जो लाशों में भी हिन्दू और मुसलमान ढूंढे, उसे आप क्या कहेंगे?
अब तो बुद्धिजीवी भी पूछते हैं कि लाश किसकी है? मुसलमान अगर दलित की है, तो प्रदर्शन में भाग लेंगे, क्योंकि इसका माइलेज मिलता है, अगर सामान्य हिन्दूओं की है, तो उस लाश से हमें क्या मतलब? उससे न तो माइलेज मिलता है और न ही मीडिया तवज्जों देती है, इसलिए अगर लाश मुसलमान और दलित की है तो आंदोलन और सामान्य हिन्दुओं की है, तो उसे हमें कोई लेना देना नहीं। आप कहेंगे कि हमने क्या लिख दिया? पर जनाब आपको मानना ही पड़ेगा, यह शत प्रतिशत सच्चाई है। वामपंथ जिससे लोगों को लगता था कि कम से कम ये लोग लाशों की राजनीति नहीं करते है, पर अब लग रहा है कि इन्हें लाशों की राजनीति में ज्यादा दिलचस्पी हो गयी है। कल की ही घटना है, मैं राजभवन के पास था, पता चला कि साझा मंच के लोग प्रदर्शन करने राजभवन आ रहे है, वे हाल ही में भीड़तंत्र द्वारा की जा रही हिंसक गतिविधियों के खिलाफ अपना आक्रोश व्यक्त करना चाह रहे है तथा राज्यपाल को वे ज्ञापन भी देंगे कि ऐसी हिंसक गतिविधियों पर राज्य सरकार रोक लगाये, ऐसा वे अपनी ओर से दबाव बनाये। हम भी चाहते है कि ऐसी हिंसक घटना, जिसमें बेकसूर मारे जाये, ये अमानवीय कृत्य कभी भी बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए, पर जब ऐसी सोच रखनेवाले स्वयं को मुसलमान और हिन्दू में तौल दें तो उन्हें पीड़ा होती है, जो केवल मानवीय मूल्यों को तवज्जो देते है।
नॉट इन माइ नेम के नाम पर
जब मैं राजभवन पहुंचा तो साझा मंच के बैनर में देखा कि वहां बहुत सारे लोग नॉट इन माइ नेम की बनियान पहने थे, कुछ लोग हाथ में तख्तियां लिये थे, जिसमें एक गाय के पूछ से एक इन्सान को लटका हुआ दिखाया गया था, हमें ये बात समझते देर नहीं लगी कि वे कहना क्या चाहते थे, वे रामगढ़ में घटी अलीमुद्दीन के साथ की घटना से ज्यादा उद्वेलित थे, उन्हें लग रहा था कि इस राज्य में मुस्लिमों को निशाना बनाया जा रहा है, पर सच्चाई यह भी है कि इस राज्य में केवल मुस्लिम ही नहीं, बल्कि हिन्दू भी निशाने बनाये जा रहे है, उन राजनीतिज्ञों के, जो नहीं चाहते कि राज्य में शांति हो, क्योंकि शांति और विकास जैसे ही होगा, फिर उनकी सत्ता आने से रही।
एक दो को छोड़कर सब पर राजनीतिक चश्मे
आखिर कौन लोग थे? कल के प्रदर्शन में। अगर राजनीतिक दलों की बात करें तो, इस प्रदर्शन में सर्वाधिक संख्या वामपंथियों की थी, उसके बाद कांग्रेस और झामुमो तथा बचे तो कुछ मिशनरियों से जुड़े लोग और मुस्लिमों की संख्या सर्वाधिक थी। यहां टाना भगतों को भी बुलाया गया था, चूंकि टाना भगतों को माना जाता है कि वे विशुद्ध गांधीवादी है, और सचमुच उनकी विश्वसनीयता पर, टाना भगतों की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिह्न लगाना, सत्य को प्रश्न चिह्न लगाने के बराबर है। पद्मश्री एवार्ड प्राप्त सिमोन उरांव भी थे, अर्थात् वे भी थे, जिन्हें लगता है कि ये जो घटना घट रही है, वह ठीक नहीं।
लोगों ने इस प्रकार के आंदोलन पर उठाये सवाल
मतलब बड़ी ही चालाकी से नॉट इन माइ नेम के नाम पर उन्हें भी जोड़ने की कोशिश की गयी, जो किसी भी राजनीतिक संगठन से जुड़ना नही चाहते तथा नेक कामों में भाग लेने की कोशिश करते है, इसलिए एक नया नाम, नॉट इन माइ नेम का बहुत अच्छे तरीके से इस्तेमाल किया गया और लोग इस्तेमाल हो गये।
जरा पूछिये, ऐसा करनेवालों से…
सिर्फ अलीमुद्दीन ही क्यों?
- कश्मीर में डीएसपी मो. अय्यूब पंडित की कश्मीर में ही एक मस्जिद के सामने नमाज अदा कर निकले रहे एक भीड़ ने पीट-पीटकर हत्या कर दी, उसके लिए ऐसा दर्द क्यों नहीं छलका?
- केरल के कन्नूर में आरएसएस के कार्यकर्ताओं की माकपा के गुंडों द्वारा चुन-चुन कर हत्या की जा रही है, उनके लिए ऐसा दर्द क्यों नहीं छलका? केरल से ही लापता पांच मुस्लिम युवक आइएसआइएस के लिए काम करते पाये गये, यह क्या है? इसके लिए नॉट इन माइ नेम का जन्म क्यों नहीं हुआ?
- हाल ही में रायबरेली में पांच ब्राह्मणों की पिछड़ी जाति के लोगों ने नृशंस हत्या कर दी, उनके लिए ऐसा दर्द क्यों नहीं छलका? सिर्फ इसलिए कि वे ब्राह्मण थे। हद हो गयी, पीयूसीएल नामक वामपंथी मानवाधिकार संगठन लखनऊ में एक प्रेस कांफ्रेस करती है और दलितों तथा मुस्लिमों के हित में बयान जारी करती है, पर पांच ब्राह्मणों की हत्या कर दी गयी, क्या वे ब्राह्मण मानव नहीं थे, उनके लिए मानवाधिकार नहीं हैं।
- प. बंगाल के हावड़ा में इसी साल एक स्कूल में जहां पिछले 70 सालों से सरस्वती पूजा मनाई जा रही थी, वहां सरस्वती पूजा पर रोक किसने लगवाई। इसका जवाब कौन देगा?
- एक दसवी कक्षा के छात्र ने आपत्तिजनक पोस्ट क्या कर दिया? पश्चिम बंगाल का उत्तरी 24 परगना का बदुरिया, बासिरहाट, देगांगा, स्वरुपनगर में दंगाइयों ने एक समुदाय के लोगों को निशाना बनाना शुरु कर दिया, गाड़ियों में आग लगा दी, दुकानों में आग लगा दी, ट्रेनों को निशाना बनाया, बस सर्विस ठप करा दिया। इस प्रकार उत्तरी 24 परगना में एक समुदाय, दुसरे समुदाय के रहमोकरम पर रहा, पुलिस मूकदर्शक बनी रही। इस मुद्दे पर नॉट इन माइ नेम का मुंह बंद क्यों रहा? यानी जीने का अधिकार सिर्फ मुस्लिमों को और हिन्दुओं को नहीं। कमाल है, सोशल साइट पर जब बड़ी संख्या में हिन्दुओ का समूह आपको ईद मुबारक कह रहा होता है तो अच्छा और इसी में किसी पागल ने कुछ आपत्तिजनक बाते लिख दी तो आप पूरे समुदाय को लील जायेंगे, दंगे करेंगे, ये किस किताब में लिखा है भाई।
- जरा धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा देखिये। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने एक मुस्लिम फरहाद हकीम को हुगली जिले में प्रसिद्ध तारकेश्वर मंदिर बोर्ड का अध्यक्ष बना दिया, क्या यही ममता बनर्जी किसी मुस्लिम वक्फ बोर्ड का अध्यक्ष किसी हिन्दू को बना सकती है? उत्तर होगा- नहीं, तो फिर ऐसा अंधेरगर्दी क्यों? और जिसे बनाया है, जरा उसका अतीत देखिये, ये वहीं फरहाद हकीम है, जो पाकिस्तानी समाचार पत्र को एक इंटरव्यू में कहा था कि बंगाल तो मिनी पाकिस्तान है। आखिर इस देश में ये दोगली नीति क्यों चल रही है भाई?
- झारखण्ड के पूर्वी सिंहभूम और सरायकेला में एक उन्मादी भीड़ ने सात लोगो की हत्या कर दी थी, इसमें तो हिन्दू और मुसलमान दोनों मारे गये थे, ऐसे में इस घटना को केवल मुसलमानों की हत्या कहकर जमशेदपुर में दंगे भड़काने का काम किसने किया, लोग नहीं जानते है क्या?
- हमें वो दिन अच्छी तरह याद है कि भाकपा माले के विधायक महेन्द्र सिंह प्रदर्शन करने लिए निकले थे, यह प्रदर्शन अमरीकी साम्राज्यवाद के खिलाफ था, यह वह समय था जब अमरीका इराक पर हमले कर रहा था, महेन्द्र सिंह कचहरी पहुंचनेवाले थे, तभी पीछे से मुस्लिम समुदाय के लोग निकल पड़े और फिर महेन्द्र सिंह का प्रदर्शन कहां गया? हमें पता ही नहीं चला, उस वक्त, ईटीवी रांची में था।
बुद्धिजीवी, बुद्धिजीवी ही रहे तो अच्छा
मेरा कहना स्पष्ट है कि जो भी स्वयं को बुद्धिजीवी कहलाते है, वे अपने को बुद्धिजीवी ही रखे, किसी का पट्टा न पहने, अगर पट्टा पहनते है तो खुलकर बोले कि हम वामपंथी है, दक्षिणपंथी है, भाजपाई है, कांग्रेसी है, झामुमो से जुड़े है, और ये कहने मे गलत क्या है? क्या राजनीतिक दलों में अच्छे लोग नहीं होते, होते है, पर इसकी आड़ में एक सच्चे, निरपेक्ष और एकमात्र मानववाद को बढ़ावा देनेवाले लोगों जिनकी संख्या बहुतायत है, कृपया उन्हें धोखा नहीं दे।
देश झुलस रहा है और इसे झुलसाने में केवल एक दल का नहीं, बल्कि सभी का हाथ है, पर सभी अपने-अपने ढंग से रोटी सेंक रहे है। सभी को मालूम होना चाहिए कि पटना के गांधी मैदान में जो राजनीतिक सभा थी, उसमें बम बरसानेवाले लोग रांची से ही गये थे, उस बम बरसाने के क्रम में बहुत लोग मरे, घायल भी हुए पर किसी ने भाजपा को छोड़कर इसकी निंदा नहीं की। उन्होंने भी नहीं की, जिनके समुदाय से वे लोग आये थे, जिन्होंने इस प्रकार का कुकर्म किया था।
कल की घटना में देखा एक गांधी बनकर आदमी प्रदर्शन में शामिल था, खुब फोटो खीचा रहा था, लोग उसके साथ खुब सेल्फी ले रहे थे, वामपंथियों का समूह जो गांधी का खूब विरोध करता है, उसके साथ फोटो खिचवानें में गर्व महसूस कर रहा था, पता चला कि वे जनाब बीटेक और एमबीए कर चुके है, पर शायद उन्हें पता नहीं कि जब गांधी ने असहयोग आंदोलन चलाया और उसी क्रम में जब चौरी-चौरा घटना घटी तो गांधी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया था, यानी गांधी अंग्रेजों की भी हत्या होती थी, तो उसके लिए भी वहीं उनकी धारणा थी, जो सामान्य भारतीयों के लिए थी, ऐसा थे गांधी और ऐसा है गांधीवाद। केवल गांधी की तरह पोशाक और चश्मे लटका लेने तथा सेल्फी खींचवाने से आप अहिंसक नहीं हो जायेंगे और न ही आप अपनी बात मनवा लेंगे, ये सभी को जान लेना चाहिए, अतः लाशों पर राजनीति न हो, तो देश के लिए अच्छा रहेगा।