अपनी बात

अखबारों के कुचक्र में फंसे लोग, भव्य पंडालों की चकाचौंध व डांडिया के नाच ने भक्ति को दिया नया रंग, दुर्गापूजा महोत्सव अब पंडालोत्सव और डांडियोत्सव में परिवर्तित, न कही भक्ति दिखी और न ही दिखा पूजा के प्रति लोगों का ललक

जमाना बदल गया है। कहा जाता है परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है। अगर यह परिवर्तन है तो ऐसे परिवर्तन को दूर से ही प्रणाम करिये, क्योंकि ये हमारी सामाजिक समरसता व हमारी संस्कृति के लिए इतना घातक है कि इससे बच पाना अब मुश्किल ही नहीं, बल्कि नामुमकिन होता जा रहा है। जहां-जहां दैनिक भास्कर और दैनिक जागरण जैसे अखबार बड़े शहरों से छोटे शहरों में प्रवेश किये हैं। इन अखबारों ने धर्म के नाम पर व संस्कृति के नाम पर सर्वाधिक विष घोला है और ये विष घोलने का काम अभी भी जारी है।

आश्चर्य है कि इन्हीं अखबारों के देखा-देखी अब छोटे क्षेत्रीय व सर्वाधिक बिकनेवाले अखबार का दंभ भरनेवाले प्रभात खबर ने भी इस ओर कदम बढ़ा दिया है। जिसका परिणाम यह हुआ है कि पूरे दुर्गापूजा व इस नवरात्र में कही भक्ति नहीं दिखी और न दिखा लोगों का पूजा के प्रति ललक। अब इसके स्थान पर सभी के दिलों में पंडालों के प्रति आकर्षण और डांडिया नाच के प्रति अगाध आस्था ने जन्म ले ली हैं। जिससे अब लोगों में पूजा के प्रति आकर्षण पूरी तरह से समाप्त हो चुका है।

हालांकि रांची से छपनेवाले अखबारों ने इस पंडालोत्सव व खुद के द्वारा कराये जानेवाले डांडियानाच को भी अपनी ओर से भक्ति का नाम जरुर दिया है। लेकिन पंडालों के प्रति आकर्षण और अखबारों द्वारा आयोजित होनेवाली या व्यवसायियों की संस्था द्वारा आयोजित होनेवाली डांडिया नाच भी कही भक्ति होती है। यहां तो शुद्ध रुप से व्यवसाय होता है और जहां व्यवसाय हो गया। वहां भक्ति कहां से आ गई?

एक तो भाजपा का नेता भोजपुरी फिल्म में नाचने-गानेवाले को दुर्गापूजा के कार्यक्रम में बुलवा लिया था। नाम था उसका पवन सिंह, जो पवन सिंह खुद को पवनवा कहलवाने में ज्यादा आनन्द लेता है। क्या करियेगा। देश बदल रहा है। तो ये भाजपा नेता मोदी को अपने पंडाल में स्थापित करवा ले रहा हैं तो क्या गलत कर रहा है।

कमाल है, जहां-जहां भव्य पंडाल बने हैं। वहां पंडाल देखनेवालों की भारी भीड़ जुट रही हैं। ऐसी भीड़ की उस पंडाल तक पहुंचने में आपके हाथ-पांव फूल जायेंगे। घंटों लगेंगे आपको वहां पहुचने में। पर क्या करें। भव्य पंडाल को देखना हैं। नहीं तो मुक्ति कैसे मिलेगी? आजकल तो पंडाल ही दुर्गापूजा का मुख्य आकर्षण है। मूर्तियां तो कही भी देख लेंगे। ये आजकल की सोच है और ये सोच ऐसे ही नहीं बनी हैं।

इन अखबारवालों ने इनका सोच ही ऐसा बना दिया हैं कि हर व्यक्ति मशीन बन गया है और इन अखबारों के इशारों पर नाच रहा हैं। वहां पहुंच जा रहा हैं। जहां कल तक कोई झांकने नहीं जाता था। दूसरे पंडाल वाले भी सोच रहे हैं कि भाई हमलोग भी इसी तरह आगे साल ऐसा पंडाल बनवायेंगे कि उनके पंडाल तक आने में लोगों का धूआं छूट जाये। अखबार वालों को थोड़ा चटवायेंगे ताकि वे उनके पैरों पर गिरकर दुर्गा की भक्ति कम और उनके तथा उनके द्वारा बनवाये गये पंडाल की भक्ति में ज्यादा तन-मन लगाये।

कमाल है, जहां भव्य पंडाल है। वहां भारी भीड़ और जहां भव्य पंडाल नहीं हैं। वहां दुर्गा की प्रतिमा देखनेवाला तो छोड़िये, वहां जाने को कोई तैयार नहीं। हमने खुद देखा कि बिरसा चौक से आगे जानेवाली सड़क में भारी भीड़ हैं। लोग एक—दूसरे के बॉडी से बॉडी टकराने को तैयार है। महिला-पुरुष का भेदभाव समाप्त है। लेकिन वहीं पर एक मोड़ हैं, जो हटिया रेलवे स्टेशन की ओर जाती है। उस ओर भी देवी की प्रतिमा स्थापित की गई है। पंडाल बने हैं, लेकिन उस ओर जाने को कोई तैयार नहीं।

जबकि आज से पहले जब दैनिक जागरण और दैनिक भास्कर झारखण्ड या बिहार में नहीं आया था तो यही मां के भक्त, उन स्थानों पर भी दिखते थे, जहां आज कोई पहुंचने का नाम नहीं ले रहा, क्योंकि वे सभी पंडालों में उपस्थित मां के दिव्य स्वरूपों में खो जाना चाहते थे। लेकिन इन अखबारों ने मां के दिव्य स्वरूपों की जगह, मां के भक्तों के दिमाग में ऐसा कुड़ा भर दिया कि ये मां के भक्त भव्य पंडालों में अपनी किस्मत देख रहे हैं। इन अखबारों द्वारा डांडिया के नाम पर होनेवाले फूहड़ नाच को देखने में ज्यादा रुचि ले रहे हैं।

जरा आज का दैनिक भास्कर देखिये। पृष्ठ संख्या 9। पृष्ठ का नाम है – दुर्गोत्सव। इसमें एक बीच में फोटो इसने दिया है। यह फोटो रांची के फिरायालाल चौक पर स्थित चंद्रशेखर आजाद दुर्गा पूजा समिति का है। इसमें इस अखबार ने एक फोटो देकर लिखा है कि किसी देवी-देवता के हाथ में कोई अस्त्र-शस्त्र नहीं। लेकिन इसी मूर्ख अखबार ने जो फोटो दिये हैं। उस फोटो में मां के हाथों में त्रिशुल साफ दिख रहा है। मतलब इस अखबार ने कैसे लोगों को दिमाग खराब किया है। उसका ये प्रमाण हैं, ये नीचे दिया गया फोटो, जो दैनिक भास्कर अखबार से लिया गया है। आप खुद देखिये।

इस नवरात्र में कई अखबारों ने अपने-अपने ढंग से डांडिया नाच करवाया है और उस नाच के माध्यम से अपने घर में जमकर राशि बटोरी है। बड़े-बड़े व्यापारिक संगठनों व संस्थानों से धन बटोरे हैं। आखिर ये किसलिए, धर्म के उत्थान के लिए नहीं, बल्कि अपना भरण-पोषण के लिए और जनता को क्या दिया तो जनता के मन-मस्तिष्क में कूड़ा-कचड़ा भरने का काम किया। आम तौर पर गुजरात में जो गरबा या डांडिया नृत्य जो होता है, उसमें इसके द्वारा मां दुर्गा को भजनों और नृत्य से रिझाया जाता है। लेकिन जरा रांची में कितने लोग हैं, जो इन डांडिया नाच में भाग लेकर मां दुर्गा को अपने भजनों और नृत्यों से रिझाया है?

सवाल है, कि धर्म को धर्म ही रहने दिया जाय। दुर्गा पूजा को दुर्गा पूजा ही रहने दिया जाय। तो ज्यादा बेहतर है। लेकिन इस दुर्गा पूजा में अखबारों व अन्य मीडिया हाउसों का आगमन होगा तो निश्चय ही इससे विकृतियां आयेंगी और वो विकृतियों भारत के सनातन धर्म और उनकी विशेषताओं पर कुठाराघात करेंगी। अभी देखियेगा न।

इन अखबारों द्वारा अब सर्वश्रेष्ठ पंडालों और सर्वश्रेष्ठ प्रतिमाओं के नाम पर भी अनेक संस्थाओं द्वारा माल बटोरा जायेगा और इन पूजा समितियों के बीच, जिनका पूजा से कम और बाह्याडम्बरों पर ही ज्यादा फोकस होता हैं। उनके बीच पीतल के कुछ टूकड़े बांट दिये जायेंगे और ये पूजा समितियां उन पीतल के टूकड़ों को लेकर फूले नहीं समाएंगी, क्योंकि इनका आयोजन भी तो इन्हीं सब के लिए था। इन्हें पूजा की प्रधानता और उसके दिव्य आनन्द से क्या मतलब?

इस बार देखा गया कि जिन पंडालों में कल तक भारी भीड़ दिखती थी। इस बार वहां सन्नाटा था। जहां भीड़ थी। वहां तथाकथित भक्तों (जिन्हें अखबारवाले भक्त मानते हैं) ने मां दुर्गा के आगे अपने हाथों को नहीं जोड़ा था। बल्कि अपने एक हाथों में मोबाइल लेकर अपनी गर्लफ्रेंड के साथ सेल्फी लेने में ज्यादा रूचि ले रहे थे। जो अपने परिवार के साथ आये थे या अपनी नई-नवेली दुल्हन के साथ घुम रहे थे। वे भी अपने मोबाइल और सेल्फी में खोये थे।

मतलब नये भक्तों ने अखबारों का आश्रय लेकर एक नई दुनिया की रचना कर डाली थी। विद्रोही24 कल कोशिश किया और जगह घूमे। लेकिन एक भी जगह विद्रोही24 को मां के भक्त नहीं दिखाई पड़े। सभी अपनी दुनिया में मस्त थे। उनके अंदर प्रेम था। लेकिन वो प्रेम जगतजननी के लिए लिए नहीं, बल्कि उनका प्रेम उनके साथ चल रही गर्लफ्रेंड, उनके परिवार, उनके बच्चे के लिए था। जो उन्हें दिव्यता की ओर ले जाने में बाधक बन रहे थे।