धर्म

प्रेमावतार परमहंस योगानन्द जी की 132वीं जन्मोत्सव के पूर्व संध्या पर स्वामी निश्चलानन्द ने कहा कि आप स्वयं ईश्वर के शत्रु ही क्यों न बन जायें, उसके बावजूद परमहंस योगानन्द जी का प्रेम आपके प्रति नहीं बदल सकता

प्रेमावतार परमहंस योगानन्द जी की 132 वीं जन्मोत्सव के पूर्व संध्या पर रांची के ध्यान मंदिर में आयोजित विशेष आध्यात्मिक सत्संग को संबोधित करते हुए स्वामी निश्चलानन्द गिरि ने कहा कि परमहंस योगानन्द जी के शब्दों में आप स्वयं ईश्वर के शत्रु ही क्यों न बन जाये, उनका प्रेम आपके प्रति कभी नहीं बदलेगा, क्योंकि वे नहीं चाहते कि आपका उपहास हो। परमहंस योगानन्द जी के शब्दों में आप सभी उनके लिए परमेश्वर स्वरुप हैं, वो सेवक हैं, वो हमेशा आपकी हर हाल में प्रतीक्षा करेंगे, क्योंकि वे आपसे प्रेम करते हैं।

स्वामी निश्चलानन्द गिरि ने कहा कि अपने गुरु परमहंस योगानन्द जी का प्रेम आपके लिए अनकंडीशनल है। निस्वार्थ है। बिना किसी शर्त का है। इस बदलती दुनिया में सब कुछ बदल सकता है। लेकिन अपने प्रिय गुरुदेव का प्रेम आपके लिए नहीं बदल सकता। वे आपकी आलोचना नहीं देख सकते। वे कभी आपको छोटा बनते नहीं देखना चाहते। वे आपको कभी निराश होता नहीं देखना चाहते। वे आपको धोखा खाते नहीं देख सकते, क्योंकि वे आपके सच्चे मार्गदर्शक और ईश्वर तक ले जानेवाले सच्चे सखा हैं।

उन्होंने कहा कि चाहे आपके साथ कुछ भी हो जाये या आप कुछ भी बन जाये, आपके लिए उनका प्रेम कभी नहीं बदल सकता, चाहे आप उनके पास आये या उनके पास से चले ही क्यों न जाये। वे आपको नहीं भूल सकते। उन्होंने कहा कि कभी स्वामी चिदानन्द गिरि जी ने कहा था कि हमारे गुरुओं या किसी भी महापुरुषों का आविर्भाव दिवस या उनके समाधि के दिन को जब हम याद करते हैं या उस दिन कुछ विशेष आयोजन कर उन्हें याद करते हैं। तो उसके मूल में यही होता है कि हम अपनी चेतनाओं को उन तक ले जाये। मन, हृदय व चेतना के द्वारा उनके आशीर्वादों को अनुभव करने की कोशिश करें। उनकी ओर से प्राप्त होनेवाली सहायताओं व मार्गदर्शन का अनुभव करें।

निश्चलानन्द गिरि ने कहा कि हमारे परमहंस योगानन्द जी जिनकी हम 132 वीं जन्मोत्सव मना रहे हैं। उनका प्रेम जो था वो सर्वव्यापी था, आज भी है, बस उस प्रेम को अनुभव करने की आवश्यकता है। गुरु जी सदैव हमारे साथ हैं। निश्चलानन्द गिरि ने कहा कि कभी दयामाता ने परमहंस योगानन्द जी के बारे में अपने अनुभवों को प्रकट करते हुए कहा था कि परमहंस योगानन्द जी में उन्होंने ईश्वर के प्रति सर्वव्यापी प्रेम को देखा था। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी और कर्मयोगी तथा ईश्वर व मानवता के उत्थान के लिए ही काम करते थे। ईश्वर के प्रति अगाध प्रेम, जगन्माता के प्रति विशेष प्रेम उनके हृदय से बराबर प्रकट हुआ करता था। उन्होंने परमहंस योगानन्द जी को दिव्य प्रेम के अवतारी पुरुष के रूप में देखा। उन्होंने धर्म से हठधर्मिता के पर्दें को हटाया। वे अज्ञानता को मिटाने के लिए सदैव तत्पर दिखे।

स्वामी निश्चलानन्द गिरि ने कहा कि जब एक वरिष्ठ अमरीकन पत्रकार परमहंस योगानन्दजी मिलने पहुंचे तो उस अमरीकन पत्रकार ने अपने अनुभवों के बारे में बताया कि वो संदेहों को लेकर उनके पास पहुंचे थे, लेकिन परमहंस योगानन्द जी के पास पहुंचते ही, उनका सारा संदेह समाप्त हो चुका था। अमरीकन पत्रकार के शब्दों में परमहंस योगानन्द जी से उन्हें दर्शनशास्त्र या धर्म नहीं बल्कि उन्हें, उनसे नि-स्वार्थ प्रेम प्राप्त हुआ। परमहंस योगानन्द जी सभी से प्रेम करते थे। चाहे वो अमरीकन राष्ट्रपति हो या उनके सामने गड्डे खोद रहा कोई मजदूर ही क्यों न हो। उनका प्रेम किसी में बड़ा या छोटा नहीं दिखता, वे समान रूप से सभी के प्रति प्रेम बरसाते। अमरीकन पत्रकार ने उस वक्त कहा था कि गुरुजी किसी से बाह्यरुप से बात नहीं करते, बल्कि वे आत्मवत् बात करते थे।

निश्चलानन्द गिरि ने कहा कि दया माता बताती है कि गुरुजी की आंखें अथाह महासागर की तरह थी। उनकी आत्मा की खिड़कियां हमेशा खुली रहती, उनके भावों का वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता। प्रेम व करुणा स्पष्ट रुप से झलकती थी। जब भी कोई उनसे मिलता, वो उनकी स्थिर दृष्टि को देख समझ जाता कि गुरुजी उनके आत्माओं को पढ़ रहे हैं। गजब की दयालुता थी। वो किसी को जज नहीं करते, बल्कि उस वक्त उस पर अपना निस्वार्थ प्रेम लूटा रहे होते थे। शायद तभी तो कहा भी जाता है कि गुरु जागृत भगवान है। जो अपने शिष्यों में सोये भगवान को जगाता है।

स्वामी निश्चलानन्द गिरि ने कहा कि सभी मनुष्यों में गुरु ही सर्वोत्तम दाता हैं। ईश्वर के समान ही उनकी उदारता की कोई सीमा नहीं। गुरु दैवीय गुणों का जीता जागता उदाहरण है। वो ईश्वर की अभिव्यक्ति है। जिससे हम ईश्वर को जान सकें। उनसे जुड़ सकें। स्वयं को लाभान्वित कर सकें। गुरु प्रेम व करुणा की साक्षात प्रतिमूर्ति हैं। निश्चलानन्द गिरि ने एक प्रसंग सुनाया। एक बार परमहंस योगानन्द जी रांची में एक शिष्य को गलत करते हुए पाया। जो दूसरे लोग थे, वे उक्त शिष्य को माफ करने के मूड में नहीं थे। सजा दिलाना चाहते थे।

लेकिन परमंहस योगानन्द जी ने उसकी गलतियों को माफ कर दिया और उससे अपने प्रेम के द्वारा उसकी गलतियों से सदा के लिए दूरी भी बनवा दी। उस गलती करनेवाले युवा ने भी परमहंस योगानन्द जी को वचन दिया कि वो गलती नहीं करेगा। आगे चलकर उस युवा में काफी परिवर्तन आये। जब गुरुजी बहुत वर्षों बाद रांची लौटे। तो उक्त युवा ने खुद ही गुरुजी से पूछा कि क्या वो, उसे पहचान रहे हैं। वो उन्हीं ही की कृपा से अच्छाई के रास्ते पर चल पड़ा हैं, नहीं तो गलत रास्ते पर चला जाता।

निश्चलानन्द गिरि ने कहा कि गुरु का प्रेम लोगों को बदल देता है। गुरु दर्पण के समान है। जब हम साधना करने लगते हैं, तो उस साधना के दौरान हमारे सारे दोष उक्त दर्पण में दिखाई देने लगते हैं। आप चाहे तो उन सारे दोषों पर गुरु कृपा से विजय पा सकते हैं। ये आपके हाथों में हैं। गुरु को पता होता है कि हमें क्या बनना है? कहां तक जाना है? गुरु हमारे अवगुणों को बदलने का सामर्थ्य रखते हैं।

याद करिये, महाभारत का समय, युद्ध की समाप्ति के बाद जब भगवान श्रीकृष्ण सबसे पहले अर्जुन को रथ से उतरने को कहते हैं और जब अर्जुन रथ से उतर जाता है, तो उसके बाद श्रीकृष्ण रथ से उतरते हैं। श्रीकृष्ण के रथ से उतरते ही रथ स्वतः भस्मीभूत हो जाता हैं। आखिर क्यों, क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण की कृपा से ही भस्मीभूत रथ अपनी पूर्णाकृति में था, क्योंकि कर्ण के बाणों के प्रहार से रथ तो पहले ही जर्जरित हो चुका था, कब का नष्ट हो चुका था। मतलब समझिये गुरु हमें काल के गाल में जाने से भी बचाने का सामर्थ्य रखता है।

निश्चलानन्द गिरि ने कहा कि हमें सदैव गुरुजी के साथ रहने की आदत डालनी चाहिए। दया माता कहती है कि इस संसार में उनके सामने सिर्फ गुरु ही थे, जिनके पास वो बिना किसी संकोच के अपनी आत्माओं को उनके सामने प्रकट कर सकती थी। वो हमारे गुरु थे, जिनके कारण वे सुरक्षा की भावनाओं से भर गई थी। बिना किसी शर्त के उनका प्रेम था। वो मेरे लिए आये थे। मुझे भगवान के पास वापस ले जाने के लिए आये थे।

स्वामी निश्चलानन्द गिरि ने कहा कि हमेशा याद रखें कि हम हमेशा गुरुजी के समीप है। समस्वरता बनाये रखें। गुरु के प्रति सच्ची श्रद्धा एवं उन्हें हमेशा अपने हृदय में रखना चाहिए। शिष्यत्व का अर्थ गुरु की उपस्थिति में उनके विचारों में जीना है। गुरु शिष्य के संबंध में एक बहुत ही सुंदर श्लोक हैं। अगर आप उसके भाव को समझ लेते हैं तो समझ लीजिये, आपका जीवन सफल हो गया।

ध्यानं मूलं गुरुमूर्तिम्, पूजामूलं गुरुर्पदम्।

मन्त्रमूलं गुरुवाक्यं, मोक्षमूलं गुरुकृपा।।

अर्थात् गुरु की प्रतिमा का ध्यान ही सभी ध्यानों का मूल है। गुरु के चरणों की पूजा ही सभी पूजाओं का मूल है। गुरु के मुख से निकले वाक्य ही सभी मंत्रों का मूल है और गुरु की कृपा ही मोक्ष प्राप्ति का मूल साधन है। इसलिए हमेशा याद रखें कि गुरु परमहंस योगानन्द जी जैसे गुरु की कृपा हमसभी के उपर बरस रही हैं। निश्चय ही उनकी कृपा से हम लक्ष्य को प्राप्त करेंगे, कोई किन्तु-परन्तु इसमें नहीं होनी चाहिए।

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