अपनी बात

अब राजभवन जाकर एयरपोर्ट व रेलवे स्टेशन की पार्किंग में मुफ्तखोरी व अपनी कंडीशन ठीक करवाने की गुहार लगा दी रांची प्रेस क्लब ने

रांची प्रेस क्लब में एक से एक पदाधिकारी इस बार चुने गये हैं। ये वो लोग हैं, जिन्हें ये पता ही नहीं कि किससे क्या मांगना चाहिए, बस हाथ में एक ज्ञापन लेकर कहीं भी मुंह बा कर ये खड़े हो जाते हैं और अपनी हंसी तो उड़वाते ही हैं, साथ ही राज्य के सम्मानित पत्रकारों की भी इज्जत ले लेते हैं। जैसे हाल ही में ये लोग गांडेय की विधायक कल्पना सोरेन से मिलकर मांग कर दी कि रांची प्रेस क्लब में बार खुले इसके लिए वो पहल करें।

इस बार राजभवन जाकर राज्यपाल सीपी राधाकृष्णन से मांग कर दी कि झारखण्ड सरकार को अन्य राज्यों के मॉडलों का अध्ययन करना चाहिए और राज्य में पत्रकारों की स्थिति में सुधार की दिशा में काम करना चाहिए। अब सवाल उठता है कि क्या सचमुच राज्य के सारे पत्रकारों की दयनीय स्थिति हो गई। वे हैंड टू माउथ हो गये। उन्हें रोटी के लाले पड़ गये, उन्हें एक आवास तक नहीं, दवा तक उपलब्ध नहीं कि राज्य सरकार पत्रकारों को विशेष सुविधा देने के लिए दूसरे राज्यों में अध्ययन करने के लिए एक विशेष दल भेजेगी।

हद हो गई। ये राजभवन जाकर रेलवे स्टेशन व एयरपोर्ट में पार्किंग में मुफ्तखोरी की सुविधा मिल जाये, इसके लिए ये ज्ञापन देने तक पहुंच जाते हैं और आश्चर्य यह भी कि राजभवन ऐसे लोगों के साथ मिलकर उस ज्ञापन को स्वीकार ही नहीं करता, बल्कि इनके साथ फोटो खींचवाकर इसे जारी भी करता है। धिक्कार है, रांची के प्रेस क्लब में बैठे मार्गदर्शक मंडल में बैठे तथाकथित शंकराचार्यों का, कि वे भी ग्रामीण क्षेत्रों में विवाहित दूल्हे की तरह अपने मुंह पर रुमाल रखकर आराम से बैठे हैं और ये पूछते ही नहीं कि भाई तुम्हारी इन हरकतों से हमारे सम्मान का भी फलूदा निकल रहा है।

दरअसल इनलोगों को पता ही नहीं कि किससे क्या मांगना चाहिए और सही मायनों में पत्रकारों की मूल आवश्यकताएं क्या हैं? न तो इन्होंने इस पर कभी चर्चा की, न बैठके बुलाई, जो दिमाग में आ गया, चार लोगों को लिया और चल दिये राजभवन, चल दिये मुख्यमंत्री आवास। चूंकि ये सब रांची प्रेस क्लब से जुड़े हैं, प्रेस क्लब के नाम पर इनको मिलने की सुविधा हर जगह मिल जाती है, जिसका ये मूर्खता रुपी लाभ उठाते हैं। आप खुद इस ज्ञापन को देखिये और अंदाजा लगाइये। कि चार मांगों में कौन सी मांगें पत्रकारों के मूल आवश्यकताओं को रेखांकित करती है।

अरे भाई आप रेलवे व एयरपोर्ट की मुफ्त पार्किंग क्यों चाहते हो? ये मुफ्तखोरी की सुविधा सिर्फ तुम्हें ही पत्रकारिता के नाम पर क्यों मिले, वो भी तब जबकि तुम जिस संस्थानों में काम करते हो, उनके मालिक अरबों में खेलते हैं, क्या जो स्वयं अरबों डकारते हैं, वे तुम्हें दस से पचास रुपये की पार्किंग की व्यवस्था नहीं करा सकते? और तुम्हारे लिए राज्य सरकार स्टडी टीम दूसरे राज्यों में क्यों भेजे, तुम राज्य के लिए काम करते हो क्या?

तुम तो अपने अखबारों, चैनलों व पोर्टलों के लिए काम करते हो, जब अपने अखबारों, चैनलों व पोर्टलों के लिए काम करते हो, तो वहां काम करानेवाले आपके मालिकों का ये नैतिक कर्तव्य बनता है कि आपको जरुरत की सारी सुविधाएं उपलब्ध कराये और अगर ये सब वो नहीं कराता हैं तो आप दूसरा काम ढूंढों, ये क्या जरुरत हैं पत्रकार और पत्रकारिता के ढोंग करने की और इसके नाम पर मुफ्तखोरी का लाभ उठाने की मांग शुरु करने की।