पत्थलगड़ी गांवों के आदिवासियों के अधिकारों के संरक्षण के बजाए रघुवर सरकार अपना रही दमनात्मक रवैया
6-7 अगस्त 2019 को सामाजिक कार्यकर्ताओं, शोधकर्ताओं, पत्रकारों व वकीलों के एक दल ने खूंटी ज़िले के कई पत्थलगड़ी गावों (खूंटी प्रखंड के घाघरा, भंडरा प्रखंड के हाबुईडीह व अर्की प्रखंड के कोचांग व बिरबांकी) का दौरा किया। दल ने इन गावों व पड़ोसी गावों के आदिवासियों व ज़िले के उपायुक्त से मुलाकात की।
इस तथ्यान्वेषण का उद्देश्य था आदिवासियों द्वारा पत्थलगड़ी करने के कारणों व पत्थलगड़ी के विरुद्ध प्रशासन की कार्रवाई को समझना। यह तथ्यान्वेषण झारखंड जनाधिकार महासभा द्वारा आयोजित किया गया था, जिसमें कई संगठनों, जैसे आदिवासी अधिकार मंच, झारखंड मुंडा सभा व आदिवासी बुद्धिजीवी मंच ने हिस्सा लिया। महासभा झारखंड के कई जन संगठनों व सामाजिक कार्यकर्ताओं का एक मंच है।
पत्थलगड़ी मुंडा आदिवासियों की एक पारम्परिक प्रथा है, जिसमें वे अपने पूर्वजों के सम्मान में या गाँवों की सीमा चिन्हित करने के लिए पत्थलों की स्थापना करते हैं। 2017 से झारखंड के अनेक गावों में पत्थलों की स्थापना की गयी हैं, जिनपर आदिवासियों के संवैधानिक व क़ानूनी प्रावधानों व उनकी व्याख्या लिखी हुई हैं। ग्रामीणों के अनुसार इन प्रावधानों और न्यायालय के आदेशों के अंतर्गत उनके निम्न अधिकार हैं – 1) पारम्परिक आदिवासी शासन प्रणाली व ग्राम सभा की सर्वोच्चता, 2) आदिवासियों का भूमि पर अधिकार, 3) ग़ैर–आदिवासी और बाहरी लोगों के अनुसूचित (आदिवासी बहुल) क्षेत्रों में बसने और काम करने के सीमित अधिकार, और 4) आदिवासी ही भारत के मूलनिवासी और मालिक हैं इत्यादि।
तथ्यान्वेषण दल (रिपोर्ट संलग्न) ने पाया कि पत्थलगड़ी सरकार की आदिवासियों के प्रति कुछ नीतियों के विरुद्ध एक शांतिपूर्वक प्रतिक्रिया हैं। इन नीतियों में मुख्य रूप से शामिल हैं भूमि अधिग्रहण कानूनों में बदलाव की कोशिशें, आदिवासियों के सोच–विचार को समझने और संरक्षण करने में विफलता, ग्राम सभा की सहमति के बिना योजनाओं का कार्यान्वयन, पेसा व पांचवी अनुसूची प्रावधानों का अनुपालन व मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन। पत्थलों पर लिखी अधिकांश संवैधानिक व्याख्याएं शायद गलत या अतिकथन हैं, लेकिन वे लोगों के वास्तविक मुद्दों और मांगों पर आधारित हैं व ग्राम सभा की निर्णायकता की मूल भावना गलत नहीं है।
अनेक ग्रामीणों ने कहा कि मौजूदा राज्य सरकार द्वारा सीएनटी अधिनियम के प्रावधानों में बदलाव करने की कोशिशों के कारण पत्थलगड़ी शुरू हुई। सरकार द्वारा भूमि अधिग्रहण में ग्राम सभा की सहमति के प्रावधान को समाप्त करने की कोशिश की गयी थी। इसके विरुद्ध 2016 में हुए प्रदर्शन में खूंटी से लोगों को प्रशासन द्वारा रांची तक आने नहीं दिया गया था।
खूंटी में पुलिस ने भीड़ पर गोली चलायी थी, जिससे एक व्यक्ति की मौत हो गयी थी। लोगों में यह भय है कि परासी खदान से सम्बंधित खनन, सड़क और अन्य निर्माण के लिए सरकार उनकी ज़मीन जबरन अधिग्रहण करना चाहती है। कई लोगों ने स्पष्ट कहा कि उनके लिए उनकी ज़मीन छोड़ना संभव नहीं है क्योंकि प्रकृति (जिसमें भूमि शामिल है) उनकी धार्मिक और शासन व्यवस्था का एक अभिन्न हिस्सा है, पर ज़िले के उपायुक्त ने कहा कि विकास की परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण आवश्यक है।
आदिवासियों के स्वशासन के अधिकार पर लगातार हमलों के कारण भी लोगों में गुस्सा है। विभिन्न योजनाओं के कार्यान्वयन के पहले ग्राम सभा से सहमति नहीं ली जाती है। पत्थलगड़ी गांवों में अनेक के द्वारा आधार कार्ड का बहिष्कार किया गया है। इसके पीछे भी मूल कारण है आदिवासियों पर हो रहे शोषण व उनके अधिकारों का हनन।
लोगों का कहना है कि चूंकि आधार के अनुसार दोनों आदिवासी और बाहरी ‘आम आदमी’ हैं, इससे बाहरियों द्वारा आदिवासियों का शोषण व उनके संसाधनों के दोहन की संभावना बढ़ जाती है। दौरा किए गावों में अनेक लोगों ने 2019 के लोक सभा चुनाव में वोट नहीं दिया क्योंकि उनके अनुसार ग्राम सभा और ग्राम प्रधान ही उनकी सर्वोच्च स्वशासन प्रणाली हैं।
दल ने यह भी पाया कि स्थानीय प्रशासन द्वारा पत्थलगड़ी आन्दोलन के विरुद्ध भयानक दमन और हिंसा की गई हैं। मानवाधिकारों का व्यापक उल्लंघन भी हुआ है। घाघरा में हजारों पुलिस कर्मियों ने 27 जून 2018 (गाँव में पत्थलगड़ी समारोह के एक दिन बाद) के उपस्थिति लोगों – पुरुष, महिला, बच्चे, बूढ़े पर लाठी चार्ज किया। पुलिस ने आंसू गैस और बन्दूक से फायरिंग भी की।
एक महिला को महिला पुलिस द्वारा उसे निर्वस्त्र कर इतना पीटा गया कि वह अगले एक सप्ताह तक चल नहीं पाई। आश्रिता मुंडा की, जो गर्भवती थी, पुलिस ने घर के अंदर घुसकर डंडे से पिटाई की। आश्रिता ने एक शारीरक रुप से विकलांग बच्चे को जन्म दिया, जिसके दोनो पैर अंदर की तरफ मुड़े हुए हैं। अड़की प्रखंड के चामडीह गांव के बिरसा मुंडा, जो पत्थलगड़ी समारोह में भाग लेने आए थे, को पुलिस की गोली लगी और उनकी मृत्यु हो गयी।
एक व्यक्ति को पैर में गोली लगी, लेकिन वह किसी तरह भागने में सफल रहा। ग्रामीणों ने अब तक गोलियों के खोल रखे हैं। गाँव की अधिकांश महिला और पुरुष कई हफ़्तों तक गांव के बाहर रहे (आसपास के गॉंवों और जंगलों में छिपे रहे)। इस दौरान वे न अपनी खेती का काम कर पाए और न ही अपने मवेशियों की देखभाल। उपायुक्त ने पुलिस द्वारा की गयी हिंसा को मानने से स्पष्ट इनकार कर दिया।
हिंसा केवल घाघरा तक सीमित नहीं है। उदुबुरु और जिकिलाता के गांवों में भी लोगों को पीटा गया है। पुलिस ने कुर्की ज़ब्ती के आड़ में कई घरों को तहस–नहस किया है। तोतकारा में जवानों ने अपने स्क्वॉड के कुत्तों को लोगों पर छोड़ दिया। एक 25-वर्षीया महिला मरियम सॉय को कुत्तों ने बुरी तरीक़े से काट लिया था। लोगों में भय और अविश्वास है। पुलिस गांव आकर मनमाने तरीक़े से किसी को भी उठा ले जाती है या घरों में छापें मारती है।
15 प्राथमिकियों के अनुसार (सूची संलग्न), जिसका विश्लेषण फ़ैक्ट फ़ाइंडिंग टीम से जुड़े अधिवक्ताओं ने किया है, पुलिस ने लगभग 100-150 नामज़द लोगों और 14000 अज्ञात लोगों पर कई आरोप दर्ज किए हैं, जैसे भीड़ को उकसाना, सरकारी अफसरों के काम में बाधा डालना, समाज में अशांति फैलाना, आपराधिक भय पैदा करना और सबसे चौकाने वाला, देशद्रोह भी शामिल है। इनमें ऐसे 20 सामाजिक कार्यकर्ता, पत्रकार, शोधकर्ता व लेखक भी हैं, जिन पर सरकार ने सोशल मीडिया में आदिवासी अधिकारों पर हमलें और पत्थलगड़ी गांवों में सरकार के दमन पर सवाल करने के लिए देशद्रोह कानून के तहत मामला दर्ज किया है।
पत्थलगड़ी के मामले में कुल मिलाकर 29 प्राथमिकियां दर्ज की गई हैं। ऐसी संभावना है कि इन सभी प्राथमिकियों में सभी पत्थलगड़ी गांवों के ग्राम प्रधानों और लगभग 30000 अज्ञात लोगों के देशद्रोह सहित अन्य आरोप दर्ज है। जब भी पुलिस गांव आती है तो ग्रामीण डर जाते हैं कि कहीं उन्हें भी इन अज्ञात लोगों के नाम पर गिरफ्तार कर लिया जाएगा।
तथ्यान्वेषण दल ने पाया कि अनेक लोग, जिनपर प्राथमिकी दर्ज हुई है या जिन्हें पुलिस अचानक उठा के ले जाती है, उन्हें पता भी नहीं कि उन पर कौन–कौन सी धाराएं लगायी गयी है। इस रिपोर्ट को तैयार करते समय भी यह सूचना मिली कि घाघरा से पुलिस ने फिर कई लोगों को देर रात जाकर हिरासत में ले लिया।
पुलिस ने बिना ग्राम सभा की सहमति के सरकारी विद्यालयों व सामुदायिक भवनों में छावनी लगा दी है। तथ्यान्वेषण दल ने दो पुलिस कैम्प देखे – एक कोचांग में और दूसरा कूरुंगा गाँव में – जो कि स्थानीय विद्यालयों में बनाए गए हैं। बिरबांकी और कोचांग के लोगों ने कहा कि जब कैंप लगाया गया था तब ये विद्यालय चल रहे थे। कैंप लगने के बाद विद्यालयों को बंद कर के अन्य ऐसे विद्यालयों के साथ विलय कर दिया गया जो गाँव से दूर हैं।
कोचांग में पुलिस और स्थानीय प्रशासन द्वारा ग्रामीणों के फर्जी हस्ताक्षर/अंगूठा छाप लेकर एक फ़र्ज़ी ग्राम सभा सहमति पत्र बनाकर गाँव की कुछ ज़मीन को पुलिस के स्थायी कैंप के लिए लिखवा लिया गया। कोचांग के ग्राम प्रधान, सुखराम सोयम, व ग्रामीण कैंप के लिए ज़मीन देने के लिए तैयार नहीं हैं। इस भूमि का गाँव के धार्मिक कार्यक्रमों में प्रयोग होता है।
इसकी संभावना है कि ऐसी ही स्थिति ज़िला के अन्य पत्थलगड़ी गावों में भी है। पत्थलगड़ी गावों में आदिवासियों के अधिकारों के लगातार हनन पर राजनैतिक नेताओं की चुप्पी पर महासभा चिंतित है। महासभा सभी विपक्षी दलों से आग्रह करती है कि वे खूंटी के आदिवासियों के संघर्ष का साथ दें व राज्य सरकार से जवाबदेही मांगे। पत्थलगड़ी गांवों में पाए गए तथ्यों के आधार पर जांच दल और झारखंड जनाधिकार महासभा निम्न मांगे करती हैं –
- खूंटी के हजारों अज्ञात आदिवासियों व सामाजिक कार्यकर्ताओं पर देशद्रोह के आरोप पर की गई प्राथमिकियों को तुरंत रद्द किया जाए। जितने नामजद लोगों पर प्राथमिकी दर्ज की गयी है, उसकी समयबद्ध तरीके से न्यायिक जांच करवाई जाए। किस सबूत के आधार पर इन मामलों को दर्ज किया गया है और जांच में क्या प्रमाण मिलें, सरकार इसे तुरंत सार्वजनिक करे।
- घाघरा व अन्य गांवों में सुरक्षा बलों द्वारा की गई हिंसा की न्यायिक जांच हो और हिंसा के लिए जिम्मेवार पदाधिकारियों पर दंडात्मक कार्रवाई हो। साथ ही, पीड़ित और क्षतिग्रस्त परिवारों को मुआवज़ा दिया जाए।
- सभी नौ विद्यालयों व दो सामुदायिक भवनों में लगाई गई पुलिस छावनियों को तुरंत हटाया जाए – अदरकी, कोचांग, कुरुँगा, बिरबांकी (अर्की); किताहातु, केवरा (मुर्हू); हूट (खूंटी)।
- सरकार पत्थलगड़ी किए गाँव के लोगों, आदिवासी संगठनों के प्रतिनिधियों व संवैधानिक विशेषज्ञों के साथ पत्थलों पर लिखे गए प्रावधानों की व्याख्या पर वार्ता करे।
- सरकार पांचवी अनुसूची और पेसा के प्रावधानों को पूर्ण रुप से लागू करे।