सतुआनी यानी बचपन में “टुइयां” खरीदने और “नाच बगइचां” जाने की जिद करने का दिन
पटना से 12 किलोमीटर की दूरी पर है – दानापुर कैंट। दानापुर कैंट से करीब तीन से चार किलोमीटर दूर पर है – नासिरीगंज। ऐसे यह नासिरीगंज, दानापुर कैंट और गांधी मैदान पटना मार्ग पर पड़ता हैं। इसी नासिरीगंज इलाके करीब 40 वर्ष पूर्व तक एक बहुत बड़ा खुला खेत हुआ करता था, जिसे लोग “नाच बगइचां” कहा करते थे। ये “नाच बगइचां” कैसे नाम पड़ा? मैं नहीं जानता और न ही किसी बाग-बगइचां को नाचते देखा, पर चूंकि नाम था – “नाच बगइचां”, तो हम भी उस बाल्यकाल में उसे “नाच बगइचां” से ही पुकारा करते। आज पता नहीं, वहां मेला लगता है या नहीं, पर एक समय था, कि यहां आज के दिन यानी 14 अप्रैल को सतुआनी के अवसर पर मेला लगा करता।
आसपास के लोग अपने परिवार, बच्चों के साथ यहां मेला देखने आते और अपनी जरुरतों के सामान खरीदा करते। चूंकि उस समय तक न तो टीवी लोगों के पास आया था और न ही मोबाइल, जैसे स्मार्ट फोन, कि आप उसमें अपने स्वभावानुसार मनोरंजन की सामग्रियां ढूंढ ले और मनोरंजन कर ले, उस वक्त ले-देकर मेले ही हुआ करते थे। जो समय-समय पर विभिन्न गांवों या शहरों में लगा करते।
बचपन में जैसे ही होश संभाला। अप्रैल महीने के आगमन के साथ ही, हमें “नाच बगइचां” की याद सताती। मां-बाबूजी से छुट्टे पांच-दस पैसे लेता और मेले जाने की जिद करता। बाबूजी अपने साइकिल पर बिठाते और “नाच बगइचां” लेकर चल देते। मिट्टी के बने हाथी, घोड़े, बुढ़ा-बुढ़ियां, बंदूक लिये जवान, अपनी छोटी सी झोपडी के आगे खड़ा किसान, अपनी ओर आकर्षित करता, पर आज के दिन सर्वाधिक हमें आकर्षित करता, वह पांच पैसे में बिकनेवाला “टुइयां”।
दरअसल “टुइयां” मिट्टी की बना छोटा सा कलश का आकार का बर्तन हुआ करता था, जिससे एक छोटी सी मिट्टी की नली निकली होती थी, जिससे होकर पानी निकलता रहता और बच्चे उस नली से मुंह लगाकर ठंडे पानी का आनन्द लेते। इस “टुइयां” को खरीदने के लिए उस वक्त अपने बचपन के दोस्तों में भी होड़ लगा करती, क्योंकि फिर उसके बाद “टुइयां” के दर्शन नहीं होते।
जब भी भोजन करते, तो “टुइयां” को अपने पास रखना नहीं भूलते और जब “टुइयां” टूटता, तो ऐसा लगता कि किसी ने प्राण निकाल लिये हो। “टुइयां” के लिए रोना-धोना शुरु और लगे बाबुजी-मां गोद में लेकर चुप कराने, फिर ला देंगे “टुइयां” रोने की जरुरत नहीं, फिर आयेगा मेले का दिन, फिर चलेंगे “नाच बगइचां” और ला देंगे “टुइयां”।
आज तो स्थिति है कि जो अपने मुहल्ले में कुम्भकार भाई हुआ करते थे, अब वे इस धंधे को छोड़ चुके हैं, कारण अब लोगों की जरुरतें बदल सी गई है और बच्चों के मनोरंजन के साधन भी बदल चुके हैं। अब बच्चे न तो मिट्टी के खिलौने पसंद करते हैं और न ही परिवार के लोग अब मिट्टी के घड़े का इस्तेमाल करते हैं और न ही कोई खपरैल मकान में रहना पसंद करता हैं, जब जरुरतें बदल जाती हैं तो लोगों के रोजगार तो नष्ट होंगे ही। इसलिए अब “टुइयां” दिखाई नहीं पड़ता और न ही “नाच बगइचां” का वह स्वरुप ही है।
अब उन खाली खेतों में लोगों ने मकान बना लिये हैं, ऐसे में मेला लगेगा कैसे? अब केवल नाम के लिए कुछ दुकानें लग जाती हैं, मेला जैसा अब कुछ लगता ही नहीं और न ही अब बच्चों का “टुइयां” दिखाई देता है, बस आज जो बुढ़े हैं या बुढ़े होने चले है, उनकी यादों में वह बचपन का “टुइयां” सिर्फ हिलोरें मारता हैं।
मिश्रा जी आपकी इस लेखनी ने बचपन की याद दिला दी