हे स्वास्थ्य विभाग में कार्यरत महान अधिकारियों, संस्कृत को उसके हाल पर छोड़ दीजिये, पहले हलन्त और विसर्ग का प्रयोग कहां होता हैं उसे समझिये, तब जाकर ‘आयुष्मान भव’ की बात करिये
13 सितम्बर को भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने स्वास्थ्य सेवा की बेहतरी के लिए ‘आयुष्मान भव’ कार्यक्रम का वीडियो कांफ्रेसिंग के माध्यम से श्रीगणेश किया। इस कार्यक्रम में झारखण्ड के राज्यपाल सीपी राधाकृष्णन ने भी भाग लिया। कार्यक्रम बहुत ही अच्छा था। जन-सामान्य के लिए था। पर सबसे ज्यादा पीड़ा इस बात को लेकर थी, कि इस पूरे कार्यक्रम में संस्कृत भाषा की हाथ-पैर तोड़ दी गई थी। अभियान का नाम होना चाहिए था – आयुष्मान भव और कार्यक्रम के आयोजकों ने नाम कर दिया था – आयुष्मान भवः।
जब विद्रोही24 ने स्वास्थ्य विभाग के राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के निदेशक आलोक त्रिवेदी से यह बात पूछा कि इतनी बड़ी गलती कैसे हो जा रही है। तब उनका कहना था कि हम इसमें कुछ भी नहीं कर सकते, ये सब दिल्ली से बनकर आता है, हम चाहकर भी ठीक नहीं कर सकते। तो इसका मतलब क्या कि दिल्ली में भी अब महान विद्वानों की फौज ने आकर कब्जा जमा लिया है, जिन्हें ये भी नहीं पता कि ‘आयुष्मान भव’ होगा या ‘आयुष्मान भवः’।
आजकल देखने में आ रहा है कि संस्कृत को अपनाने के चक्कर में लोग संस्कृत भाषा का ही अनादर और उसका अपमान कर दे रहे हैं, जिससे संस्कृत भाषा के जानकार व समझनेवाले या उस भाषा से प्रेम करनेवाले लोगों को लगता है कि किसी ने उनके हृदय पर आरी चला दी हो, पर इन लोगों को उससे क्या मतलब? दिल्ली से संदेश आता है। उस संदेश को लोग यहां के प्रिंटर्स को उपलब्ध करा देते हैं। प्रिंटर्स भी सही या गलत पर ध्यान नहीं देता, वो तो सीधे विभाग से आये शब्दों को हु-ब-हू छाप कर दे देता है और विभाग उसे यथास्थान टांगकर अपनी वाह-वाही लूटने का असफल प्रयास करता है, क्योंकि उनकी गलती को उनके सामने प्रकट करने की जुर्रत कौन करेगा? साहेब जो ठहरे, अगर साहेब को बुरा लग गया तो वे छट्ठी रात का दूध याद नहीं करा देंगे।
अब देखिये न, राज्यपाल यहां भाषण क्या दे रहे हैं? वे कह रहे हैं कि आयुष्मान भवः (सही होगा – आयुष्मान भव) सिर्फ एक कथन मात्र नहीं है। यह एक मार्गदर्शन करनेवाला सिद्धांत है, जिसमें स्वस्थ जीवन जीने का सार शामिल है। यह एक प्राचीन संस्कृत शब्द है, जिसका अर्थ है – आप लंबे समय तक जीवित रहे और स्वस्थ रहे। मतलब ‘भवः’ या ‘भव’ कुछ भी लिख या बोलकर उसका सही अर्थ निकालना कोई सीखे तो इन्ही लोगों से सीखें।
संस्कृत भाषा के प्रकांड विद्वान आचार्य मिथिलेश कुमार मिश्र कहते है कि जब भी लिखा जायेगा तो ‘आयुष्मान भव’ ही लिखा जायेगा, न कि ‘आयुष्मान भवः’ लिखा जायेगा। आजकल जिसे भी देखिये संस्कृत बताने के लिए, स्वयं को संस्कृत भाषा का विद्वान बताने के लिए चाहे दिल्ली हो या रांची, सभी जहां मन चाहे वहां, हलन्त या विसर्ग का प्रयोग कर देते हैं। जैसा कि यहां हुआ है।
स्थिति ऐसी हो गई कि अब लोग स्वयं कन्फ्यूज्ड हो जा रहे हैं, बच्चे तो शत प्रतिशत कन्फ्यूज्ड रहते हैं कि वे कहां विसर्ग लगाये या कहां हलन्त लगाये, ले-देकर उनकी यही कन्फ्यूज्ड हो जाना, उनकी भाषा की समृद्धता में बाधकता भी बन रही है। जिस पर रांची से लेकर दिल्ली तक को सोचना चाहिए, नहीं तो क्या जरुरी है, संस्कृत को ढोने की, उसे उसी हाल में छोड़ दीजिये, क्या वो किसी को कहती है? कि आप मेरा सदुपयोग करें, और अगर सदुपयोग करना ही हैं तो शुद्धता से करें, संस्कृत के जानकारों से उसका लाभ लेकर करें ताकि सही मायनों में उसका अर्थ भी निकल सकें, ये क्या आप कुछ भी परोस दें और उसका अर्थ जो चाहे वो कह दे, भाई ये तो किसी भी हाल में नहीं चलेगा और न ही चलना चाहिए।