अपनी बात

मजदूर दिवस के अवसर पर नेताओं के हाथों सफेद गमछा पाकर पुलकित हुए झारखण्ड यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट से जुड़े अखबारों के संपादक-प्रबंधक व पत्रकार मजदूर

अन्तरराष्ट्रीय मजदूर दिवस, झारखण्ड विधानसभा का पुराना विधानसभा सभागार, जहां झारखण्ड यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट रांची से जुड़े पत्रकार-मजदूरों ने मजदूर दिवस मनाया। पिछले दो सालों से कोरोना महामारी के कारण पत्रकार-मजदूरों ने मजदूर दिवस नहीं मनाया था, न ही अपने बदन पर चादर या गमछा रखवाया था, लेकिन आज पत्रकार-मजदूरों के बदन पर सुबोधकांत सहाय व मधु कोड़ा जैसे महान दार्शनिक-प्रबुद्ध-अद्वितीय व अंतरराष्ट्रीय नेताओं ने सफेद गमछा रखकर उन्हें धन्य-धन्य कर दिया।

पत्रकार मजदूर भी सफेद गमछा पाकर पुलकित हो गये, भाव-विभोर हो गये, क्योंकि ऐसी इज्जत इन्हें कभी नहीं मिली थी, न तो परिवार के लोगों ने और न ही समाज के लोगों ने ऐसा उन्हें दिया था, ऐसे भी पत्रकार-मजदूरों को मजदूर दिवस पर इससे बड़ा तोहफा और उसमें भी महान नेताओं के द्वारा बदन पर रखने को मिले, इससे बड़ी खुशी और क्या हो सकती है और ये सारा काम करवाया – झारखण्ड यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट से जुड़े रांची के मजदूर कहानेवाले अखबारों के महान प्रबंधकों व संपादकों ने।

ये महान प्रबंधक व संपादक वहीं हैं, जो अपने यहां काम करनेवाले पत्रकार मजदूरों को समय पर न्यूनतम वेतन तक नहीं देते। एक पत्रकार ने विद्रोही24 को बताया कि जब वो इस यूनियन के एक नेता के अखबार में काम करता था, तब वहां अत्याचार इस कदर थी कि उस संस्थान में नेट तक बंद कर दिया जाता था, मोबाइल पहले ही जमा करवा लिया जाता था, हम डेस्क पर अपने ही मित्रों से बातें नहीं कर सकते थे, गुलामी ऐसी कि इ-मेल भी खोलने से हमें मना कर दिया गया था, जब हमने वेतन मांगी तो वेतन नहीं मिला, अंत में हार कर मैं उस संस्थान को छोड़ दिया, आज भी उस संस्थान पर मेरा दस महीने का वेतन बकाया है, ऐसे केवल मैं ही नहीं हूं, कई लोग आज भी जीवित हैं।

एक पत्रकार ने विद्रोही24 को बताया कि आज उसे उस वक्त शर्म आई जब उसने देखा कि डेस्क पर श्रम न्यायालय एवं भविष्य निधि आयुक्त रांची द्वारा दोषी करार दिया गया, कथित एक अखबार का मजदूर प्रबंधक बड़ी शान से स्वयं को प्रतिष्ठित करवा रहा था, लोग उसके बदन पर भी सफेद गमछा रखवा रहे थे।सफेद गमछा अपने बदन पर रखवाने में सभी आतुर थे, जो भी डेस्क पर विवादास्पद कथित मजदूर प्रबंधक/संपादक जो अपने छोटे मजदूर पत्रकारों का शोषण करने में दिलचस्पी रखते हैं, वे डेस्क पर बैठकर ही-ही, ही-ही कर रहे थे, स्वयं को मजदूर पत्रकारों का सबसे बड़ा मसीहा बनने का नाटक कर रहे थे। शेखी बघार रहे थे।

सरकार से मांग कर रहे थे – पत्रकार सुरक्षा कानून लागू हो। राज्य के सभी जिला एवं प्रखण्ड मुख्यालय में मीडिया सेंटर चालू हो। पत्रकारों को घर या घर बनाने लायक जमीन सहकारी समिति के माध्यम से उपलब्ध हो। मृतक पत्रकार के परिवार को हर हाल में दस लाख रुपये एवं बीमार पत्रकार के ईलाज का खर्च राज्य सरकार वहन करें। मतलब अखबार इनका, लाभ उठाएं संपादक और प्रबंधक, और इनके यहां काम करनेवाले पत्रकार मजदूरों की सेवा करें, राज्य की राज्य सरकार। वाह कितनी सुन्दर सोच हैं। आखिर ऐसी सोच ये तथाकथित यूनियन से जुड़े तथाकथित पत्रकार मजदूर प्रबंधक/संपादक कहां से लाते हैं?

आश्चर्य है कि ये सरकार द्वारा निर्धारित एक न्यूनतम वेतन और भविष्य निधि का भुगतान तक नहीं करते, पर इन्हें सरकार से वो सारी सुविधाएं चाहिए, मतलब सरकार से डिमांड करते हुए भी इन्हें शर्म नहीं आती और न ही सरकार इन्हें दंडित करने का कोई उपाय करती हैं, जिस दिन सरकार इन्हें डंडे करने शुरु कर दें, तो समझ लीजिये सारी यूनियनबाजी खत्म हो जायेगी।

आश्चर्य इस बात की भी है कि यूनियन के एक प्रमुख अधिकारी के बारे में मैने आज डेस्क पर ही बैठे एक संपादक-प्रबंधक से बात की कि वो किस अखबार में अब तक काम किये हैं, जवाब था – अभी हम डेस्क पर हैं, पर आपसे बाद में बात करते हैं, अभी रात के पौने दस हो गये, अभी भी वो बात ही कर रहे हैं। इसी प्रकार हमनें अपनी जानकारी बढ़ाने के लिए यूनियन के प्रवक्ता, यूनियन के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष को फोन लगाया, पर क्या मजाल कि कोई मेरा फोन उठा लें। मतलब ऐसे चल रहा हैं यूनियन और ऐसे चल रहे हैं पत्रकार-मजदूर तथा असली मजे ले रहे हैं स्वयं को मजदूर कहलवानेवाले प्रबंधक-संपादक व अखबार के मालिक।