, तो शुभ यात्रा का सिग्नल साफ दिखने लगता है। कार चालक ने बड़ी ही सुगमता के साथ, बिना किसी रोक-टोक के सीधे दक्षिणेश्वर मंदिर तक ले गया। वहां हमने अमानती घर में अपना सामान रखा और मां दक्षिणेश्वरी के दर्शन के लिए निकल पड़े। दक्षिणेश्वर मंदिर पहुंचकर इतना आनन्द आया कि पूछिये मत।
हमें याद है कि जब मेरे बड़े बेटे का साक्षात्कार कोलकाता के निजाम हाउस में था, तबसे मेरे मन में दक्षिणेश्वर घुमने की इच्छा थी, पर कहा जाता है कि जब तक ईश्वरीय कृपा नहीं बरसती, आप कुछ नहीं कर सकते।
इसी ईश्वरीय कृपा पर गोस्वामी तुलसीदास ने श्रीरामचरितमानस में लिखा है –
अब मोहि भा भरोस हनुमंता।
बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं संता।।
शायद ईश्वरीय कृपा बरसी और हम 4 सितम्बर 2017 को सपरिवार मां दक्षिणेश्वरी का दर्शन कर रहे थे। दक्षिणेश्वरी का दर्शन करने के बाद हम सब ने वहां स्थित छोटे-छोटे मंदिरों में विराज रहे भगवान शिव, राधाकृष्ण और एक कोने में रामकृष्ण परमहंस के कोठी का दर्शनलाभ किया। सचमुच इस स्थान पर आकर हमें वह आध्यात्मिक सुख मिला, जिसकी हम कल्पना नहीं कर सकते और इसके बाद हमने वहीं थोड़ा अल्पाहार लिया और फिर निकल पड़े हावड़ा ब्रिज की ओर।
हावड़ा ब्रिज प्रत्येक भारतीयों को अपनी ओर आकर्षित करता है, ऐसे भी कोलकाता आये और आपने हावड़ा ब्रिज नहीं देखा, दक्षिणेश्वर दर्शन करने नहीं गये, तो फिर आपने कुछ नहीं देखा। कोलकाता या हावड़ा आनेवाले लोग दक्षिणेश्वर का दर्शन करने जरुर ही जाते है, और चूंकि जब हावड़ा आप आ रहे हैं तो हावड़ा स्टेशन से निकलते ही हावड़ा ब्रिज आपका स्वागत करने को तैयार रहता है, जिसकी कलाकृति देख आप स्वयं दंग रह जायेंगे।
इधर घड़ी की सूईयां हमें बता रही थी कि 12665 हावड़ा-कन्याकुमारी एक्सप्रेस के खुलने का समय निकट आ रहा है। हम हावड़ा स्टेशन के 23 नंबर प्लेटफार्म पर आये और वहां अमानती घर पर रखे अपने बैग्स और बॉक्स को बाहर निकाला और ट्रेन का इंतजार करने लगे। नियत समय पर हावड़ा कन्याकुमारी एक्सप्रेस 23 नंबर प्लेटफार्म पर लग चुकी थी। अपने बच्चों ने जल्द से एस टू बॉगी में अपना सामान रखा और हमलोग भी अपने –अपने स्थान पर बैठ गये।
इस ट्रेन में बैठते ही ज्यादातर अहिन्दीभाषियों से मेरी मुलाकात हुई, जो ज्यादातर मलयालम, तमिल, तेलुगू, उड़िया, बंगला आदि भाषाओं में आपस में बात कर रहे थे। भले ही उनकी भाषा हमें समझ में नहीं आ रही थी, पर उनके बात करने का अंदाज और भाषाई प्रतिबद्धता तथा आपसी प्रेम देखकर, मैं अभिभूत था। आश्चर्य हमें तब लगा कि वे हिन्दी नहीं बोल पाते थे, पर वे हमारी बातों को समझ लिया करते थे, और जहां कहीं भी भाषाई समस्याएं आती, वे दिमाग पर जोर लगाकर उसे समझने का प्रयास करते। शुरुआत में तो हमें लगा कि हमें इनके कारण दिक्कत होगी, पर हम गलत निकले, इनकी सहजता ने हावड़ा से कन्याकुमारी की 42 घंटे की रनिंग को और शानदार बना दिया।
ट्रेन में कैटरिंगवालों का व्यवहार भी प्रशंसनीय था, बात-बात में मुस्कुराकर जवाब देना, पैसे के लेन-देन में व्यवहारिकता और सभी से मीठे बोल, यानी कड़ुवाहट की कोई जगह ही नहीं। हां एक बात और जैसे रांची से हावड़ा आने के दौरान हमें एक भी टीटीई नहीं दिखाई पड़ा, ठीक उसी प्रकार हम इस ट्रेन से दूसरे दिन यानी 5 सितम्बर को करीब 8 बजे विशाखापत्तनम तक पहुंच गये, पर हमें टीटीई के दर्शन नहीं हुए, न तो हमारे टिकटों की जांच हुई और न ही कोई सुरक्षा के चिह्न दिखाई पड़े, जबकि सनद रहें, रेलवे सुरक्षा के लिए अलग से यात्रियों से शुल्क भी वसूलती है।
हावड़ा से कन्याकुमारी पहुंचने के दौरान यह ट्रेन विशाखापत्तनम आते-आते 45 मिनट लेट, उसके बाद तेनाली स्टेशन पर यह ट्रेन करीब एक घंटे खड़ी रही, बिट्रागुंटा में करीब एक घंटे और इस प्रकार चेन्नई एग्मोर आते-आते यह ट्रेन करीब चार घंटे विलम्ब हो चुकी थी। तेनाली स्टेशन पर जब गाड़ी घंटों रुकी रही तब हमने गार्ड से पूछा कि ट्रेन यहां क्यों रुकी है? तब गार्ड ने बताया था कि आगे लाइन मरम्मति का काम चल रहा है, इसलिए ट्रेन खड़ी है।
इसी दौरान मैं और मेरे दोनों बेटों ने तेनाली प्लेटफार्म का चक्कर लगाया, हमने देखा कि स्टेशन पर साईबाबा, बजरंगबली, भगवान वेंकटेश और जीसस के बड़े-बड़े चित्र लगे थे। यह चित्र बता रहे थे कि यहां के लोग कितने धार्मिक होते है! और उनकी धार्मिकता किस प्रकार की है! जब तेनाली स्टेशन से ट्रेन आगे बढ़ी, फिर बिट्रागुंटा स्टेशन में हावड़ा कन्याकुमारी एक्सप्रेस को साइड लाइन में खड़ा कर दिया गया और चेन्नई गरीब रथ एक्सप्रेस तथा केरला एक्सप्रेस को पास करा दिया गया। इसी बीच चेन्नई एग्मोर के पूर्व में भी छोटे-छोटे स्टेशनों पर ट्रेन पन्द्रह से बीस मिनट तक रुकी रही, शायद प्लेटफार्म खाली न रहने की वजह से ऐसा हुआ हो, पर कारण पता नहीं चल सका। ऐसे भी हमारे देश में ट्रेन अगर सही समय पर अपने गंतव्य तक पहुंच जाये तो इसे बहुत ही गौरववाली बात मानी जाती है और इस प्रकार हमारी ट्रेन कन्याकुमारी पहुंचते-पहुंचते पूरे पांच घंटे लेट हो चुकी थी।
इस ट्रेन की खासियत यहीं रही कि इसमें साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखा गया था, हर समय ट्रेन में रह रहे सफाईकर्मी, बॉगियों के शौचालय की सफाई और पूरे कम्पार्टमेंट की सफाई का विशेष ध्यान रख रहे थे। हमारे यहां जो भिखमंगों और डेंड्राइट पीनेवालों का समूह जो अपने शर्ट-पैंटों अथवा बिखड़े तिनकों से जो सफाई करने के बाद, यात्रियों से पैसों के लिए टकटकी लगा रहे होते है, वैसी स्थिति कही दिखाई नहीं पड़ी।
कन्याकुमारी स्टेशन आने के पहले ही दोनों ओर से समुद्र का दिखाई पड़ना, हमारे बच्चों को रोमांचित कर दिया था, कन्याकुमारी स्टेशन आने के पूर्व ट्रेन से पवन उर्जा के लिए बने बड़े बड़े विशालकाय डैनों को देख बच्चे खुश हो रहे थे, उन्होंने इसे किताबों में सिर्फ पढ़ा था, आज वे प्रत्यक्ष देख रहे थे, यह भी इन्हें सुख का ऐहसास दिला रहा था। रास्ते में छोटे-छोटे स्टेशन और उसकी खुबसुरती तथा साफ-सफाई देख सभी अचंभित थे, और ये कहने पर मजबूर कि जब यहां इतनी साफ-सफाई है, तो फिर हमारे यहां ऐसा क्यों नहीं। ट्रेन के खिड़कियों से दीख रहे छोटे-छोटे गांव और कस्बों में भी कहीं गंदगी नहीं दिखाई पड़ रही थी, सारे के सारे व्यवस्थित और साफ सुथड़े।
इधर हम 6 सितम्बर को करीब ढाई बजे दोपहर में कन्याकुमारी स्टेशन पहुंच चुके थे। जैसे ही स्टेशन से बाहर निकले, हमने टैक्सी ली और पहुंच गये विवेकानन्द केन्द्र। विवेकानन्द केन्द्र में हम सभी नरेन्द्र भवन के रुम नं. 912, 913 और 914 में ठहरे और चल पड़े सबसे पहले यहीं पर बने रेस्टोरेंट की ओर, वहां भोजन किया और फिर उसके बाद सनराइज प्वाइंट की ओर। जैसे ही सागर के दर्शन हुए, विवेकानन्द रॉक और तिरुवल्लुवर की विशालकाय प्रतिमा पर नजर पड़ी, हम सभी की सारी ट्रेन की थकान छू-मंतर हो चुकी थी।
छोटा बेटा पहली बार सागर का दर्शन कर रहा था। उसने कहा – पापाजी, हम पहली बार समुद्र देख रहे है, उसका यह कहना मुझे अंदर से झकझोर दिया था, द्रवित कर दिया था। हमारे परिवार के ऐसे सभी सदस्य समुद्र कई बार देख चुके थे, पर संयोग नहीं बना, मेरा छोटा बेटा समुद्र नहीं देख पाया था, अचानक उसके मुख से ये शब्द निकल पड़े थे।
इसके बाद हमलोग कन्याकुमारी मंदिर की ओर चल पड़े। वहां महाशक्ति के दर्शन किये, फिर अरब सागर, हिन्दमहासागर और बंगाल की खाड़ी की जल को समेटता एक जगह जिसे स्थानीय लोग त्रिवेणी संगम कहते है, वहां स्नान किया। छोटे बेटे को समुद्र में स्नान करता मैंने पहली बार देखा था, उसकी आंखों की चमक कुछ कह रही थी, बहुत ही प्रसन्न। उसने हमें भी समुद्र में लाकर कई बार समुद्र की लहरों में भिंगोने की कोशिश की, हम तो बच्चों के इस भाव को देख, अतिप्रसन्न थे। ईश्वर को साधुवाद दे रहे थे, यह कहकर, हे ईश्वर अगर संतान दो, तो इन्हीं बच्चों की तरह। दोनों बच्चे मेरा और अपनी मां का विशेष ध्यान रख रहे थे। शायद वे धर्म के मूल स्वरुप को जान चुके थे।
दूसरे दिन यानी 7 सितम्बर को हम विवेकानन्द केन्द्र के ही सनराइज प्वाइंट स्थल पर पहुंचे, जहां बड़ी संख्या में लड़कियां साड़ी पहने सूर्योदय होने का इंतजार कर रही थी, बड़ी संख्या में ध्यानियों का समूह भी वहां पहुंच चुका था तथा वह ध्यानमग्न था। इधर सूर्योदय होने चला और उधर लड़कियों का समूह प्रभाती गाना प्रारंभ की। भगवान भास्कर की प्रार्थना और उसके बाद महाशक्ति कन्याकुमारी की प्रार्थना, संस्कृत भाषा की मंगलध्वनि सभी के कानों में मिश्री घोल रही थी एवं हृदय को पवित्र करती जा रही थी।
इसके बाद हम सभी कन्याकुमारी तट से बोट द्वारा विवेकानन्द रॉक पहुंचे, वहां कन्याकुमारी के चरणचिह्न देख तथा विवेकानन्द की विशालकाय प्रतिमा देख सभी आह्लादित थे। कमाल की बात थी जिस विवेकानन्द को कभी आगे आने से जो लहरें रोक रही थी, वहीं लहरें उनके चरणों को छूने को लालायित दीख रही थी। वहीं बने ध्यान केन्द्र और ओ3म् की ध्वनि हमारे मन-मस्तिष्क ही नहीं बल्कि हमारे हृदय की तरंगों को झंकृत कर रही थी, शायद वह बता रही थी कि इन्हीं तरंगों में खो जाने का नाम अध्यात्म है।
यहां सुबह के आठ बजे से 4 बजे तक ही आप आ सकते है, बाकी समय यहां आना संभव नहीं, क्योंकि इसी दौरान सिर्फ बोट सुविधा उपलब्ध है, पास में ही तिरुवल्लुवर की प्रतिमा है जहां हमलोग नहीं जा पाये, क्योंकि वहां मरम्मति और सौंदर्यीकरण का काम चल रहा था। यहां से लौटने के बाद हम पहुंचे गांधी मंडप और कामराज मंडप जहां इन दोनों महान नेताओं के स्मृतियों से हम परिचित हुए।
शाम को हम विवेकानन्द केन्द्र में ही बने विवेकानन्द स्मृति केन्द्र, भारतमाता सदनम् और रामायण मंदिर का दर्शन किया। भारतमाता सदनम् और रामायण मंदिर देखनेलायक है। विवेकानन्द स्मृति केन्द्र की जितनी प्रशंसा की जाय कम है। जो लोग कन्याकुमारी आये और यहां न पहुंचे तो समझ लीजिये, वे बड़ी भूल कर रहे है, क्योंकि विवेकानन्द से जुड़ी चीजों को चित्रों के माध्यम से यहां ऐसा वर्णन किया गया है कि जिसकी जितनी प्रशंसा की जाय कम है। रामायण मंदिर में प्रवेश के दौरान शिव की जटाओं से निकलती धाराएं, तथा विशालकाय हनुमान की प्रतिमा आपको बरबस अपनी ओर खीचती है। विवेकानन्द केन्द्र की शांति तथा यहां रह रहे भयरहित पशुपक्षी भी आपको बहुत आनन्दित करते है।
शाजी जोसेफ हमारे परम मित्र है। उनसे मुलाकात रांची में हुई थी। चूंकि मेरा बेटा फेसबुक लाइभ भी करा रहा था। उसी फेसबुक लाइभ के दौरान शाजी जोसेफ जी को पता चला कि मैं कन्याकुमारी में हूं। उन्होंने हमसे सम्पर्क किया और तिरुवन्नतपुरम आने को कहा। मैंने तुरंत अपने बच्चों को तिरुवन्नतपुरम जाने को तैयार किया और अहले सुबह यानी 8 सितम्बर को तिरुवन्नतपुरम पहुंच गये। शाजी जोसेफ जी ने कहा था कि मैं सुबह साढ़े छह बजे पद्मनाभमंदिर पहुंच जाऊं। मैं सपरिवार उनके कथनानुसार पदमनाभ मंदिर पहुंच गया था।
शाजी जी ने यहां विशेष व्यवस्था करा दी थी, जिनके कारण मैं और मेरा परिवार बहुत अच्छे ढंग से भगवान पद्मनाभ का दर्शन किया साथ ही मंदिर के गूढ़ रहस्यों से परिचय प्राप्त किया। अगर शाजी जोसेफ जी यहां नहीं होते तो हम सभी तिरुवन्नतपुरम की यह अतिप्रसिद्ध मंदिर का विशेष दर्शन नहीं कर पाते। इसके बाद शाजी जी अपने घर ले गये और वहां हमने सुबह का नाश्ता किया तथा घंटों झारखण्ड से संबंधित तथा पारिवारिक बातचीत की और फिर निकल पड़े, केरल के कोवलम तट पर।
केरल का कोवलम तट अंतरराष्ट्रीय समुद्री तट है, बेहद सुंदर, बेहद आकर्षक, बड़ी संख्या में यहां पर्यटक आते है और यहां बने महंगे होटलों में ठहरते है, सचमुच यह कोवलम तट अपनी सुंदरता के लिए अगर इठलाता है तो गलत नहीं।
कोवलम के आगे ही एक छोटे से इलाके में बोटिंग का हमलोगों ने आनन्द लिया, सचमुच छोटे-छोटे किनारों तथा घने जंगलों से होता हुआ बोटिंग का मजा, फिर समुद्र तट पर बने छोटे-छोटे कॉटेजों और नदी तथा समुद्र का एक ही जगह मिलन, अरब सागर का आनन्द हमें रोमांचित कर दिया। फिर तिरुवन्नतपुरम से कन्याकुमारी लौटने के क्रम में शुचीन्द्रम मंदिर पहुंचे, जहां हमनें भव्यतम अति प्राचीन करीब दो हजार साल पुराना मंदिर का दर्शन किया और सायं करीब 8 बजे रामेश्वरम जाने के लिए कन्याकुमारी स्टेशन पहुंच गये।
8 सितम्बर को कन्याकुमारी के प्लेटफार्म नंबर एक से करीब रात्रि के दस बजे 22622 कन्याकुमारी रामेश्वरम सुपरफास्ट एक्सप्रेस खुल गई थी और रामेश्वरम आते – आते एक डेढ़ घंटे विलम्ब हो गई। इस ट्रेन में भी टीटीई के दर्शन नहीं हुए और न ही टिकट की जांच हुई। 9 सितम्बर को रामेश्वरम स्टेशन आने के पूर्व डेढ़ घंटे विलम्ब होने का फायदा यह हुआ कि हम पम्बन स्टेशन पर बने रोमांचित करनेवाले समुद्रीय रेल पुल का अविस्मरणीय दृश्य देखा, मेरे दोनों बच्चे शांत समुद्र और उस पर बने पुल पर से गुजरते कन्याकुमारी-रामेश्वरम सुपरफास्ट एक्सप्रेस को देख रोमांचित थे। ट्रेन रामेश्वरम स्टेशन पर करीब साढ़े छह बजे सुबह पहुंच चुकी थी और हमे तमिलनाडू होटल आते – आते सात बज गये।
तमिलनाडू होटल आते-आते जल्द ही सभी ने स्वयं को रामेश्वर मंदिर जाने का निर्णय किया और मंदिर की ओर चल दिये। मंदिर जाने के पूर्व शांत समुद्र में सभी ने स्नान किया, फिर 22 कूपों में स्नान करने के लिए निकल पड़े। फिर वस्त्र बदला और चल पड़े गर्भगृह की ओर। जहां रहते है भगवान राम के आराध्य, जहां रहते है भगवान शिव, जिनके हृदय में विराजते है भगवान राम। श्रद्धालु पंक्तिबद्ध, कोई संघर्ष नहीं, किसकी क्या जाति? किसकी कौन सी भाषा? किसका कौन सा रंग? कोई सवाल ही नहीं? सभी के हृदय में एक ही भाव, भगवान राम के आराध्य शिव का दर्शन करना है। उस शिवलिंग का दर्शन करना है, जिसे भगवान राम ने स्थापित किया। हम भी उस अद्भुत शिवलिंग का दर्शन कर रहे थे, पूरा परिवार भगवान के इस दिव्यरुप का दर्शन कर रहा था, सभी पुलकित थे।
रामनाथ मंदिर से निकलने के बाद हम पहुंचे गंधमादन पर्वत जहां श्रीराम के चरणचिह्न है, जहां से हनुमान ने लंका प्रस्थान करने के लिए छलांग लगाई थी। उसके बाद हम उस स्थल पर पहुंचे जहां श्रीराम ने सीता की प्यास बुझाने के लिए तीर द्वारा कुएँ खोद डाले थे, उसके बाद हम पहुंचे लक्ष्मणेश्वर मंदिर जहां लक्ष्मण ने स्वयं के द्वारा शिवलिंग बनाकर शिव को स्थापित किया। उसके बाद हम पहुंचे एपीजे अब्दुल कलाम मेमोरियल हाल, जिसे हाल ही में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राष्ट्र को सर्मपित किया। सचमुच यह देखनेलायक और ज्ञानवर्द्धन के लिए सराहनीय है।
इसके बाद हम पहुंचे विभीषण मंदिर जहां श्रीराम ने विभीषण को लंका विजय के बाद राज्याभिषेक किया और फिर उसके बाद धनुषकोडि। धनुषकोडि पहुंचने के क्रम में सड़क के दोनों ओर समुद्र, एक ओर शांत और एक और उग्र। पर्यटकों को रोमांचित करता है। यह वहीं इलाका है, जहां श्रीराम ने नल-नील की सहायता से सेतु बनाया, जिसे श्रीराम सेतु कहा जाता है। यहां का दृश्य बहुत ही मनोरम है।
दूसरे दिन यानी 10 सितम्बर को हम रामेश्वरम से पैसेंजर ट्रेन से मदुरै की ओर चल दिये। करीब 10 बजे हम मदुरै पहुंचे और सीधे तमिलनाडू होटल पहुंचे। सायं 4 बजे हम सपरिवार मदुरै मीनाक्षी मंदिर पहुंचे। सचमुच विशालकाय मंदिर है। यहां भगवान शिव सुन्दरेश्वर तथा पार्वती मीनाक्षी के नाम से जानी जाती है, भगवान गणेश और कार्तिकेय की भी यहां प्रतिमा है। यहां संग्रहालय भी है, जो दर्शनीय है। प्रमुख मंदिरों में गैर-हिन्दूओं को इजाजत नहीं है, वहां सिर्फ हिन्दू ही जा सकते है। मंदिर की इतनी सुंदर व्यवस्था है कि कहीं कोई अप्रिय घटना हो ही नहीं सकती। सुरक्षा व्यवस्था भी इतनी चाक चौबंद की क्या कहना।
और इस प्रकार हमारी दक्षिण भारत यात्रा संपन्न होने जा रही थी। इसके बाद हम 11 सितम्बर को 12636 वैगाई एक्सप्रेस से चेन्नई एग्मोर के लिए निकल पड़े। चेन्नई एग्मोर में हम सब ने अमानती घर में सामान रखा और टैक्सी से निकल पड़े चेन्नई के मरीना बीच पर, वहां जमकर स्नान किया। मरीना बीच के अलौकिक सौंदर्य को निहारा और फिर देर रात पहुंचे, कामराज डोमेस्टिक एयरपोर्ट और दूसरे दिन यानी 12 सितम्बर को सुबह 6.30 बजे इंडिगो विमान से नईदिल्ली एयरपोर्ट के लिए रवाना हुए और फिर वहां से पूर्वाह्न 11.50 बजे इंडिगो विमान से रांची के लिए रवाना हो गये और इस प्रकार हमारी दक्षिण भारत यात्रा संपन्न हो गई।
विवरण देखते ही शुरू से अंततक एक सांस में पढ़ डाला । बहुत ही रोचक, सूचनाप्रद और जीवन्त लगा । विवेकानंद केन्द्र में ठहरने की व्यवस्था अग्रिम अपेक्षित है या पहुचने के बाद सम्भव है । अन्य स्थलों पर ठहरने एवं परिवहन साधन की सलाह दें । मैं दिसम्बर/जनवरी में तींन चार पारिवारिक मित्रों के साथ (लगभग दस व्यक्ति) जाने की सोच रहा हूँ । टूर आपरेटर से या अपनी वयवस्था से जाँय यही तय करना है ।