अपने ही बच्चों के हत्यारे मत बनिए, नवजात शिशुओं को फेंकिए नहीं, सौंप दीजिए…
( दो शब्द – बहुत ही वरिष्ठ और सहृदय, बच्चों के प्रति समर्पित महिला पत्रकार हैं मोनिका गुंजन आर्या, उन्हीं का ये आलेख हैं, मैं उन्हें अपनी छोटी बहन मानता हूं, उनका ये आलेख आप पढ़े और बच्चों के प्रति अपनी सोच बदलें, ताकि एक नये वातावरण का निर्माण हो। मोनिका गुंजन आर्या, पा-लो-ना नामक संस्था चलाती है, जिनकी वो संयोजिका हैं, उनका मोबाइल नं. 763113334 हैं।बाल दिवस पर विशेष, ये रचना उनकी ओर से, जनसामान्य को समर्पित हैं – कृष्ण बिहारी मिश्र )
14 नवंबर को जब एक और बाल दिवस बीत रहा होगा, हम उल्लास के लम्हों को बांट रहे होंगे, मगर उन आधी-अधूरी सांसों में बसी जिंदगियों को एक बार फिर भूल जाएंगे, जिन्हें पाला जा सकता था, नहीं पाला गया, बचाया जा सकता था, नहीं बचाया गया, जिन्हें दफनाया जा सकता था, नहीं दफनाया गया और अब जिन्हें याद किया जा सकता है, लेकिन उन्हें भुला दिया जाएगा।
ये वही बच्चे हैं जो नदियों-नालों में डूबे हुए मिलते हैं, कूड़े के ढेरों पर पड़े मिलते हैं, पॉलीथिन में पैक पेड़ों पर टंगे मिलते हैं, झाड़ियों में अटके मिलते हैं, रेलवे लाइनों में कुचले हुए मिलते हैं, कुत्तों के जबड़ों में फंसे हुए मिलते हैं, सांडों के खुरों से मसले हुए मिलते हैं…हां, ये वही बच्चे हैं, जो कभी सिसकते, कभी मरते और कभी मरे हुए मिलते हैं।
बॉलीवुड ने इन बच्चों पर लावारिस से लेकर लज्जा तक तमाम फिल्में बना डालीं, और ये समझाने में कामयाब रहा कि शिशु परित्याग और शिशु हत्या भी एक सामाजिक समस्या है। सरकारी-गैर सरकारी एजेंसियों ने एडॉप्शन सेंटर खोल दिए और इसे एक बिजनेस बना दिया। मीडिया की प्राथमिक लिस्ट में ये कभी शामिल हो ही नहीं सके। जिसका नतीजा ये है कि आज की तारीख में जीवित और मृत मिलने वाले परित्यक्त नवजात शिशुओं के बीच का अंतर धीरे-धीरे खत्म होता जा रहा है। और जिस रफ्तार से मृत नवजात शिशुओं के मिलने का सिलसिला जारी है, डर है कि बहुत जल्द ये जीवित मिलने वाले बच्चों की संख्या को पार कर जाएगा।
आंकड़े अपनी कहानी खुद कह देते हैं। वे स्वयं स्थापित होते हैं, उन्हें पुष्ट नहीं करना पड़ता। झारखंड में साल 2017 में जनवरी से लेकर अक्तूबर तक मिले जीवित बच्चों की कुल संख्या है 30, वहीं मृत बच्चों की संख्या 24 है। अंतर बहुत महीन है। इसी प्रकार लड़के और लड़कियों के परित्यक्त अवस्था में मिलने का आंकड़ा भी चौकाने वाला है, विशेषकर मृत नवजातों की संख्या में। जहां मृत लड़कियां 10 मिलीं, वहीं 12 लड़के मृतावस्था में मिले। पा-लो ना द्वारा जुटाई गई ये संख्या अंतिम नहीं है, क्योंकि न जाने कितने मामले सीमा की परिधि लांघ हम तक पहुंच ही नहीं पाते।
समस्या सिर्फ ये नहीं है कि ये बच्चे सबकी नजरों से ओझल हैं। बल्कि असली समस्या ये है कि हम आज भी भ्रूण हत्या को अपराध मानते हैं और शिशु हत्या को सामाजिक विकृति। हम आज भी कोख में पल रहे भ्रूण को सहेजने में जुटे हैं और हर दिन फेंके हुए मिल रहे शिशुओं की तरफ से आंखें मूंदे हुए हैं। हम आज भी शिशु शव के मिलने पर उसे एबॉर्शन से जोड़ देते हैं और ये मानने से इनकार कर देते हैं कि किन्हीं मां-बाप ने बाकायदा प्लानिंग करके इस कोल्ड ब्लडेड मर्डर को अंजाम दिया होगा। हम नर्सिंग होम्स में छापे मारते हैं, मगर शिशु शव के मिलने पर एफआईआर तक दर्ज नहीं करते। तो दोषी पकड़े कैसे जाएंगे, भविष्य के अपराधियों को संदेश कैसे मिलेगा, सजा का खौफ कैसे होगा और अपराध पर लगाम कैसे लगेगी।
साल 2015 में झारखंड की ओर से नेशनल क्राईम रिकॉर्ड ब्यूरो को शिशु परित्याग और शिशु हत्या का जो डाटा उपलब्ध करवाया गया है, वह 0 बताया गया है। यानि उस साल इस राज्य में न तो कोई बच्चा कहीं फेंका या छोड़ा गया, न ही किसी बच्चे की हत्या हुई। इसे आश्रयणी फाउंडेशन की तरफ से हमने चैलेंज किया है। क्योंकि हमारे पास वो डाटा है, जो ये साबित करता है झारखंड पुलिस ने गलत डाटा एनसीआरबी को उपलब्ध करवाया है।
इसे पुलिस की लापरवाही कही जाए या अज्ञानता, या फिर मासूमियत कि शिशु परित्याग के जिस डाटा को कोई भी चाइल्ड वेलफेयर कमेटी (सीडब्लूसी) या चाइल्ड लाइन तक चैलेंज कर सकती है, वे उसी के बारे में झूठ बोल रहे हैं। इन दोनों सरकारी एजेंसियों के सामने तो आए दिन बच्चों के परित्यक्त अवस्था में मिलने के मामले आते रहते हैं। जहां तक बात शिशु हत्या की है, तो प्रशासन को अकसर लगता है कि मरे हुए बच्चों में भला किसकी दिलचस्पी हो सकती है, विशेषकर, जिन्हें उनके अपनों ने ही त्याग दिया हो। इसलिए ये लापरवाही पुलिस प्रशासन जानबूझकर करता है और उन्हें कहीं रजिस्टर ही नहीं करता। परिवार, समाज, पुलिस-प्रशासन और सरकार की इस बेरुखी ने ही पा-लो ना को जन्म दिया है।
पा-लो -ना किसी भी बच्चे के परित्याग के खिलाफ है, फिर चाहे वह जिंदा हो या मृत। हम परिवार और समाज से अपील करते हैं कि वे बच्चों को त्यागने, कहीं पर फेंकने की बजाए उन्हें किसी भी योग्य अधिकारी को सौंप दे, ताकि उसके जीवन को बचाया जा सके। ये कानूनन सही है। हां, मृत बच्चों को कहां सौंपा जाए, ये आज की तारीख में एक समस्या जरूर है, क्योंकि उसके लिए कोई सरकारी-गैर सरकारी एजेंसी विशेष तौर पर सेवा उपलब्ध नहीं करवाती, मगर पा-लो ना के जरिए हम उसके लिए भी प्रयासरत हैं और सरकारी अनुमति मिलने का इंतजार कर रहे हैं।
इसके साथ ही हम सरकार और प्रशासन से अपील करते हैं कि वे तमाम माध्यमों से इस बात का प्रचार प्रसार करें कि बच्चों को फेंकना, उऩ्हें असुरक्षित स्थानों पर छोड़ना, उनके जीवन को खतरे में डालना एक गंभीर अपराध है। वे माता-पिता को सरेंडर पॉलिसी के रूप में मौजूद विकल्प की जानकारी दें। हम अपनी एग्जीबिशंस और सोशल मीडिया के माध्यम से लगातार ये अपील कर रहे हैं, मगर हमारे साधन बहुत सीमित हैं और ये अपराध दिनोंदिन गंभीर रूप अख्तियार करता जा रहा है।
मीडिया से पा-लो ना के जरिए हम अपील करते हैं कि वे शिशु हत्या और भ्रूण हत्या के बारीक अंतर को समझें और इसे अपनी विभिन्न रिपोर्ट्स और कार्यक्रमों का मुद्दा बनाए। पुलिस-स्वास्थ्य और समाज कल्याण से संबंधित अधिकारियों से इस पर सवाल पूछे। मीडिया की पहुंच सबसे ज्यादा होती है और उसके कहने का प्रभाव भी। वह इस अपराध के खिलाफ एक निर्णायक भूमिका अदा कर सकता है।
हम मृत परित्यक्त बच्चों के प्रति ज्यादा जवाबदेही महसूस करते हैं। हम झारखंड से एक ऐसी लकीर खींचने के इच्छुक हैं, जिससे अन्य प्रदेशों में भी मृत नवजात शिशुओं को सुकून भरा स्थान हासिल हो सके। हमारी अपील है कि जिला उपायुक्त रांची को दिए प्रपोजल पर शीघ्रातिशीघ्र निर्णय लेकर उसे कार्यरूप में लाया जाए और उसे झारखंड के हर जिले में लागू किया जाए। हमारी कोशिश इंसान होने के फर्ज को पूरा करने की है। इसमें हमारा साथ दीजिए, यही विनती है।
बहुत बहुत आभार केबीएम जी। दो शब्द में अगर इसका भी ज़िक्र होता कि इस मुहिम की नींव आपके द्वारा लाई हुई फोटो से पड़ी है, तब ये कम्प्लीट होता।
पुनश्च धन्यवाद…