आज ही के दिन (19 सितम्बर) यानी 100 साल पहले परमहंस योगानन्द ने अमेरिका की धरती पर पहला कदम रख, योग-विज्ञान की रखी थी नींव
आज से ठीक सौ साल पहले, 19 सितम्बर 1920 को एक युवा योगी अमेरिका की धरती, बोस्टन में अपने पांव रखे थे। उनका वहां जाना, भारत के अंतरराष्ट्रीय धार्मिक उदारवादियों के प्रतिनिधि के रुप में हुआ था। उस युवा योगी ने धर्म-विज्ञान विषय पर अपने प्रभावशाली व्याख्यान से सभी के हृदय में यह वाक्यांश स्थापित कर दी, कि अपने अंतःस्थल में परमात्मा की उपस्थिति का भान कर, जीवन का परम उद्देश्य, आनन्द की प्राप्ति संभव है। उन्होंने धर्म की सार्वभौमिकता और एकता साबित करते हुए धर्म की व्यावहारिक और मनोवैज्ञानिक परिभाषा दी, न कि सिद्धान्त पर आधारित।
इनके पहले ही व्याख्यान ने अमरीकियों को इस कदर प्रभावित किया कि उनको संयुक्त राज्य अमेरिका के विभिन्न शहरों में व्यापक रुप से व्याख्यान देने के लिए रुक जाना पड़ा। उन्होंने आन्तरिक आनन्द की अहर्निंश प्राप्ति के लिए योग-ध्यान से न केवल अमेरिका, अपितु यूरोप को भी उसी प्रवास में परिचित कराया। उनकी वाणी से सभी क्षेत्रों, विश्वासों, धर्मों, परम्पराओं और संस्कृतियों के लोग प्रभावित एवं आकर्षित हुए। आत्म-साक्षात्कार के इन साधकों ने उनकी शिक्षाओं, योग-ध्यान की वैज्ञानिक तकनीकों और वास्तव में संतुलित और सफल जीवन जीने के लिए आवश्यक आध्यात्मिक मार्गदर्शन पाया।
उन्होंने सीखा कि योग-साधना बाहरी स्थितियों की परवाह किये बिना स्थायी आन्तरिक शांति, स्पष्टता और शक्ति के निर्माण का मार्ग प्रशस्त करती है। पश्चिमी तटों पर जाने से पहले वे 1917 में योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ इंडिया (YSS) की स्थापना कर चुके थे। अपने व्याख्यानों की सकारात्मक प्रतिक्रिया से उत्साहित होकर उन्होंने अमेरिका में 1920 में सेल्फ रियलाइजेशन फेलोशिप (SRF) की स्थापना की।
यह करिश्मा निश्चित था। 1894 के प्रयाग कुम्भ मेले में पौराणिक महावतार बाबाजी ने परमहंस योगानन्द के भावी गुरु स्वामी श्रीयुक्तेश्वर जी से कहा था कि वे पश्चिम में योग-ध्यान के प्रसार के लिए उनके पास प्रशिक्षण के लिए एक युवा शिष्य भेजेंगे। यह युवा शिष्य मुकुंद घोष थे। जो बाद में परमहंस योगानन्द के रुप में विश्व-प्रसिद्ध हुए।
संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए अपने प्रस्थान की पूर्व संध्या पर जब योगानन्द अपनी क्षमता को लेकर संदेह से घिरे हुए थे। ठीक इसी मौके पर बाबाजी कोलकाता के गड़पार रोड स्थित उनके पैतृक निवास में एक व्यक्ति की मौजूदगी में आये और उनसे कहा कि तुम वही हो, जिसको मैंने पूर्व और पश्चिम में क्रियायोग का संदेश फैलाने के लिए चुना है।
परमहंस योगानन्द ने पश्चिम में क्या दिया, सवाल पर वाईएसएस/एसआरएफ के अध्यक्ष स्वामी चिदानन्द जी कहते हैं कि न केवल अमेरिका, बल्कि संपूर्ण मानव जातिको भारत से मिला प्राचीन योग विज्ञान सबसे बड़े उपहारों में से एक है। योग को जानने का विज्ञान, जिसे क्रियायोग कहा जाता है, मैं असीमित क्षमता है। इससे अनेकानेक लोग लाभान्वित हो चुके हैं।
50 से अधिक भाषाओं में अनूदित उनकी सर्वाधिक बिकनेवाली आत्मकथा और आध्यात्मिक क्लासिक “योगी कथामृत” दुनिया भर के लाखों चाहनेवालों के लिए योग-ध्यान का सबसे अच्छा परिचय है। परमहंस योगानन्द ने ध्यान, एकाग्रता और स्फूर्ति की योग तकनीकों में कदम-दर-कदम निर्देश प्राप्त करने और आत्मसाक्षात्कार के लिए योगदा सत्संग पाठमाला का निर्माण किया है।
यही कारण है कि परमहंस योगानन्द को पश्चिम में योग के जनक के रुप में जाना जाता है। आधुनिक समय के सबसे प्रमुख आध्यात्मिक आंकड़ों में से एक यह कि 36 मिलियन से अधिक अमेरिकी योगाभ्यास करते हैं और 18 मिलियन से अधिक ध्यान करते हैं। स्वामी योगानन्द के संगठन वाईएसएस/एसआरएफ में 60 से अधिक देशों के 800 से अधिक आश्रम, रीट्रिट और ध्यान केन्द्र शामिल हैं।
स्वामी जी के अमेरिका पहुंचने के दिन को ऐतिहासिक बताते हुए एसआरएफ ने आज यानी 19 सितम्बर 2020 के दिन शतवार्षिकी समारोह आयोजित करने का निर्णय लिया है। इस आयोजन को मनाने के लिए योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ इंडिया/सेल्फ रियलाइजेशन फेलोशिप संन्यासियों द्वारा पियर्स पार्क, बोस्टन हार्बर में एक समारोह आयोजित किया जायेगा। यह वही स्थान है, जहां परमहंस योगानन्द जी अमेरिका में सौ साल पहले जहाज से उतरे थे। इसके बाद लगातार 24 घंटे क्रियायोग के अभ्यास और ध्यान के अलावा स्वामी चिदानन्द का ऑनलाइन विशेष प्रवचन होगा।
(यह आलेख भारत के पूर्व राजदूत के एन बख्शी द्वारा लिखा गया है।)